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"अक्सर जो दिखता है, वैसा होता नहीं। बिलकुल किसी मृग मरीचिका की तरह", मैं मन ही मन बुदबुदायी, "जो मिला है, जैसा मिला है, उसी में संतुष्ट होना सीखो!
“अक्सर जो दिखता है, वैसा होता नहीं। बिलकुल किसी मृग मरीचिका की तरह”, मैं मन ही मन बुदबुदायी, “जो मिला है, जैसा मिला है, उसी में संतुष्ट होना सीखो!”
कल शाम की पार्टी हम सहेलियों के बीच चर्चा का विषय बनी हुई थी। हर कोई श्रीमान एवं श्रीमती भल्ला की तारीफ़ों के पुल बाँध रहा था।
सोनिया हाथ नचाते हुए कह रही थी, “बाई गॉड, क्या सुन्दर जोड़ी बनाई है ईश्वर ने! श्रीमती भल्ला जितनी खूबसूरत हैं, श्रीमान भल्ला भी उतने ही हैंडसम! उन दोनों को देख कर लगता ही नहीं कि उनकी शादी के पच्चीस साल हो गये। कल कितने ख़ुश लग रहे थे दोनों। एक दूसरे से कितना प्यार करते हैं। भई, जोड़ी हो तो ऐसी!”
“सच कह रही हो। शादी की पच्चीसवीं सालगिरह कितनी धूमधाम से मनाई दोनों ने। क्या शानदार पार्टी दी…” वंदना ने भी सोनिया के सुर में सुर मिलाया।
“तू क्यों चुप बैठी है? तेरी तो पक्की सहेली हैं श्रीमती भल्ला?” राखी ने मुझे कोहनी मारते हुए पूछा।
“बस ऐसे ही। तुम सबकी बातें सुन रही हूँ”, मैंने हँस कर कहा, परन्तु मेरा दिमाग़ पुरानी यादों में ही उलझा हुआ था ।
श्रीमती भल्ला अर्थात् रीमा मेरी पड़ोसन तथा सबसे प्रिय सहेली थी। हम दोनों के फ़्लैट का दरवाज़ा आमने-सामने ही खुलता था। हम दोनों के पति जब ऑफ़िस चले जाते, तो हम दोनों दिन भर गप्पें मारते। साथ चाय पीते, मटर छीलते और कढ़ाई-बुनाई करते।
दिन भर का साथ होने के कारण मेरे और रीमा के बीच हर तरह की ढेरों बातें होतीं। श्री भल्ला अर्थात सोहन भल्ला और मेरे पति वीरेन के बीच भी अच्छी दोस्ती थी और हमारे बच्चे भी आपस में अच्छे दोस्त थे। आप कह सकते हैं कि ये दो परिवार, एक परिवार की तरह रहते थे।
तीन साल पहले रीमा अपने छोटे बेटे की कोचिंग कराने के लिये कोटा चली गई। जाते समय उसने मुझे उदास देख कर कहा, “अरे तू क्यों उदास हो रही है पायल, दो सालों की तो बात है। बच्चों के लिये तो माता-पिता को त्याग करना ही पड़ता है। एक बार बेटू का किसी अच्छी जगह सेलेक्शन हो जाए, बस। हाँ, यहाँ तेरे भैया अकेले रहेंगे। तू बीच-बीच में उन्हें कुछ अच्छा पका कर खिला दिया करना।”
रीमा के जाने के बाद सोहन भैया अक्सर ऑफ़िस से देर से आने लगे। मैंने और वीरेन ने सोचा, “वे बेचारे अकेले हैं, उनका घर में मन नहीं लगता होगा। इसीलिये वे ऑफ़िस से देर से आते हैं।”
कुछ महीनों बाद, एक दिन मैं बालकनी पर कपड़े सुखा रही थी तो मेरी नज़र रीमा के फ़्लैट के दरवाज़े पर पड़ी। दरवाज़े पर ताला न देख कर मेरा माथा ठनका, “क्या आज सोहन भैया ऑफ़िस नहीं गये?”
मैंने रीमा के फ़्लैट के दरवाज़े पर दस्तक दी। दरवाज़ा रीमा ने खोला तो मैं चौंक पड़ी, “अरे तू कब आई? मुझे बताया क्यों नहीं?” मैंने कई प्रश्न एक साथ पूछ डाले।
“कल रात ही आई हूँ”, रीमा ने फीकी सी मुस्कान के साथ संक्षिप्त सा उत्तर दिया।
उसके अस्त व्यस्त से कपड़े और सूजी हुई आँखें देख कर मैंने पूछा, “क्या हुआ? तबियत ठीक नहीं है क्या तेरी?”
