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मेरी मनौती के कच्चे धागे…

मुझे देखते ही काकी चिल्लाई, "ए देख! लाली मेरे मनौती के धागे कितने पक्के निकले। मेरा केसु सात समंदर पार से आया है, मेरी बहू को लेके!

मुझे देखते ही काकी चिल्लाई, “ए देख! लाली मेरे मनौती के धागे कितने पक्के निकले। मेरा केसु सात समंदर पार से आया है, मेरी बहू को लेके!

बाजू वाली काकी सुबह से, बहुत सारे व्यंजन बना रही थीं। जिसकी सोंधी सोंधी खुशबू मेरे नथुनो में घुसकर स्वाद ग्रंथियों को उकसा रही थी, और उत्सुकता भी चरम पर थी। आखिरकार पहुंच ही गई, देखा तो आँखे अचरज से फट गई सामने सत्रह सालों से अमरीका मे रह रहा केशव अपनी लुगाई के साथ खटिया पर बैठा था।

मुझे देखते ही काकी चिल्लाई, “ए देख! लाली मेरे मनौती के धागे कितने पक्के निकले। मेरा केसु सात समंदर पार से आया है, मेरी बहू को लेके! ये गुड़ की चासनी में, नून-मिर्चा डाल कर केसु की खातिर बेर पकाए हैं। दोना में भर के, दे दे बिटिया।”

“और हम तीनों अभी, मनौती के धागे खोलकर आते हैं। उन्हीं की किरपा से केसु लौटा है। आकर खाना खिलाऊँगी अपने हाँथ से…चल बिटवा।”

केशव ने कहा, “माँ! खेत और मकान का कागज दे दे। धागा खोलकर, हम वहीं से निकल जाएंगे।रात की प्लेन है। कच्चे रास्ते में कार तेज़ भी नहीं चलती।”

काकी ने पेटी से चुपचाप, कागज़ निकाल केसु को देकर कहा, “केसु धागों का क्या है? कच्चे से हैं…. मैं ही तोड़ लूंगी। तू ये जमीन के कागज रख …पक्के बनवा दिये हैं मैंने।”

“खाना खायेगा बिटवा…हवाई जहाज छूटेगी तो नहीं?”

काकी का पैर छूते हुए केशव बोला, “मां! हवाई जहाज में खाना भी मिलता है। अब हम चलते हैं।”

कार काकी के मुंह में धुआं और धूल छोड़ती हुई, सरपट हवा से बातें कर रही थी। थोड़ी देर में मैंने देखा काकी अपनी गाय को सहला कर सारे व्यंजन खिला रही थी।

मूल चित्र : Pexels

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