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क्या औरतों सिर्फ़ दूसरों की ज़रूरतें पूरी करने के लिए बनी हैं?

पुरूष केवल एक भूमिका निभाते हुए, कर्मठ, मज़बूत साबित होता है और महिलायें न जाने कितनी भूमिकाओं में लिप्त हैं और फिर भी अबला और कमज़ोर कहलाती हैं। 

पुरूष केवल एक भूमिका निभाते हुए, कर्मठ, मज़बूत साबित होता है और महिलायें न जाने कितनी भूमिकाओं में लिप्त हैं और फिर भी अबला और कमज़ोर कहलाती हैं।

आजकल हमारा देश या यूँ कहें पूरा विश्व ही, कहीं न कहीं पितृसता से प्रभावित नज़र आता है। ऐसा क्यों है? हम अच्छे से जानते हैं कि पुरुषों के बाहर जाकर काम करने के कार्य पर उसकी ताकत का अंदाजा लगाया जाता है। पुरुष का एक ही रूप है, मुख्यतः वो है कार्य करने के लिए निर्धारित की गई छवि।

समाज सोचता है पुरुष बलशाली है और महिलाओं से मज़बूत है, मगर क्या आप जानते हैं पुरुष की तुलना में महिलाओं के कार्य और कार्यक्षमता कहीं अधिक है। कई बार पुरुष, भाई, पिता, पति के रूप में खुद को सुचारू रूप से साबित नहीं कर पाते, क्योंकि कई पुरुषों को आज भी खुद को भावनात्मक रूप से व्यक्त करना नहीं आता।

वैसे, यह एक हास्यस्पद तथ्य है कि पुरूष केवल एक भूमिका निभाते हुए, कर्मठ, मज़बूत साबित होता है, और महिलायें न जाने कितनी भूमिकाओं में लिप्त हैं, कितनी जिम्मेदारियों से जूझती हैं और फिर भी अबला और कमज़ोर कहलाती हैं, जो अन्यायपूर्ण है। महिलाओं की दिनचर्या को कभी किसी भी स्तिथि में कम नहीं आंकना चाहिए। आज मैं अपने लेख से महिलाओं की भूमिका को संक्षेप में उभारना चाहूंगा।

महिला गृहणी के रूप में

महिला अगर शादीशुदा है तो उसका कार्य और उसके परिणाम ही उसकी गुणवत्ता को निर्धारित करेंगे। उसके खाने बनाने की गुणवत्ता, कपड़े धोने की गुणवत्ता, घर की साफ सफाई की गुणवत्ता। कितना घिनौना और धूर्त कार्य है किसी को उसके कार्य से जाँचना, मतलब उसके खुद के होने का कोई अस्तित्व नहीं। यह भी पितृसत्ता का एक घनौना चेहरा है।

आज के समाज में केवल पुरूष ही नहीं, महिलाएं भी महिलाओं के शोषण के लिए जिम्मेदार हैं। वैसे तो घर-परिवार में एक बहु, एक सास और नन्द भी महिलाओं का ही रूप हैं, मगर इन शब्दों से आज भी ज़्यादातर नकरात्मकता ही देखने को मिलती है। जबकि यह पात्र भी महिलाओं के हैं। वैसे भी ज़्यादातर परिवारों में पुरुष तो खुल कर बात नहीं करते और हर बात करने का ज़िम्मा औरतों पर डाल कर खुद ही उन्हें बदनाम करने में जुट जाते हैं। ये सभी पितृसत्ता के कारण होता है।

हर कोई खुद को ज़्यादा ताकतवर दिखने की होड़ में दूसरे को नीचे दिखने लगता है। लेकिन इन सब के बीच, ले दे कर, महिलाओं को एक शिकार के रूप में देखा जाता है। उसको प्यार करना तो दूर, लोग तरह तरह के पैंतरे आज़माते हैं कि कैसे महिला को नीचा दिखा सकें। महिला ने अगर शादी कर ली है तो इसका मतलब यह नहीं के उनका प्यार पाने का हक़ खत्म हो गया! वह अभी भी किसी के बहन है और बेटी भी।

महिला माँ के रूप में

विज्ञान हो या मनोविज्ञान या दर्शनशास्त्र, माँ को पहली शिक्षिका के रूप में दर्शाया जाता है, और उनसे उम्मीद रखी जाती है के बच्चों की हर ज़िम्मेदारी वे ही निभाएं। उसके जन्म से लेकर उसके वयस्क होने तक हर पहलू की ज़िम्मेदारी माँ को ही सौंप दी जाती है। हाँ, उसको भी नकरात्मकता का पक्षधर ही माना जाता रहा है।

बच्चे ने कोई अच्छी उपाधि या परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त किए, तो समाज बोलता है घर में पढ़ाई का अच्छा माहौल होगा, माता-पिता की मेहनत है, आदि। यह जो शब्द है माता-पिता का एक साथ, इसको क्यों न हम केवल माँ का हाथ और उसकी मेहनत मानें?

