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चुप हैं हम क्यूंकि हमें क्या करना किसी और के दुःख या संघर्ष से!

हमारा इंटरेस्ट तो फिल्मी हस्तियों पर ज़्यादा है, उनकी बातें हमें इफ़ेक्ट करती हैं। नेताओं और ढोंगी बाबाओं की बातें प्रभावित करती हैं। मृत समाज है हमारा। 

हमारा इंटरेस्ट तो फिल्मी हस्तियों पर ज़्यादा है, उनकी बातें हमें इफ़ेक्ट करती हैं। नेताओं और ढोंगी बाबाओं की बातें प्रभावित करती हैं। मृत समाज है हमारा।

सच में यह कितना विडंबात्मक है कि सात साल पहले जिस निर्भया को इंसाफ दिलाने के लिए देश का हर एक नारी और पुरुष उसका बहन/भाई, मां/बाप, सहेली/दोस्त बन उसे इंसाफ दिलाने की मांग कर सड़क पर आ गया था। आज सात साल बाद उसी निर्भया की मां हर उस भाई/बहन, मां/बाप, दोस्त/सहेली से उम्मीद कर इंसाफ की गुहार लगा रही है।

हम शोर मचाते हैं और भूल जाते हैं

इन सात सालों में एक या दो नहीं अनगिनत निर्भया सामने आईं, कुछ जीवित तो कुछ …..! नवजात से अधेड़ से बुजुर्ग होती हर कहानी पर एक दाग लगते देखा हमने। हम बस बोल देते हैं और चुप हो जाते हैं। अपने जोश और होश का रुतबा दिखाने का कोई अवसर नहीं छोड़ना चाहते हम। मौके का फायदा उठाना तो हमारी आदत है।

बस फ़िल्मी हस्तियाँ भाति हैं हमें

हमारा इंटरेस्ट तो फिल्मी हस्तियों पर ज्यादा है। उनकी बातें हमें इफ़ेक्ट करती हैं। नेताओं और ढोंगी बाबा या गुरुओं की बातें प्रभावित करती हैं। इतना कि लड़ पड़ते हैं अपने ही आत्मीय रिश्तों से। हमें क्या करना अपने जैसे एक आम परिवार के दुःख या संघर्ष से!

चुप हो जाना हमारी आदत सी बन गई है

कितने शांत हैं ना हम! यहां संघर्ष की बात हो रही है। यहां न्याय की बात हो रही है। अगर हिन्दू मुस्लिम की बात होती तो हम ज़रूर बोलते। राम मंदिर या बाबरी मस्जिद की बात होगी, तो हम अपनी राय ज़रूर रखेंगे। ये दो-दिन बोलना और चुप हो जाना हमारी आदत सी बन गई है। झूठ के दम पर जीने लगे हैं हम सब।

जानते हैं हम कब बोलते हैं? जब हम पर बीतती है। तब हम संवेदना की उम्मीद करते हैं। और तब, जब लोग हमारे गर्म तवे पर अपनी रोटी सकते हैं ना, तब हम बोलते हैं। मृत समाज है हमारा।

पूछिए सवाल, करिये न्याय की मांग

मौजूदा सरकारों(राज्य स्तर या राष्ट्रीय स्तर ) में कितनी और कोई भी सशक्त महिला क्यूं ना हो, उनका होना तब तक मायने नहीं रखता जब तक वो अपनी सरकारों से नारी हक और हित में सवाल नहीं करती। विपक्ष को चुप करा देना ही काफी नहीं है। पूछिए सवाल करिये न्याय की मांग। कीजिए संसद और विधान सभाओं के बाहर मौजूद हर नारी का प्रतिनिधित्व। बोल्ड और स्ट्रॉन्ग का लेबल मात्र ना बनिए, निष्पक्ष होकर कीजिए बात। तब माने हम, है कुछ आपमें खास।

