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सज़ा दी क्यों जाती है? ताकि उस अपराध को करने वाले और उसे करने की सोचने वाले हर इंसान के मन में क़ानून का डर हो और वो फिर कभी ऐसी कोशिश ना करे।
अभी बस कुछ ही दिन बीते हैं जब दिल्ली के निर्भया गैंगरेप केस के गुनहगारों को फांसी की सज़ा सुनाई गई है। हर जगह इसकी चर्चा है और आपने सुना भी होगा। हम और आप ख़ुशी मना रहे हैं कि अपराधियों को उनके किए की सज़ा मिल गई। सज़ा दी क्यों जाती है? ताकि उस अपराध को करने वाले और उसे करने की सोचने वाले हर इंसान के मन में क़ानून का डर हो और वो फिर कभी ऐसी कोशिश ना करे।
लेकिन जब एक तरफ़ निर्भया के गुनहगारों को सज़ा मिल रही थी तो दूसरी तरफ़ गुजरात में एक बेटी मदद के लिए गुहार लगा रही थी। 19 साल की इस बेटी को पहले किडनैप किया गया और फिर उसका गैंगरेप करके उसकी हत्या कर दी गई। उसके साथ ऐसा करने वाले पापी यहीं नहीं रूके, उन्होंने उसका शव पेड़ से लटका दिया ताकि ये घटना आत्महत्या की लगे।
ये 19 वर्षीया पुत्री 31 दिसंबर से अपने घर से लापता थी। दो-तीन ढिन ढूंढने पर भी जब वो नहीं मिली तो उसके परिवार वाले पुलिस थाने में जाकर रिपोर्ट लिखवा तो आए लेकिन उनकी बेटी वापस नहीं आई। उनके मुताबिक पुलिसवालों ने भी केस ये कहकर दर्ज करने से इनकार कर दिया कि उनकी बेटी खुद अपनी मर्ज़ी से किसी लड़के के साथ भाग गई है।
सच क्या है ये तो पुलिस या परिवार ही जानता है लेकिन अगर इस बात में ज़रा सी भी सच्चाई है तो पुलिस वालों का भी कसूर है कि आखिर उन्होंने अपने मन से इस घटना को क्यों बुना? और ऐसा नहीं है कि पुलिस वालों पर पहली बार ऐसे आरोप लगे हैं। ऐसा कई बार सुनने में आता है कि पुलिस वाले शिकायतें नहीं लिखते या फिर पैसे ले-देकर मामले रफ़ा-दफ़ा करने की कोशिश करते हैं और पीड़ित परिवार को ही और सताते हैं। अपराध करने वाले अगर किसी रसूख रखने वाले परिवार से हों तो अक्सर पुलिस वाले पीड़ित परिवार की सुनते तक नहीं।
अपनी बेटी के मिलने की आख़िर उम्मीद तब तार-तार हो गई जब उसके परिवार को 5 जनवरी को उसका शव मिला। मैं यहां उन आरोपियों के नाम ज़रूर बताना चाहूंगी जिन्होंने इस निर्मम घटना को अंजाम दिया है क्योंकि अगर उन्होंने ऐसा किया है तो उनका नाम और चेहरा हर किसी को पता होना चाहिए। बिमल भारवाड़, दर्शन भारवड़, सतीश भारवड़ और जिगर, ये चारों काजल के गुनहगार हैं।
एक और दुःख की बात जो इस पूरे वाक्या में सामने आई है कि कुछ लोग, खासकर मंत्री और नेता इस घटना पर राजनीति ही कर रहे हैं। जी, ये बिटिया एक दलित थी और इसी बात को लेकर ये रो रहे हैं कि दलित समाज के साथ गलत होता है और हो रहा है। मैं तो ये समझ नहीं पा रही कि अगर वो दलित थी और नहीं भी होती तो इससे उसके साथ हुए अपराध की मात्रा कम या ज़्यादा तो नहीं हो जाती। ये बात करके वो क्या साबित करना चाहते हैं ? कुछ नहीं, बस ये दिखाना चाहते हैं कि वो दलितों के साथ हैं और उसी के नाम पर अपना वोट बैंक भरना चाहते हैं।
ये घटना बड़े-बड़े चैनल्स और अखबारों में फिलहाल भले ही छोटी सी बनकर रह गई हो लेकिन सोशल मीडिया की फौज हैशटैग के ज़रिये से नारे लगा रही है। हां, अच्छी बात ये है कि ख़बरवाले ख़बरें दिखाएं या ना दिखाएं काजल को न्याय दिलाने के लिए सोशल मीडिया पर लोगों का तांता लगा हुआ है।
मंत्रियों की छोड़ें, मैं अब ये सोच रही हूँ कि अगर ये घटना किसी दूसरे शहर जैसे कि दिल्ली, हैदराबाद में हुई होती और ये बच्ची किसी और जाति या वर्ग की होती तो क्या समाज की प्रतिक्रिया कुछ अलग होती?
पता नहीं फिर भी क्यों लग रहा है कि दलित, सवर्ण की इस लड़ाई में इस बेटी की कहानी कहीं दब ना जाए और अगर उसे इंसाफ मिल भी गया तो ऐसा फिर ना हो, इसकी गारंटी कोई नहीं ले सकता। इतने जघन्य अपराधों के बावजूद हमारे देश में रेप के मुकदमों में सज़ा पाने वाले सिर्फ 27.2% केस ही होते हैं। अब आप ख़ुद अंदाज़ा लगा लीजिए कि हालात क्या हैं?
मेरी प्यारी,
मैं तुमसे बस इतना कहना चाहूंगी कि भले ही तुम हमेशा के लिए चली गई हो लेकिन तुम्हारे पीछे से ये लोग तुम्हारे नाम पर खेलते रहेंगे। तुमने क्या सहा, तुम्हें कितनी पीड़ा हुई, तुमने कितनी हिम्मत दिखाई होगी ये कोई समझ नहीं सकेगा। तुम्हें इंसाफ दिलाने की कोशिशें ज़रूर होंगी लेकिन वो कितनी कामयाब होंगी मैं भी नहीं जानती।
अपना ख्याल रखना।
मूल चित्र : Canva
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