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वैलेंटाइन डे पर ख़ुद को ज़रूर तोहफ़ा दें और याद दिलाएं कि 'मैं औरत हूं, जो ज़िंदगी देती है, फिर मुझे क्यों जीने के लिए किसी की इजाज़त लेनी है।'
वैलेंटाइन डे पर ख़ुद को ज़रूर तोहफ़ा दें और याद दिलाएं कि ‘मैं औरत हूं, जो ज़िंदगी देती है, फिर मुझे क्यों जीने के लिए किसी की इजाज़त लेनी है।’
वैलेंटाइन डे जल्द ही आपके दिल के दरवाज़े पर दस्तक देने वाला है और हम भी इस दिन आपके साथ प्यार पर कुछ विचार साझा करना चाहते हैं। प्यार आज़ाद होता है इसलिए कभी भी इसे बांधा नहीं जा सकता। बस लड़का-लड़की का प्यार ही प्यार नहीं होता। आपका परिवार, दोस्त, रिश्तेदार और स्वयं से प्यार करना भी प्यार होता है।
प्यार की ऐसी की कुछ अलग-अलग परिभाषाओं को पूरा करती हुई कुछ फिल्मों की बात करते हैं। ये वो कुछ फिल्में हैं जिनमें एक औरत के लिए प्यार के क्या मायने हैं, पता चलता है।
अगर आपने ये फिल्म नहीं देखी तो ज़रूर देखिए। कंगना रनौत की ये फिल्म आपको हंसाएगी, रुलाएगी, गुदगुदाएगी और ज़िंदगी जीने के नए मायने सिखाएगी। इस फिल्म के बाद कंगना पूरे बॉलीवुड के लिए क्वीन बन गई थीं क्योंकि जिस तरह से उन्होंने अपना किरदार जिया वो अपना असर छोड़ गया।
ये कहानी एक सीधी-साधी सी लड़की रानी की है जिसके सपने हर आम लड़की की तरह हैं। अच्छा घर, अच्छा पति और ख़ुशहाल परिवार। उसके बचपन का प्यार विजय जो कई सालों बाद लंडन से लौटा है, उससे शादी के सपने संजो रही रानी तब टूट जाती है जब विजय उसे कहता है कि उसे इस रिश्ते में कम्पैटिबिलटी नहीं लगती और वो शादी से इनकार कर देता है। असल में विजय को अब अपना स्टेटस ज्यादा लगने लगता है। रानी रोती है, अफ़सोस मनाती है लेकिन ज़िंदादिल है इसलिए अकेले ही अपने हनीमून पर जाने का फ़ैसला करती है, बिना शादी के। उसके घरवाले भी सोचते हैं कि ऐसे हालात में उसे मना करना ठीक नहीं और रानी चली जाती है पेरिस। घबराई हुई रानी को इस सफ़र में ऐसे कई दोस्त मिलते हैं जो उसका साथ देते हैं। बाहरी दुनिया के सफ़र पर निकली रानी अपने अंदर का सफ़र भी करती है और पेरिस से लौटकर वो बहुत आत्मविश्वासी बन जाती है। रानी का बदला रूप देखकर विजय फिर उससे शादी की बात करता है लेकिन रानी समझ चुकी है कि उसे ज़िंदगी से क्या चाहिए।
ये फिल्म बहुत आशावादी है और आपके अंदर की सोई हुई महिला को जगा देगी। आपको ख़ुद से प्यार करना सिखला देगी। अपनी ज़िंदगी को बेहतर करने के लिए किसी का इंतज़ार ना करें क्योंकि आपको ख़ुद से बेहतर कोई नहीं समझ सकता।
ये फिल्म 7 औरतों की कहानी है जो एक-दूसरे की अच्छी सहेलियां है। वो आपस में किसी ना किसी वजह से जुड़ी हुई हैं। विचारों में आज़ाद, मन से स्वच्छंद ये लड़कियां दुनिया को अपने मन के आइने से देखती हैं। अगर कभी किसी की ज़िंदगी में कोई परेशानी हो तो मिलकर सुलझाती है। अगर किसी बात पर सहमत ना हों तो झगड़ती भी है और खुलकर एक-दूसरे से अपनी सैक्सुएलिटी पर भी बात करती हैं।
सारा जेन डायस, संध्या मृदुल, अनुष्का मनचंदा, पवलीन गुजराल, अमृत मघेरा, राजश्री देशपांडे, तनिष्ठा चटर्जी ने इन सात सहेलियों का किरदार बखूबी निभाया है। कोई स्ट्रगलिंग सिंगर है, कोई मॉडल, कोई हाउस वाइफ है तो कोई सिंगल मदर। सभी की अपनी परेशानियां है और सभी की अपनी सोच। गोवा में ये सब एक साथ है अपनी दोस्त फ्रीडा की शादी के लिए लेकिन फिल्म में काफी वक्त तक ये राज़ रखा गया है कि शादी किससे होने वाला है जो आपको आख़िर में पता चलेगा। इंटरवेल में कुछ ऐसी घटना घट जाती है जो पूरी फिल्म को नया एंगल देती है। ये फिल्म काफी बोल्ड है और हमारे रूढ़िवादी समाज के हिसाब से औरत की परिभाषा के बिल्कुल उलट है। वो स्मोक करती हैं, ड्रिंक करती हैं, छोटे कपड़े भी पहनती हैं और गाली भी देती हैं। फिल्म ज्यादातर अंग्रेज़ी में है लेकिन बड़ी आसानी से आपको समझ आ जाएगी। आप मॉर्डन ख्यालों की हो या ना हो लेकिन ये फिल्म देखने से आपको कहीं ना कहीं जुड़ाव ज़रूर महसूस होगा।
