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भेज ना इतनी दूर मुझको तू, घर लौट के भी आ ना पाऊँ माँ

अभी विदाई का दर्द झेला है और मोड़ में मुड़ते ही खुशी की आगोश में गले तक डूबे देवर, ननंद, सास और ससुराल वालों के सामने मुस्कुराने की विवशता।

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अभी विदाई का दर्द झेला है और मोड़ में मुड़ते ही खुशी की आगोश में गले तक डूबे देवर, ननंद, सास और ससुराल वालों के सामने मुस्कुराने की विवशता।

“क्या सोच रही है दिव्या? जल्दी कर, केवल साड़ी की दुकान में ही इतना देर लगा देगी, तो हम आगे की खरीदारी कब करेंगे? शाम होने को आ गई है और तेरी अभी तक 2-3 साड़ी भी फाइनल नहीं हुई।”

क्या पहनाते हैं वे लोग तुझे

“हां तो चलो घर। मुझे नहीं लेनी कोई साड़ी-वाड़ी, क्या करेंगे इतने साड़ियां लेकर? मैं पहनती हूं क्या साड़ियां?”

“क्या पता बेटा?क्या पहनाते हैं वे लोग तुझे! वैसे तो हमने सब कुछ उनको स्पष्ट कह दिया है, फिर भी देखते हैं।”

दिव्या फिर  रूँआसी हो जाती है!

“अच्छा अच्छा! ठीक है! बाबा, मत पहनना! लेकिन, हमको तो दिखाना ही पड़ेगा ना! इसलिए जो पसंद है, वह ले लो।”

“और आगे तुझे जो भी ड्रेस पहनी है, वह भी खरीद ले। मेरी लाडो का जो मन है, वही पहनेगी। अब ठीक?”

सारा घर फूलों से, सज चुका है। मेहमान घर में आ चुके हैं। पकवानों की महक से कोना कोना महक गया है।

अनजाने घर में अनजाने लोगों के बीच में कैसे रह पाउंगी

दिव्या अपने कमरे में सुबक रही है, “आज कितने आराम से बैठी हुई हूं मैं यहां पर। दो दिन बाद अनजाने घर में अनजाने लोगों के बीच में कैसे रह पाउंगी? अभी तो मां-बाबा को जब चाहे तो देख लेती हूं। तब तो देख  तक नहीं पाऊंगी।”

“पता नहीं वहां से कब वापस आ पाऊंगी और कितने दिन के लिए…. यह भी तय नहीं कर सकती मैं।”

उसकी ज़ोर ज़ोर से रुलाई फूटने लगी वह बाथरूम में चली गई। मेहमान बहुत ज्यादा आ चुके थे। उसके कमरे में भी कई लोग बैठ गए थे।

तभी माँ मेहंदी की रसम के लिए ऊपर बुलाने आई। उन्होंने देखा दिव्या कि उसकी आंख सूजी हुई थी। चिल्लाते हुए कहा, “क्यों लड़की सारी फोटो बिगाड़ेगी अपने, बिना कारण? कितना सुंदर चेहरा बर्बाद कर लेगी! चल नीचे मेहंदी की रसम को शुरू करना है।”

दिव्या  मां का हाथ पकड़ा कमर से लिपट कर बहुत रोई। मां ने बहुत सब्र  रखा, लेकिन वह भी टूट गई और अपनी बच्ची का सिर पकड़ बेबस हो, कलेजे से चिपका कर रोने लगी।

हाय रे रिवाज़!

सुजाता (दिव्या की मां)को एसा लग रहा था कि अपनी ही बच्ची को कैसे भेज दे खुद से इतना दूर? कितना मजबूर हो जाते हैं हम कि जिसके बिना कभी एक पल नहीं रहते, उसी बेटी को हमेशा हमेशा के लिए खुद से, सजा-धजा के, मिठाई, उपहार के साथ, विदा कर देते हैं।

उस पर कोई गारंटी नहीं कि बेटी वहां, खुश रहेगी भी या नहीं। हाय रे रिवाज़! अपनी बच्ची का चेहरा सीने में रख सहलाने लगी।

इतना दुखदायी था यह मंजर कि वहा पर हर व्यक्ति की आँखे  नम हो गयी । कोई हिम्मत नहीं कर पा रहा था कि कैसे चुप कराए दोनो को। दिव्या की सिसकियाँ बंद ही, नहीं हो रही थीं।

बदलते वक्त के साथ हम क्यों नहीं बदल रहे?

