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वर्तमान के दौर में माता-पिता से ये अनुरोध है कि अपने बच्चों को चाहे बेटा हो या बेटी घर या बाहर की सभी अच्छी-बुरी बातों से वाकिफ ज़रूर कराएं।
मोहिनी साधारण सी लड़की, जो यह भी नहीं जानती कि बाहरी दुनिया में लड़कियों के प्रति सोच कैसी है? वह तो सिर्फ यही चाहती थी कि पिताजी के बताए मार्ग पर चलते हुए अपना अध्ययन समाप्त कर अपने पैरों पर खड़ी हो सके, बड़ी बेटी जो थी।
उसका एक ही सपना था कि पिताजी के शासकीय नौकरी से सेवानिवृत्ति से पूर्व स्वयं का मकान बने। बस इसीलिए वह दिन-रात एक कर अपनी उच्च स्तर की पढ़ाई पूर्ण करने में लगी थी। उसकी छोटी बहन संजना 12वी कक्षा में पढ़ रही थी और माँ घर की देखभाल करती।
पिताजी ने दोनों ही बेटियों का पालन-पोषण बहुत प्यार दुलार से किया, बेटा नहीं होने का अफसोस कभी नहीं किया। सरल-सहज स्वभाव के माता-पिता बस नौकरी, घर के काम-काज, खाने-पीने की चीज़ें बनाना एवं अतिथियों का स्वागत करना, इन्हीं सब उधेड़बुन में इनकी ज़िंदगी सिमटी थी।
उन्हें बाहरी दुनिया के दांव-पेंचों का बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं था, जो वे अपनी बेटियों को दे पाते। इसी बाहरी ज्ञान से वंचित होने पर भी मोहिनी अपनी राह चल पड़ी थी, एक की कमाई में कॉलेज की पढ़ाई के लिए नवीन पुस्तकें खरीदना संभव नहीं होने के कारण वह हमेशा सेकेण्ड हेंड पुस्तकों की तलाश में रहती और सफलता भी मिलती। पुराने साथी इस कार्य में सदा सहायता करते हैं, पर उसे यह नहीं पता था कि पुस्तकों की सहायता भी कोई अपने मतलब के लिए कर सकता है भला ?
अपनी ही कॉलोनी में रहने वाले दिलीप भैया, जिन्होंने नई कोचिंग शुरू की थी, वे उसके साथ इस तरह का मतलबी व्यवहार करेंगे। उन्होंने मोहिनी को बी.कॉम. की पुरानी उपयोगी पुस्तकें तो दिलवाई परंतु उसके बदले शर्त रख दी कि रोज़ाना सुबह उनकी कोचिंग में कॉमर्स के विषयों को विद्यार्थियों को अध्ययन करवाए। अब मोहिनी विकट परिस्थिति में सोच रही कि मैं सुबह 7.00 बजे बी.कॉम. की अपनी क्लास अटेंड करने जाऊं या कोचिंग? इस असमंजस की स्थिति से सामना करने के लिए दूसरों का सहारा किस लिए लेना और माता-पिता इन सब परिस्थितियों से अनभिज्ञ। करे तो करे क्या? उसने पहले कभी सपने में भी ऐसा नहीं सोचा कि इतने मतलबी लोग भी हो सकते हैं दुनिया में।
मोहिनी ने कभी ज़िंदगी में सोचा न था कि शिक्षा के पवित्र क्षेत्र में भी व्यापार ही चलता है। अब रोज़ाना दिलीप भैया कॉलेज आते-जाते उसे जबर्दस्ती करते हुए परेशान करने लगे कि उसे उनकी कोचिंग में आना ही होगा। ये सब संजना ने देख लिया और मोहिनी की मदद करने का फैसला लिया।
घर में इंदौर से चाचाजी ऑफिस के काम से आए हुए थे, उन्होंने जैसे ही संजना से ये सब सुना तुरंत मोहिनी को पास बुलाकर समझाया, “बेटी यह लड़ाई बाहरी मैदान में तुम्हें हमेशा ही लड़नी होगी, स्वयं की हिम्मत के साथ। अभी भी मैं बीच में नहीं बोलूँगा, तुम अध्ययन के साथ कल को नौकरी के मैदान में उतरोगी, बस से आना-जाना करोगी और जब बाहरी क्षेत्र में जाओगी बेटी तो तुम्हें उस हिसाब से दबंग होना ही पड़ेगा !”
