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तलाश में खुद की – ‘दिल में बेचैनियाँ लेकर चल रहे हो तो ज़िंदा हो तुम!’

तलाश कभी खत्म नहीं होती। कम से कम मेरी तलाश इतनी उम्र बीत जाने के बाद भी वहीं पर है जहां से शुरू की थी, लेकिन ये तलाश ही तो है जो हमें ज़िंदा रखती है।

तलाश कभी खत्म नहीं होती। कम से कम मेरी तलाश इतनी उम्र बीत जाने के बाद भी वहीं पर है जहां से शुरू की थी, लेकिन ये तलाश ही तो है जो हमें ज़िंदा रखती है।

चलते-चलते जब कभी भी लगा, हाँ ये वही मंज़िल है शायद, जिसकी मुझे तलाश थी, तो मेरा भ्रम जल्दी ही टूट गया। पता नहीं वो लोग कैसे होते हैं जिनकी तलाश या तो पूरी होती हैं या ख़त्म। क्या ऐसे लोग होते भी हैं?शायद होते हैं तभी तो कहकहे सुनाई पड़ते हैं, बसेरे दिखाई पड़ते हैं। हालांकि ज़्यादातर ऐसा नहीं है क्यूंकि जहां भी नज़रें दौड़ाओ एक तलाश ही नजर आती है।

किसी को दौलत चाहिए, किसी को शोहरत, किसी को साथ चाहिए, किसी को सफर, किसी के पास दोस्त नहीं है, किसी के पास छत नहीं। हर जगह कुछ ना कुछ मसले, कुछ ना कुछ ख्वाहिशें और उन ख्वाहिशों के पीछे भागता हुआ, तलाशता हुआ इंसान।

मैं भी कौन सी अलग हूँ, मै भी उनमें से ही हूँ, मैं भी तलाश रही हूँ, अपने वजूद को। कौन हूँ मैं, क्यों हूँ मैं? बेटी हूँ, माँ हूँ, पत्नी हूँ, बहू हूँ, दोस्त हूँ या कुछ और? कहीं ऐसा तो नहीं कि इतने सारे रिश्तों को जीते हुए, मुझमें मेरा सा कुछ बचा ही नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि इन रिश्तों को कामयाब बनाने की नाकाम कोशिशों में किए हुए समझौतों ने मुझमें इतनी मिलावटें कर दीं कि मैं खुद का वजूद भी तलाश नहीं कर पा रही?

आजकल अक्सर एक सवाल जब तब मेरे सामने आके खड़ा हो जाता है, कौन हूं मैं? मेरी पहचान क्या है? जो रिश्ते निभाए हैं मैंने, क्या वो मेरी पहचान हैं? या जो नाम कमाया है मैंने, वो है मेरा चेहरा? अगर वो मेरी पहचान और चेहरा हैं तो मुझे तलाश किसकी है? मेरी रूह में ये बेचैनी कैसी है? ये खालीपन कैसा है? मेरी जिंदगी का मकसद क्या है? क्या मुझे मेरे जवाब मिलेंगे? क्या मेरी तलाश कभी खत्म होगी? क्या मुझे कभी सुकून आएगा?

क्या कभी कोई ऐसा मिलेगा जो मेरे सारे सवालों के जवाब देदे? क्या कभी कोई ऐसा मिलेगा जो मेरे जैसा ही हो, हू-बहू, जो मेरी छाया हो और जो मेरी तलाश पूरी कर सके? कोई एक शख़्स, बस एक शख़्स, जो मुझे मेरी शकल से नहीं रूह से जानता हो। जो मेरी कमियों को नहीं, मेरी खूबियों को भी पहचानता हो? जो मेरे लफ़्ज़ों से ज़्यादा मेरी खामोशियों को सुनता हो। या कम से कम बस वैसा ही हो जैसी मैं हूं। जिसे मिलके लगे कि आज सफ़र पूरा हो गया और मंज़िल मिल गई।

मुझे नहीं पता मेरी तलाश का कोई अंत है या नहीं, या फिर कोई मायने भी है या नहीं, पर तलाश तो जारी है, मेरी भी और मेरे चारों तरफ फैली दुनिया की भी। लोग मिलते, बिछड़ते रहे, कभी दोस्त बनकर, कभी दुश्मन बनकर।सारे काम होते रहे कभी आसानी से कभी परेशानी देकर। जिंदगी चलती रही, कभी हंसकर कभी रोकर। और, इसके साथ-साथ तलाश भी।

कोई फिल्म होती तो शायद एक सुखद अंत लिखा भी जा सकता था, पर ज़िंदगी बड़ी सयानी होती है, उन्हें बहलाना किसी के बस की बात नहीं और इसीलिए असली ज़िंदगी में अक्सर तलाश ख़त्म नहीं होती। अपने दिल में अपनी तलाश लिए अक्सर लोग गुज़र जाया करते हैं। मेरा भी कुछ ऐसा ही हश्र होगा। हां या ना, ना या हां…और फिर जवाब की तलाश में कई सवाल खड़े हो जाते हैं और बस यू हीं ये सिलसिला चलता रहता हैं…

ऐसा नहीं है कि सवालों के जवाब नहीं तलाशे जा सके, पर कमबख्त ज़िंदगी इतनी सख्त निकली कि जितने सवाल हल किए उतने ही सवाल खड़े करते गई। बहरहाल इन सवालों के बीच भी अपनी तलाश जारी है, इस उम्मीद के साथ कि एक दिन सारी गुत्थियां सुलझेंगी, हर सवाल का जवाब मिलेगा। सारी धुंध छट जाएगी और आसमान साफ हो जाएगा।

फिर सोचा क्या होगा उस दिन? क्या मेरी रूह को चैन आ जाएगा? मेरी बेचैनी खत्म हो जाएगी? अगले ही पल महसूस हुआ कि अगर तलाश नहीं होगी तो मकसद क्या होगा? बेचैनी नहीं होगी तो ज़िंदगी क्या होगी? कोई किस्सा कहानी तो है नहीं। ये असली जिंदगी हैं और असली जिंदगी ऐसी ही होती है। थोड़ी अधूरी, थोड़ी टेढ़ी, थोड़ी खट्टी और बहुत थोड़ी सी मीठी।

बैचैनी, खालीपन, तलाश ये सब वो पहिए हैं, जिन पर ज़िंदगी कभी धीरे कभी तेज़ चलती है और हमें ज़िंदा रखती है। ये तलाश ही तो है जो हमें ज़िंदा रखती है। तलाश खत्म, तो हम खत्म।

मुझे नहीं पता ये फलसफा कितना सच और कितना गलत है, मगर अपनी-अपनी तलाश में हर दिन जूझती, हारती ज़िंदगियों को बड़ा सुकून देने वाला है और इसीलिए अक्सर मैं खुद को फ़रहान अख़्तर की फिल्म की दो लाईनों से समझा लिया करती हूँ –

‘दिल में बेचैनियाँ लेकर चल रहे हो तो ज़िंदा हो तुम!’

मूल चित्र : Canva 

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Sherry

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