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मैं चाहूँ या ना चाहूँ अक्सर कुछ न कुछ छूट जाता है

औरतों से हर मुकाम पर खरा उतरने की उम्मीद सब रखते हैं, पर इन सब उम्मीदों का ख्याल रखते रखते क्या हम अपनी उम्मीदों का ख्याल रख पाते हैं?

औरतों से हर मुकाम पर खरा उतरने की उम्मीद सब रखते हैं, पर इन सब उम्मीदों का ख्याल रखते रखते क्या हम अपनी उम्मीदों का ख्याल रख पाते हैं?

मुझसे अक्सर कुछ न कुछ छूट जाता है
वक़्त और मुझमें
सुबह की रेस
चार खुराक खाने की रेल
9:18 की मेट्रो वरना
ट्रैफिक की झेल
सब मिल गया …
एक आह में मुस्कराती हूँ
बस
सुबह एक प्याला सुकून की चाय छूटी

दिन भर में दसियों रिपोर्ट
बीसियों मेल
और दर्जनों फ़ोन
और पांच बार मां की याद
छठी बार फोन उठाती हूँ
फिर स्कूल बस का
टाइम हो गया…
ज़िम्मेदारी में मायके की डोर छूटी…

कुछ सपने कुछ ख्वाहिशें
मंज़िल तक की मशक़्क़तें
कुछ टूटे रिश्तों की किरचें
चुभती सी भूली बातें
थोड़ी इनकी थोड़ी उनकी
कतरा-कतरा रूह को बांटती
मुठ्ठी में सब कुछ करने को
खुद-खुद से मैं भी छूटी

नाप तौल कर जीते-जीते
सांस एक-एक कर गिनते
घन्टा मिनट और पल समेटे
यूँ एक पूरा दिन बीते
समय की चादर को
ध्यान से रखने और
करीने से तहाने में
अक्सर कुछ न कुछ छूट जाता है
मैं चाहूँ न चाहूँ, भीतर मेरे कुछ टूट जाता है…

मूल चित्र : Canva

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Sarita Nirjhra

Founder KalaManthan "An Art Platform" An Equalist. Proud woman. Love to dwell upon the layers within one statement. Poetess || Writer || Entrepreneur read more...

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