चाचा जी का समझाना हुआ ही था कि मोहिनी ने दिलीप भैया को दिया करारा जवाब, “मेरे फैसले लेने के लिए मैं स्वतंत्र हूँ, आप ऐसे जबरदस्ती नहीं कर सकते और आपने इस तरह से ज़बरदस्ती दोबारा करने की कोशिश भी की न, तो फिर मेरे लिए भी कानून के द्वार खुले हैं।”
उस दिन की इस घटना से मानो मोहिनी में एक अलग सी स्फूर्ति आ गई और वह अब बाहरी दुनिया का सामना करने से जरा भी न हिचकिचाती।
फिर शनै:-शनै: यह समय भी बीतता गया, और मोहिनी ने एम.कॉम. की परीक्षा भी सफलता पूर्वक उत्तीर्ण कर ली थी। अब वह बैंक, भारतीय जीवन बीमा निगम इत्यादि स्थानों पर योग्य पद हेतु परीक्षा दे रही थी ताकि उसको योग्यतानुसार नौकरी हासिल हो सके, जिसके लिये वह प्रयासरत थी।
इसी बीच चाचाजी ने एक प्राईवेट कंपनी में रिक्त पद की जानकारी मोहिनी को दी ताकि उसे कार्यालय में कार्य करने का अनुभव हो सके और नए आइडियाज़ भी मिल सके।
मोहिनी ने धीरे-धीरे ही सही पर बाहरी दुनिया का सामना करना सीख लिया था। शुरू में तो कंपनी में सब ठीक-ठाक ही माहौल था और लेखाकर्म विषय होने के कारण आयकर एवं विक्रयकर संबंधी समस्त कार्यों को सीखने में दिलचस्पी भी ले रही थी। एक दिन मोहिनी फाईलिंग का कार्य कर ही रही थी और अन्य लोग आवश्यक कार्य से दूसरे कार्यालय में गए थे, ऐसे में अचानक एक अधिकारी ने मोहिनी के साथ कुछ गलत हरकत करने की कोशिश की, पर उसने इस स्थिति का सामना बहुत ही हिम्मत के साथ किया।
उनसे कहा, “महोदय आप तो मेरे अंकल की उम्र के हैं, फिर तो मैं आपकी बेटी हुई, आपकी बेटी भी तो मेरी ही उम्र की होगी। मैं तो यहाँ काम सीखने आई थी अंकल!”
इतना बोलना हुआ मोहिनी का, वे अधिकारी सकपका गए, उन्हें उनकी गलती का एहसास हुआ। वे बोले, “कंपनी में आज तक इतने लोग आए और गए पर तुमने आज मेरी आँखें खोल दी बेटी। आज तुमने सही मार्ग दिखाया है मुझे, और समाज में तुम जैसी लड़कियों की ही जरूरत है।”
मोहिनी के इस हिम्मत से परिपूर्ण व्यवहार का सफल परिणाम यह हुआ कि अगले माह उसी कंपनी में रिक्त पदों पर नियुक्ति हेतु मोहिनी परीक्षा हेतु शामिल हुई और लेखा अधिकारी के पद पर चयन भी हो गया! अब मन ही मन सोच रही कि उस दिन कॉलोनी में चाचाजी ने सही राह नहीं दिखाई होती तो वह अपनी मंज़िल पर पहुँचती कैसे?
इसलिए वर्तमान के दौर में माता-पिता के लिए यह महत्वपूर्ण सीख है कि अपने बच्चों को चाहे बेटा हो या बेटी घर या बाहर की सभी अच्छी-बुरी बातों से वाकिफ ज़रूर कराएं। अपने अनुभव भी साझा करें और बाहरी दांव-पेंच भी सिखाए ताकि कल को बच्चे यदि बाहर भी जाएं तो वे किसी भी परिस्थिति का सामना स्वयं के बल पर ही करने में सफल हो सकें ।
जी हाँ, साथियों जीवन में कभी-कभी अपनी मंज़िल पर पहुँचने के लिए ऐसे ही सही राह दिखाने वालों की ज़रूरत होती है। इसलिये इस विषय के सम्बन्ध में मेरी सलाह वर्तमान युग के समस्त माता-पिताओं के लिए यही रहेगी कि न केवल वे अपने बेटे-बेटियों से मंज़िल पर पहुँचने की सिर्फ उम्मीद ही करें बल्कि उनके पथ-प्रदर्शक बनें और सदैव सही राह दिखाएं।
मूल चित्र : Canva
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