सोचिये ज़रा, आज भी ज़्यादतर परिवारों में माँ, चाहे गृहणी चाहे अपने पति के सामान ही कमाने वाली, बच्चों के हर काम को देखती है, फिर वो चाहे उनकी पढ़ाई हो। मगर नहीं, यह समाज पितृसत्ता और पुरुषवाद के ज़हर का घोल पी चुका है, जो वास्तविकता में कई सदियों तक उस रूढ़िवादी प्रथा को मानता रहेगा। यहाँ भी औरतों की कमी निकाल कर देखा जाता है और आकलन किया जाता रहा है कि बच्चों के भविष्य खराब होने नें माँ ही ज़िम्मेदार रही।

महिला कॉरपोरेट की दुनिया में

आज के समाज में महिलाओं को अपने हक़ के लिए लड़ना तो आ गया है और सामना करने में भी पीछे नहीं हैं। पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने का अधिकार उनको भी है। महिलायें आज कल उधमिता हैं और कई नामी कंपनी की मालिक भी, मगर क्या हमने कभी सोचा है कि महिलाओं ने जो स्थान समाज में और कॉरपोरेट की दुनिया में बनाया है, वह उतना ही आसान रहा होगा जितना कि पुरुषों के लिए? नहीं! बिल्कुल भी नहीं और महिलाओं की सफलता में ज़्यादातर सबसे बड़ी अड़चन पुरुष ही होता है, चाहे वह उसके पति के रूप में हो या बॉस के रूप में।

इस सम्बंध में महिलाओं को ना जाने कितनी ही प्रकार की प्रताड़ना झेलनी पड़ती है, हम बहुत आसानी से कह देते हैं, औरत है और बाहर जाकर जॉब करती है, घर और बच्चों को नहीं देखती होगी, बस अपने बारे में सोचती है। क्यों? वह बाहर जॉब के लिए निकल रही है उसमें क्या बुराई है? इस हिसाब से आपके पिता, भाई या कोई अन्य पुरुष को भी उसी नज़र से आँका जाना चाहिए। इस क्षेत्र में भी महिलाओं को गन्दी राजनीति और कूटनीति झेलनी पड़ती है, उनको यहाँ भी प्यार की नज़रों से नहीं, कई बार वासना के नज़रिए से देखा जाता है। यहाँ भी वे कितनी मर्तबा शोषण का शिकार होती हैं।

महिला प्रेमिका के रूप में

प्रेमिका के रूप में महिलाओं को तो कोरी और सरासर झूठी प्रथाओं का शिकार होना पड़ता है। ईश्वर ने महिलाओं को प्रेम के लिए बनाया है और भावुकता की एक निश्छल छवि हम महिलाओं को ही कह सकते हैं। महिलाओं की छवि को बिगाड़ कर पेश करना हमारी पुरानी आदत है। अगर शादी से पहले लड़की का प्रेमसम्बन्ध किसी के भी साथ होता है, तो उसको समाज में तरह-तरह के नाम से पुकाराता है।

वहीं दूसरे पहलू को देखा जाए तो कई पुरुष अपने जीवन काल में तीन, चार लड़कियों को अपने साथ रखते हैं और उनका शोषण करते हैं, चाहे वह शोषण शारीरिक हो या मानसिक, उनको उनके दोस्तों में बहुत उत्तम माना जाता है, औए साधारण भाषा में बोल जाता है, “यार वाह! तू तो बहुत क़ाबिल निकला, तेरे अंदर ऐसा क्या था? इत्यादि।” मगर यहाँ, पुरुषवाद का अत्यंत भयंकर रूप ही देखने को मिलता है लेकिन औरत अगर सच्चा प्यार भी करे तो चरित्रहीन?

नारीवादी या मानवतावादी

मैं पुरूष हूँ, मगर एक मैं खुद को एक नारीवादी पुरूष मानता हूँ। नारीवादी होना मतलब मैं मानवतावादी भी हूँ। क्यूंकि मैं मानवता में यकीन रखता हूँ और समानता में। मैं हर किसी को एक साथ देखना चाहता हूँ, चाहे वह किसी भी धर्म या लिंग के हों।

हमारे समाज में आजकल महिलाओं की जो दशा है, वह अत्यंत दयनीय और असंवैधानिक है। और पुरुषवाद की इस सोच की भरपाई हमारी कई पुश्तें भी नहीं कर पाएंगी। ऐसी सोच निरर्थक है, जिसका कोई आधार नहीं। समय है कि अब महिलाओं को समझने की कोशिश करें। उनकी आवश्यकताओं को जानाने की कोशिश करें।

हमारे देश को विकसित करने का समय आ गया है, हम कई सदियों से भारत को एक विकासशील देश की श्रेणी में ही सुनते आ रहे हैं, अब समय है सबको साथ लेकर चलने का, जिसमे सबसे मुख्य हैं महिलाएं। जिनकी ताकत को हमने अब तक नज़रअंदाज़ ही किया है, अब तक रूबरू नहीं हुए।

मूल चित्र : Canva

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