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चटकती-बहकती मैं हूँ गुलदाउदी

तुम वही मौसम बन जाओ, कभी प्यार की धुँध में छन जाओ, कभी सुनहरी धूप बन जाओ।फिर देखना, मैं इक बार खिली तो, बस खिलती ही जाऊँगी।

तुम वही मौसम बन जाओ, कभी प्यार की धुँध में छन जाओ, कभी सुनहरी धूप बन जाओ।
फिर देखना, मैं इक बार खिली तो, बस खिलती ही जाऊँगी।

मैं गुलदाउदी!
जानती हूँ कि मैं गुलमेंहदी,
गुलमोहर और गुलबहार नहीं।
पता है कि मैं चमेली, चम्पा,
मालती और माधवी भी नहीं।
नहीं हूँ मैं कामलता, कामिनी,
रात की रानी और छुई-मुई भी नहीं।
ये भी मानती हूँ कि मैं,
गुलाबी गुलाब सी नवाबी तो, बिलकुल भी नहीं।

क्योंकि ये सब भी, मुझसे कहाँ हैं?
इनमें से कोई लता पर,
अपने रंग संग, लहकती हैं।
तो कोई पेड़ों पर,
अपनी महक संग, महकती हैं।
कुछ कोमल शाखाओं पर,
अपना सौंदर्य लिए, टहकती हैं।

इन सबको झट-से, फट-से खिलते देख,
तुम शिकायत करते हो कि,
मैं क्यों नहीं, इन जैसी खिलती?

शायद याद नहीं रहता तुमको!
मैं भी तो अपने मौसम में खिलती हूँ।
चटकती-बहकती, मैं भी तो
समय आने पर, तुमसे मिलती हूँ।

मगर शर्त यह कि,
तुम वही मौसम बन जाओ।
कभी प्यार की धुँध में छन जाओ।
कभी सुनहरी धूप बन जाओ।
फिर देखना! मैं इक बार खिली तो,
बस खिलती ही जाऊँगी।

सर्द-सर्द, दिन-रात में,
मैं बस आगे ही कदम बढ़ाऊँगी।
और महसूस करोगे तुम भी,
बाकी तो केवल बहार में,
पर मैं गुलदाउदी,
पतझड़ में भी साथ निभाऊँगी।

मूल चित्र: Chandrakant Sontakke via Unsplash

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