कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं?  जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!

समलैंगिता! भारत में काग़ज़ों तक ही सीमित है, सोच में नहीं…

हमको कई प्रकार के मौलिक अधिकार प्राप्त हैं, इनमें से एक है समानता का अधिकार, मुझे इस समानता का अर्थ तो बखूबी पता है, मगर मैं इसको कहाँ ढूँढूँ?

Tags:

हमको कई प्रकार के मौलिक अधिकार प्राप्त हैं, इनमें से एक है समानता का अधिकार, मुझे इस समानता का अर्थ तो बखूबी पता है, मगर मैं इसको कहाँ ढूँढूँ?

बातें ज़्यादा

हमारे देश का संविधान हम जो बचपन से यही सीखाता आ रहा है के हमको कई प्रकार के मौलिक अधिकार प्राप्त हैं, इनमें से एक है समानता का अधिकार। बस, मुझे इस समानता का अर्थ तो बखूबी पता है, मगर मैं वास्तव में इसको कहाँ ढूंढू?

भेदभाव ही भेदभाव

महिलाओं से होने वाले भेदभाव में या धार्मिक आधार पर होने वाले भेदभाव में? या किसी के लिंग के आधार पर? मेरा इशारा यहाँ LGBTQ समुदाय से सम्बंध रखने वाले लोगों से है। क्या वे देश के नागरिक नहीं? या वे व्यक्ति नहीं, जिनके साथ जानवरों से भी बदतर व्यवहार किया जाता है। समाज इनको कईं नामों से पुकारता है, जैसे, किसी का पाप है ये, अमानवीय तरीके से पैदा हुआ होगा, इत्यादि। अगर हम देश के संविधान का मनुष्य की दशा में आकलन करेंगे तो पाएंगे के या तो उसका हाथ टूटा हुआ होगा और या उसकी दशा ऐसी होगी जिसको देख कर हमारा मन सिहर उठेगा।

समलैंगिता कोई बीमारी नहीं

अक्सर देखा जाता है, समलैंगिक लोगों को विशेष तौर पर समलैंगिक पुरुष को लोग ‘हिजड़ा या छक्का’ कह कर सम्बोधित करते हैं। जबकि यह दोनों शब्द भी अपनी गरिमा रखते हैं और सकरात्मक भी हैं, परंतु इन शब्दों को हमारे समाज में जिस तरह पेश किया जाता रहा है, उससे यही मालूम पड़ता है कि ये एक भद्दी गाली है। समलैंगिता कोई बीमारी नहीं है, ना ही भगवान का अभिशाप, बस व्यक्ति की भावना बदल जाती है, उसके आकर्षण की दिशा बदल जाती है, जो बिल्कुल भी असमान्य नहीं है। समाज कई पीढ़ियों से इस समुदाय को दलित, आदिवासी या और अन्य जातियों से भी अधिक अछूत मानता आ रहा है।

भयावह गवाहियाँ

बंगलौर में एक नागरिक स्वतंत्रता समूह की 2003 की एक रिपोर्ट में एक हिजड़ा यौनकर्मी की भयावह गवाही मिलती है, जिसका पहले पुरुषों के समूह द्वारा सामूहिक बलात्कार किया गया था और फिर पुलिस द्वारा सामूहिक बलात्कार किया गया था। 2006 में, लखनऊ पुलिस ने एक एचआईवी / एड्स आउटरीच संगठन के कार्यालयों पर इस आधार पर छापा मारा कि यह एक धारा 377 अपराध के कमीशन को खत्म कर रहा था।

2007 में दिल्ली उच्च न्यायालय को उपलब्ध कराई गई गवाही में लिखा गया था कि किस तरह दिल्ली में पुलिस द्वारा एक समलैंगिक व्यक्ति का अपहरण और कई दिनों तक पुलिस अधिकारियों द्वारा किया गया बलात्कार और उसे एक ‘कबूलनामा’ पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया था जिसमें कहा गया था कि “मैं एक अपमानजनक शब्द हूं, जिसका अर्थ है गुदा मैथुन करवाने वाला!”

हरियाणा में 2011 में, दो महिलाओं को उनके एक भतीजे द्वारा ‘अनैतिक’ रिश्ते में होने के लिए पीटा गया था।यह एलजीबीटी लोगों द्वारा दैनिक आधार पर किए गए उत्पीड़न, ब्लैकमेल और ऑस्ट्रेसिस्म का उल्लेख करने के लिए सम्पूर्ण नहीं है। भारत में एलजीबीटी आंदोलन की तरह, यह मामला हर रोज़, हिंसा के संरचनात्मक और स्थानिक रूपों को संबोधित करने की आवश्यकता से पैदा हुआ था।

समानता का अधिकार – कुछ आरक्षण बनाने की ज़रूरत

संदर्भ से बाहर, गोपनीयता, गरिमा और समानता जैसे आज के फैसले में इस्तेमाल किए गए शब्द, अप्रचलित लग सकते हैं। वास्तव में, वे इसके मूल में निहित हैं कि हमारे समुदायों के जीवित रहने के लिए इसका क्या अर्थ है।

सितंबर 2018 में, भारत के एलजीबीटी लोगों ने देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सर्वसम्मति से समलैंगिक सेक्स पर एक औपनिवेशिक युग के प्रतिबंध के बाद समानता का अधिकार हासिल किया। एलजीबीटी अधिकारों के लिए यह एक महत्वपूर्ण क्षण था, जिसने न केवल ब्रिटिश उत्पीड़न के अवशेष को उलट दिया बल्कि यह भी आदेश दिया कि एलजीबीटी भारतीयों को उनके संविधान के सभी अधिकार प्रदान किए जाएं। यह एक स्वागत योग्य जीत थी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि भारत में LGBT लोग अपने साथी नागरिकों के बीच पूरी तरह से स्वतंत्र या समान हैं। यह इस बात को रेखांकित करता है कि दुनिया के बाकी हिस्सों में पुरातन और दमनकारी प्रभाव को खत्म करने के लिए कितना काम किया जाना बाकी है।

चाहे दुनिया भर में समलैंगिक घटनाओं और समलैंगिक संबंध और इसके वैधीकरण के बारे में बात होती हो लेकिन फिर भी उनके बारे में कुछ आरक्षण बनाने की ज़रूरत है।

भारतीय समाज बड़े पैमाने पर, समलैंगिकता को अस्वीकार करता आ रहा है। बेशक हमारे देश में इसे कानूनी मान्यता मिल गई हो मगर क्या इसका प्रभाव हमारे समाज के रूढ़िवादी लोगों तक पहुँच पाया है? मेरे व्यक्तिगत विचार में तो ‘नहीं’, क्योकिं हमारे देश में इसके लिए कानून पारित किया गया है मगर लोगों की सोच को बदलने की गारंटी नहीं।

मूल चित्र : Canva

विमेन्सवेब एक खुला मंच है, जो विविध विचारों को प्रकाशित करता है। इस लेख में प्रकट किये गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं जो ज़रुरी नहीं की इस मंच की सोच को प्रतिबिम्बित करते हो।यदि आपके संपूरक या भिन्न विचार हों  तो आप भी विमेन्स वेब के लिए लिख सकते हैं।

About the Author

96 Posts | 1,404,526 Views
All Categories