रिश्तेदारो ने पानी पिलाया और मना के नीचे मेहंदी की रस्म के लिये ले गये। दिव्या की सोच तर्क संगत थी, उसे ये नहीं समझ आ रहा था कि बदलते वक्त के साथ हम क्यों नहीं बदल रहे? वही घिसी पिटी मान्यता रूढ़िवादिता मानवता को कुचल देने वाले रिवाज अभी तक क्यों ओढ़े हुए हैं।  नई शुरुआत क्यो नहीं करने को कोई भी तैयार नहीं। वह सुलझे ,स्वतंत्र विचारो वाली लड़की थी।उसे अपने माँ-बाबा पर भी बहुत गुस्सा आ रहा था।

पूरे समय पिताजी, एवं घर के प्रत्येक सदस्य का हाथ जोड़ जोड़ कर लड़के वाले के परिवार से बात कर रहे थे, लड़के के घरवाले बिना कारण मीन मेख निकाल रहे थे।

जैसे कोई अहसान कर रहा है उससे शादी कर के

वो अचंभित होकर देखतीं रही। ये सब उसने इसके पहले भी दूसरों के यहाँ देखा था पर, जिस शिद्दत से अपने पिताजी के लिए महसूस कर पा रही थी, आज तक नहीं किया।

उसे एसा लग रहा था जैसे कोई अहसान कर रहा है उससे शादी कर के और मेरे परिवार वालों ने कोई एसा जुर्म किया है कि उनको गिड़गिड़ाना पड़ रहा है।

अपना शिक्षित होना, योग्य होना बेमानी लग रहा था

आज उसको अपना शिक्षित  होना, योग्य होना बेमानी लग रहा था ,यही सब तो उसमें किसी छोटे से गांव की इस साधना से पढ़ी लिखी लड़की के साथ भी होते देखा था ।

ऐसे ही लड़की के परिवार वाले हाथ जोड़े चारों तरफ घूम रहे थे, ऐसे ही लड़कों के परिवार वाले सीना चौड़ा करके दुत्कारते, लड़की वालों को त्रस्त करने का मौका ढूंढते घूम रहे थे।

लड़कों वालों ने उसके पिता को अपने पास बुलाया और नशे में चूर होकर खाने मे कमी गिनाने लगे। अजीब अजीब सी मांग को पूरा करते दिव्या के पापा पैसों को पानी के समान बहा रहे थे। लड़के वाले किसी बात को लेकर  रूठ न जाए इसलिए जरूरत से ज्यादा धीमी और मीठे शब्दों का प्रयोग कर रहे थे। उसे अपने पिताजी ऐसे स्वरूप को देखकर बहुत ही लज्जा आ रही थी कि ऐसा क्या जुल्म कर दिया एक लड़की के पिता ने जो उससे इतना भी हक नहीं है कि वह अपनी बेटी का  विवाह पूरी मान प्रतिष्ठा के साथ सर ऊंचा करके कर सके।

वह मजबूर हो गई

बहुत कुछ कहना चाह रही थी दिव्या, मां भी यह बात समझ चुकी थी मगर उसने उसे दोनों हाथ जोड़कर चुप रहने को कहा और वह मजबूर हो गई और इस सब कुछ अपनी आंखों के सामने होते  देखती रही । शायद हर एक लड़की को एसे ही प्रथा,-परम्परा, रिवाज के नाम पर चुप करा दिया जाता होगा कौन सी ऐसी लड़की होगी जो अपने माता-पिता को इस हद तक के गिरते देख पाती होगी।

शादी का कार्यक्रम चल ही रहा था कि कन्यादान का समय हुआ और वकायदा अपनी ही बेटी को जिसे जन्म दिया, दुलार दिया, तिल तिल कर के बड़ा किया, फूल के सामान रखा उसे ही वस्तु के तुल्य दान करने को तत्पर थे उसके मांता-पिता। वो निस्सहाय, मजबूर सचमुच एक गाय के भांती दूसरे खूँटे से बंधने को मजबूर थी।

मां उसको तरह तरह से सीख दे रही थी

दिव्या की विदाई का समय हो चला था मां उसको तरह तरह से सीख दे रही थी, “ऊंची आवाज में बात मत करना, उल्टा जवाब मत देना, सब बड़ों की सेवा करना, सब लोग के खाने के बाद खाना, अपने सास-ससुर की बुराई कभी भी किसी से मत करना। बेटा हम लोगों की परवरिश का मान रखना, अब तुझे अपने मायके के साथ साथ ससुराल का भी मान रखना होगा।”

दिव्या दुःख में डूबी समझ ही नहीं पा रही थी कि जीवन को यह पड़ा इतना तकलीफ दायक होता है जहां एक तरफ उसे अपने नए जीवन अपने उज्जवल भविष्य और सुनहरे सपनों के बारे में सोचना चाहिए, उसे मां क्या-क्या सीख दे रही है देख रही थी कि उसके माता-पिता उसके पति के माता पिता से हाथ जोड़कर कह रहे थे, “जो कोई भी गलती हो इसे अपने बच्चे समझ कर माफ कर दीजिएगा बहुत प्यारी है हमारी बच्ची कोई भी गलती करें तो प्यार से समझा दीजिएगा हमारे दिल का टुकड़ा है ये अब हम आपको सौंप रहे हैं।”

इस मदारी खेल को शादी का नाम देते हैं?

