कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं?  जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!

‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भावना को बस बातों तक ही सीमित ना रखें

मुझे लगता है कि 'वसुधैव कुटुंबकम्', परस्पर भाइचारे और धार्मिक सद्भाव की बातें शायद हम केवल दिखावे के लिए ही किया करते हैं!

मुझे लगता है कि ‘वसुधैव कुटुंबकम्’, परस्पर भाइचारे और धार्मिक सद्भाव की बातें शायद हम केवल दिखावे के लिए ही किया करते हैं!

हम समग्रता में ही सदैव जीवन्त हैं। हमने सभी को उनके अस्तित्व में ही अपनाया है। यह हमारी ना तो कमज़ोरी है न ही कोई विवशता। यही हमारी आध्यात्मिकता है।

सोशल मीडिया पर पिछले कुछ वर्षों से एक अजीब सा माहौल देखने को मिल रहा है विशेषकर जब ईद, क्रिसमस या नववर्ष आता है. अचानक एक ऐसा वर्ग सामने आता है जो इन दो-तीन त्यौहारों पर अपनी राय सोशल मीडिया के जरिए ज़बरदस्ती थोपते हुए हमें इन आयोजनों से दूर रहने के लिए प्रेरित करता हैं और असहमत होने पर वाद-विवाद करना शुरू कर देते हैं!

ऐसे कुंठित मानसिकता रखने वाले लोग व्हाट्सऐप, ट्वीटर और फेसबुक पर अचानक ऐक्टिव होकर धार्मिक जागरुकता का राग अलापते हुए पोस्ट्स वायरल करने लगते हैं और तब चाहे-अनचाहे इनके मित्रों को भी इनकी हां में हां मिलानी पड़ती है.

मुझे लगता है कि ‘वसुधैव कुटुंबकम्’, परस्पर भाइचारे और धार्मिक सद्भाव की बातें शायद हम केवल दिखावे के लिए ही किया करते हैं!

यदि हम किसी त्यौहार, आयोजन या उत्सव का हिस्सा नहीं बनना चाहते तो यह हमारा व्यक्तिगत निर्णय होना चाहिए तथा किसी अन्य को ज़बरदस्ती इसमें शामिल होने से रोकने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए!

मैं एक हिंदु हूं। मुझे आज भी याद है कि मेरे जीवन का पहला गीत एक क्रिसमस कैरल ही था। हर बरस क्रिसमस पर यीसू की झांकी सजाना, सैंटा का इंतज़ार करना, 1 जनवरी को घर में हवन रखना, 31 दिसंबर की रात पैसे इकट्टा कर टाफियां, समोसे, पेस्ट्रीज लाकर मुहल्ले के बच्चों के साथ पार्टी करते हुए जीवन जीया है!

ईद पर आज भी अपने मुस्लिम दोस्तों के यहां की बिरयानी और शीर कभी नहीं छोड़ी! दीवाली पर ज़ेबा और जोसेफ को घर बुलाकर लड्डू और कचौड़ियां खूब खिलाती हूं!

यदि किसी को इन उत्सवों की खुशियां साझा करने के तरीकों से ऐतराज है तो होता रहे!

तमाम उदाहरण देकर जिस सांस्कृतिक विरासत की वो बात करते हैं यदि उस विरासत को पीढ़ी दर पीढ़ी खंगाला जाए तो फिर तो आदिम युग में जाकर ही ठहरना चाहिए जहां एक ही पिता की संतानें होने का सबूत मिल जाएगा!

सच तो यह है कि दुखों और कठिनाइयों से जूझते मानव के जीवन में ये त्यौहार की खुशियों के चंद पल लेकर आते हैं! और मुझे नहीं लगता कि उल्लास और खुशियां साझा करने में कोई बुराई है!

वैसे मुझे, हिंदुस्तान किसके पिता का है यह तो मालूम नहीं लेकिन पूरी मानव जाति का पिता एक ही था यह अवश्य ही कंफर्मड है!

मूल चित्र : Canva

विमेन्सवेब एक खुला मंच है, जो विविध विचारों को प्रकाशित करता है। इस लेख में प्रकट किये गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं जो ज़रुरी नहीं की इस मंच की सोच को प्रतिबिम्बित करते हो।यदि आपके संपूरक या भिन्न विचार हों  तो आप भी विमेन्स वेब के लिए लिख सकते हैं।

About the Author

98 Posts | 300,929 Views
All Categories