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अपने ही घर में पहचान ढूंढती, प्यार के दो शब्द को तरसती, पल भर गले लगा कर सारी थकान भूलने वाली मशीन उर्फ 'औरत' पूछती है तुमसे, कहाँ हूँ मैं?
अपने ही घर में पहचान ढूंढती, प्यार के दो शब्द को तरसती, पल भर गले लगा कर सारी थकान भूलने वाली मशीन उर्फ ‘औरत’ पूछती है तुमसे, कहाँ हूँ मैं?
ताल मेल के इस तराज़ू में मेरा पलड़ा भारी देखती हूँ तो लगता है, साथ निभाने के उन वचनों में कहां हूँ मैं?
लोगों के साथ तुम्हें हंसता देख मेरे वक़्त की शिकायत करते पूछती हूँ तुमसे, मेरे वक़्त में कहां हूँ मैं?
बैठे होते हो तुम, टकटकी लगाए पैर पसारे, तकिये के उस छोटी जगह से पूछती, कहां हूँ मैं?
खिलखिलाता मुस्कराता हमारा अंश और तुम्हारी उंगली, तुम्हारे आगोश की राह देखती, कहां हूँ मैं?
घरवालों से तुम्हारी इतनी बातों में से, उस खिलखिलाहट में, कहां हूँ मैं?
सूरज की किरणों से पहले बिस्तर समेट उठ जाती स्वाद की थाली में प्यार परोस जाती भरे पेट जब यूँ ही मुझे भूल जाते तुम उस निवाले में ढूंढ़ती, कहां हूँ मैं?
घर अपना पीछे छोड़ तुम्हारा नीड़ सजाती राह तकती, प्यार खोजती लापता, इस पते पर कहां हूँ मैं?
सपने अपने पोटली में समेट पंख तुम्हारे खोलती ख़्वाहिशों को चुपके से दरकिनारे ज़िद तुम्हारी मानती वो तुम्हारे सपनों में, कहां हूँ मैं?
बच्चा मेरा मन, मुझसे शिकायत करता कभी उछाल लूँ ज़िम्मेदारी का बस्ता मैं भी छपाक कर पानी से निकल जाऊं बेतरतीबी से वो तुम्हारी ठिठोलियों में, कहाँ हूँ मैं?
तुम्हारे रिश्तों को जिए जाती तुम्हारे मान का बोझ उठाये जाती यूँ बंधी सी अनदेखी जंज़ीर से बस पल में ज़िन्दगी बिताये जाती तुम्हारे पलों में, कहां हूं मैं?
पूछती हर दम खुद से झंझोड़ती अपना ज़मीर ये बेख्याली और ये सवाल क्या मैं हूँ तुम्हारी कामयाबियों में? क्या मैं हूँ तुम्हारे संसार में? क्या मैं हूं तुम्हारे जज़्बात में? क्या मैं हूँ तुम्हारे ख्यालात में?
दिन रात बरबस एक उम्मीद में जिये जाती हूँ कि शायद कहीं तो हूं मैं!
-अपने ही घर में पहचान ढूंढती, प्यार के दो शब्द को तरसती, पल भर गले लगा कर सारी थकान भूलने वाली मशीन उर्फ ‘औरत’
मूल चित्र : Canva
Now a days ..Vihaan's Mum...Wanderer at heart,extremely unstable in thoughts,readholic; which has cure only in blogs and books...my pen have words about parenting,women empowerment and wellness..love to delve read more...
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