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दशहरा गए, रावण जलाये तो दिन हो गए लेकिन रोज़-रोज़ के रावणों का क्या किया जाए? क्यों ना एक बार ऐसा दशहरा मनाएं कि कोई रावण वापस ना आ सके?
काठ का पुतला जला कर खुश हो तो रहे हो अपने मन के रावण को जला पाओ, तो जानूं!
आए सीता जब-जब कोई तुम्हारी शरण में तो सकुशल लौटा पाओ, तो जानूं!
असत्य की स्वर्ण लंका को भेद तो रहे हो अपने बाण से दिल को सत्य का अभेद्य किला बना पाओ, तो जानूं!
विजय का जश्न चाहे जितना भी मना लो दुश्मन को हराकर, गले लगा पाओ, तो जानूं!
हर साल जुटते हो मेरी तबाही का मेला देखने समाज से हर कुरीति हटा, खुशियों से आबाद करा पाओ, तो जानूं!
रावण को भूलते नहीं, हर बार फिर से लौटा लाते हो राम को सदा के लिए जीवन में उतार पाओ, तो जानूं!
मूल चित्र : Canva
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