“तू अभी जा पायल। मुझे तुझसे बात करने की इच्छा नहीं है”, रीमा ने रुखी सी आवाज़ में कहा, तो मैं वापस अपने घर चली आयी।
दो तीन दिनों बाद रविवार था। सवेरे सवेरे अचानक सोहन भैया हमारे घर आए और बोले, “जल्दी चलिए, रीमा ने अपनी आपको कमरे में बंद कर लिया है और दरवाज़ा नहीं खोल रही है, प्लीज़ उसे समझाइये।”
मैं और वीरेन जब रीमा के घर पहुँचे तो उसने बेडरूम बंद कर रखा था। अंदर से चीखने चिल्लाने और चीज़ें फेंकने की आवाज़ें आ रही थी। मैंने दरवाज़ा खटखटाया और कहा, “क्या हुआ कुछ बता तो सही। अपनी सहेली को भी अपने मन की बात नहीं बताएगी?”
रीमा अंदर से चिल्लाई, “तू मेरी सहेली नहीं है यदि तू मेरी सच्ची सहेली होती तो अपने भैया की सच्चाई मुझसे नहीं छुपाती।”
“कैसी सच्चाई? मैंने क्या छुपाया?” मैंने आश्चर्य से कहा।
“अच्छा तू दरवाज़ा खोल, फिर आराम से बातें करते हैं”, मैं रीमा से विनती करते हुए बोली।
रीमा बाहर निकली और उसने जो बताया उसे सुनकर मैं और वीरेन दंग रह गये।
“तुम्हारे भैया का ऑफ़िस में अफेयर चल रहा है। वे अपनी सहकर्मी के साथ रंगरेलियां मना रहे हैं। क्या ये बात तुम दोनों को पता नहीं थी? तुमने मुझे क्यों नहीं बताया? ऐसा कैसे हो सकता है कि पड़ोस में रह कर भी तुम्हें इस बारे में कुछ पता नहीं?” रीमा क्रोध से काँप रही थी और सोहन भैया सिर झुकाए खड़े थे।
“ये सब क्या है सोहन? भाभी क्या कह रही हैं?” वीरेन ने आश्चर्य से पूछा।
“मैं बहक गया था। मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई। मुझे माफ़ कर दो रीमा”, सोहन भैया रीमा के समक्ष गिड़गिड़ाते हुए बोले।
रीमा ने कोई उत्तर नहीं दिया और वहाँ से उठकर चली गई। मैंने उससे बात करने की चेष्टा भी की परंतु वह कुछ नहीं बोली।
अगले दिन फिर रीमा के दरवाज़े पर मुझे ताला लटका दिखा। वह शायद कोटा वापस चली गई थी। कुछ समय बाद वीरेन ने मुझे बताया कि रीमा ने सोहन भैया के ऑफ़िस में बात करके उस सहकर्मी का स्थानांतरण कहीं और करा दिया है।
कुछ ही दिनों पहले रीमा कोटा से वापिस आ गई है। वे और सोहन भैया किसी सामान्य पति-पत्नी की तरह रह रहे हैं। कल पार्टी में मैं कुछ जल्दी ही पहुँच गई थी। मौक़ा देखकर मैंने रीमा से कहा, “अच्छा हुआ तूने सोहन भैया को माफ़ कर दिया और फिर से नॉर्मल लाइफ़ जी रही है।”
“तू किसी ग़लतफ़हमी में मत रह पायल। मैंने किसी को माफ़ नहीं किया। सोहन को केवल अपने बच्चों के पिता के रूप में स्वीकार किया है। वो भी इसलिये कि मेरी बेटी के विवाह में कोई अड़चन न आये। इस समाज को तो तू जानती ही है, मैं और सोहन भले ही सबकी नज़रों में एक सफल पति-पत्नी हैं, परन्तु असलियत में हम दोनों एक ही छत के नीचे रह रहे दो अजनबी हैं। ऐसा नहीं है कि सोहन को अपने किये का पछतावा नहीं। वे सदा ही मुझसे माफ़ी माँगते हैं, पर मैं उनसे यही कहती हूँ कि यदि यह ग़लती मैंने की होती तो क्या वे मुझे माफ़ कर पाते? औरत होने के बावजूद मेरा दिल इतना बड़ा नहीं कि मैं अपने आत्मसम्मान पर लगी चोट भूल जाऊँ।” रीमा का चमकता चेहरा उसके गर्व और आत्मसम्मान की गवाही दे रहा था।
पार्टी आरम्भ हो चुकी थी और रीमा और सोहन भैया हँस कर साथ साथ फ़ोटो खिंचवा रहे थे। मैं सोच रही थी, “इन दोनों को कितना अच्छा अभिनय करने की आदत पड़ चुकी है।”
“ओ मैडम! कहाँ खो गईं? सुन भी रही है? हम यही कह रहे थे कि काश, हमारे पति भी श्रीमान भल्ला जैसे होते”, राखी ने मुझे झिंझोड़ते हुए कहा।
“अक्सर जो दिखता है, वैसा होता नहीं। बिलकुल किसी मृग मरीचिका की तरह”, मैं मन ही मन बुदबुदायी और “जो मिला है…जैसा मिला है….उसी में संतुष्ट होना सीखो सखियों”, कह कर हँस पड़ी।
मूल चित्र : Canva
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