निर्भया की मां आपके विश्वास पर आतीं थी बाहर। आपने दी थी उम्मीद। वरना कितनी ही निर्भया कांड हुए और उनके परिवार शर्म की ओढ़नी ओढ़ गुमनाम हो गए। प्रियंका रेड्डी केस में पुलिस एनकाउंटर पर जैसे तालियां बजाई थी आपने। यहां क्यूं चुप हैं…दुबारा मौका नहीं चाहिए? मुझे याद है जब दिल्ली की निचली अदालत ने निर्भया के मुजरिमों को फांसी की सजा सुनाई थी तो हमने न्यायपालिका में अपने विश्वास को मजबूत करते हुए खूब पीठ थपथपाई थी। नेताओं ने भी कोई मौका नहीं छोड़ा था।

अब हमें हो क्या गया है

22 जनवरी कब आ कर चली भी गई। कोई फांसी नहीं हुई। अभी कहेंगे, वरना कहीं हम पीछे ना रह जाएं। बात के पूरा होने से पहले जश्न मना लेना हम भारतीयों की आदत बन गई है। पहले कोई भी जब मेरे देश या उसके लोगों के बारे में बुरा भला बोलता था तो मैं लड़ पड़ती थी कि जो है जैसा है यह मेरा देश है। एक आदर्श परिवार की सदस्य होने का फ़र्ज़ निभाती रही थी कि मेरे घर में कुछ भी हो… हम एक परिवार हैं… यह परिवार लड़े…प्यार करे.. गरीबी या गंदगी में रहे, इस परिवार से बाहर या अलग हो चुका कोई भी इसके खिलाफ नहीं बोल सकता।

लेकिन खेद है मुझको कि अब मुझे गर्व नहीं होता अपने देश और अपनी भारतीयता पर। जिस देश में 70 साल बाद भी उसकी एक बेटी को इंसाफ के लिए सात साल इंतजार करना पड़े। जहां नारी का सम्मान ना हो। जहां सरकारों का मुद्ददा धरम हो, नागरिक सुरक्षा या सामाजिक सौहार्द नहीं।

बलात्कार हर धर्म की बेटी का होता है

ये तो तय है कि बलात्कार हिन्दू या मुसलमान की बेटी नहीं सिर्फ बेटी के साथ हो रहे हैं। गुरुद्वारों और गिरिजाघरों में भी हो रहे हैं। धरम के नाम पर हो रहे हैं। समाज के नाम पर हो रहे हैं। प्रेम के नाम पर हो रहे हैं। विश्वास के नाम पर हो रहे हैं। मेरे लिए हर वो सरकार, हर वो राजनेता बेकार है जो नारी सम्मान और सुरक्षा को अपनी प्राथमिकता नहीं मानता। हां, एक विडम्बना यह भी है कि इन नेताओं और इन सरकारों को हम ही चुनते हैं। तो घूम फिर के बात वहीं आ जाती है जहां से शुरू हुई थी। आवाज़ हमें ही बुलंद करनी होगी। लड़नी होगी न्याय की लड़ाई और साथ देना होगा उनका जो पहले से उतरे हुए हैं इस मैदान में।

‘हम साथ-साथ हैं’ का समय है ये

मैं या आप तब तक एक सशक्त महिला नहीं बन सकते जब तक हम अपने लिए और अपने नारीत्व के लिए आवाज़ बुलंद नहीं करते। खुल कर अपने हक की मांग नहीं करते। सवाल नहीं करते और जवाब को सहजता से मानने कि बजाए करनी के तथ्य को नहीं देखते। एक आवाज़ एक नार बनना होगा हमें। तू-तू, मैं-मैं से बाहर निकाल ‘हम साथ-साथ हैं’ तक का सफर तय करना होगा। अभी मंज़िल दूर है, लेकिन साथ चल कर हम उसे नज़दीक़ जरूर ला सकते हैं।

जल्द खत्म हो निर्भया की मां का संघर्ष और निर्भया की आत्मा को सही मायनों में शांति मिले। अभी नहीं तो कभी नहीं। आज वो, तो शायद कल आप या मैं। सोचिएगा।

मूल चित्र : Pexels

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