दिव्या को लग रहा था कि उसका कलेजा फटा जा रहा है, वह निढाल कार में, जबरन बैठा दी जाती है। सारे रास्ते इसी ख्याल में गुजार देती हैं की इस मदारी खेल को शादी का नाम देते हैं?

जहा लड़की के पिता की जेब को कतर के, अपमानित कर के, उसकी बेटी को ले जाया जाये और फिर भी पिता उसके ना किए गई गल्तियों तक की माफी मांग रहे हैं। उसका सिर दर्द से फटा जा रहा था।

लड़की को एक ही समय में दोहरा जीवन जीना होता है

लड़की को एक ही समय में दोहरा जीवन जीना होता है, अभी विदाई का दर्द, झेली  हैं और मोड़ में मुड़ते ही खुशी की आगोश में गले तक डूबे देवर, ननंद, सास और ससुराल वालों के सामने मुस्कुराने की विवशता। तो  क्या माँ बाबा के साथ साथ वहाँ का दर्द भी भुलाना होगा?

लड़की अभी भी वस्तु की तरह परखी जाती है

ससुराल में पहुँचकर तो इंसान होने का बचा खुचा भरम भी जाता रहा। सच में वस्तु की तरह परखी जाती है ।  मुहँ दिखाई में उसको वो सब भी पता चल जाता है जो आईने ने भी नहीं बताया हो – नाक थोड़ी तिरछी है, छोटी है या आँखे छोटी हैं, या ज्यादा बड़ी हैं, लड़के को और भी अच्छी लड़की मिल जाती। और भी जाने…क्या ,क्या?

हर किसी के पैर छुओ। शादी तो दूल्हा दुल्हन की हुई है तो कुछ-एक को छोड़, दूल्हा पैर पड़ने को बाध्य नहीं होता।

पग फेरे का इन्तज़ार

एसे ही कई रिवाजों से घिरी, छटपटाती दिव्या पग फेरे का इन्तज़ार कर रही थी कि दूर के रिश्तेदारों के यहां गृह प्रवेश मे जाने की तैयारी होने लगी।

घर से माँ बाबा का फोन आया मगर सभी ने इंकार कर दिया, दिव्या के दुःख का पार नहीं रहा। दिव्या ने खुद फोन लगाने की सोची। माँ ने भरसक कोशिश की दुःख छुपाने की पर सब्र का बाँध टूट पड़ा। रोने लगी, “अगले महीने तो आएगी। तू दिव्या मत रो….”

“कितने दिन के लिए आ पाऊंगी? आपको मेरा फ़ेवरेट सॉंंग याद है?”

“उसकी लाईन याद आ रही है, ‘भेज ना इतनी दूर मुझको तू,घर लौट के भी आ ना पाऊ माँ!'”

शादी करके हमसफर मिले, मलिक या स्वामी नहीं

कुछ देर की चुप्पी के बाद दिव्या ने कहा, “एक वादा करोगी? छोटी (छोटी बहन) की शादी इन पुरानी  रीति रिवाजों के हिसाब से नहीं करना। उसको शादी करके हमसफर मिलेगा, उसका मलिक या स्वामी नहीं।”

लोग जब तक अपनी ही बेटी को बोझ समझते रहेंगे, पराई अमानत बोलते रहेंगे, तब तक कई  दिव्या, एसे ही खूँटे से बांधी जाएंगी। अपने ही घर जाने के लिए गिड़गिड़ाती रहेंगीं।

बेटी अपने ही माता पिता से मिलने को तरस जाये

दोस्तों, कितनी विडम्बना है कि बेटी अपने ही माता पिता से मिलने को तरस जाये। क्या ये हमारे समाज, संस्कृति की स्वस्थ व्यवस्था है? अगर नहीं तो क्यों न ऐसी सड़ी गली प्रथा को समूल नष्ट कर दिया जाए? जन्न्मदाता को वह हक दिला सकें कि जब बेटी की याद आये तो बेटी को अपने पास बुला सकें।

कृपया अपने कीमती अनुभव बांटे, उपाय सुझायें।

मूल चित्र : YouTube

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