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कितनी रातें दर्द से भरी, कितने दिन वेदना से घिरे, सब नोच गए वो वहशी सरफिरे। क्या उसकी मुस्कुराहट ही थी उसका पाप? या उसका यूं स्वछंद घूमना ना आया उनको रास?
थी वो अकेली और मर्द थे चार? चीखी पुकारी न जाने वो कितनी बार,
ना जाना दर्द उसका किसी ने, बस बातें ही बना सके, उसकी तड़प, उसकी घुटन वो ना पहचान सके।
कपड़ों के साथ नोच ली जान उन गिद्धों ने, पर घुटन और अपमान क्यों आए सिर्फ उसी के हिस्से में?
कितनी रातें दर्द से भरी, कितने दिन वेदना से घिरे, सब नोच गए वो वहशी सरफिरे। क्या उसकी मुस्कुराहट ही थी उसका पाप?
या उसका यूं स्वछंद घूमना ना आया उनको रास?
पर अब जब सूली से लटकेंगे भेड़िए वो चार, शायद अब, हां अब….
देह विहीन उसकी आत्मा सुकून से लौट सकेगी अपने घर!
मूल चित्र : Canva
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