फिल्म की सबसे अलहदा बात ये है कि ज्यादातर सीन्स में इन अभिनेत्रियों ने मेकअप नहीं लगाया है। चेहरे के दाग-धब्बे, पिंपल्स, डार्क सर्कल्स के साथ भी ये सभी अपनी सिक्न्स के साथ बेहद कंर्फटेबल नज़र आईं। ये बहुत बड़ी बात सिखाता है क्योंकि जहां आजकल महिलाओं के बीच खूबसूरत दिखने की रेस लगी हुई है ऐसे में अपनी असलियत के साथ जीना और रियल रहना आपके आत्मविश्वास को बढ़ाएगा।
आलिया और शाहरूख ख़ान की ये फिल्म देखते-देखते आप कहीं खो जाएंगे। ये फिल्म इन दोनों की कोई लव स्टोरी नहीं है बल्कि कियारा (आलिया) जो प्रोफेशन से एक कैमरा वूमेन है उसकी कहानी है। कियारा बहुत महत्वाकांक्षी लड़की है जो अपने करियर में बहुत कुछ पाना चाहती है लेकिन एक लड़की होने के कारण कई बार उसे वो मौके नहीं मिल पाते। दूसरी तरफ़ वो अपनी लव लाइफ़ में भी काफ़ी कन्फ्यूज़ हैं और माँ-बाबा से उसकी ज्यादा बनती नहीं है। ऐसे में कियारा एक साइकैट्रिस्ट जहांगीर (शाहरूख ख़ान) से अपनी ज़िंदगी शेयर करती है। कैसे जहांगीर की मदद से कियारा अपनी ज़िंदगी के अनसुलझे सवालों को सुलझाती है और कैसे सकारात्मक हो जाती है, इसी कहानी को बहुत ही ख़ूबसूरती से इस फिल्म के ज़रिए बुना गया है। जैसे कोई स्वेटर बुनता है बस वैसे ही धीरे-धीरे ये कहानी पूरी हो जाती है और फिर देखकर लगता ‘कितनी अच्छी थी’।
जैसा नाम वैसी सीख। ये फिल्म आपको इंडिपेंडेंट रहना और पॉज़िटिव रहने के जादुई नुस्खे सिखाएगी। करियर ओरिएंटेड महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा कई ज्यादा परेशानियां झेलनी पड़ती हैं। ऐसे में वो कैसे किसी के साथ के बिना ख़ुद को बेहतर कर सकती हैं, आप सीखेंगे। ये फिल्म देखने के बाद सबसे पहले मेरा मन तो सोलो ट्रिप का हुआ था। ख़ूबसूरत समंदर और उसके किनारे साइकलिंग करती कियारा, वाह। हो सकता है आपका मन भी हो जाए।
ये फिल्म गांवों में रहने वाली महिलाओं के जीवन की कुछ अनकही कहानियों पर आधारित हैं। फिल्म के शानदार किरदारों रानी (तनिष्ठा चटर्जी), लाजो (राधिका आप्टे) और बिजली (सुरवीन चावला) के माध्यम से बाल विवाह, वेश्यावृत्ति, विधवा, घरेलू हिंसा, वैवाहिक बलात्कार जैसे तमाम मुद्दों को उजागर किया गया है।
लाजो का पति उसे शराब पीकर मारता है और वो हथकरघे का काम करके जो भी कमाती है वो सब उड़ा देता है। कई सालों से बच्चा ना होने की वजह से लाजो ख़ुद को बांझ समझने लगी हैं। रानी अकेली मां है और उसका पति कई सालों पहले गुज़र चुका है। अपने बिगड़ैल बेटे की जैसे-तैसे वो शादी कराती है लेकिन पति बनने के बाद उसका बेटा अपनी बीवी को तंग करता है।
बिजली इन दोनों की सहेली है जो आइटम डांसर है और गांव की एक डांस कंपनी में नाचती है और पैसों के लिए वेश्यावृत्ति भी करती है। बिजली बहुत बोल्ड है इसलिए लाजो और रानी उसकी कई बातों से शरमा भी जाती हैं। सालों से ख़ुद को बांझ समझ रही लाजो को बिजली से पता चलता है कि पुरुष भी बांझ हो सकता है। ये तीनों सहेलियां जब साथ में होती हैं तो अपने ज़िंदगी से कुछ पल बस ख़ुद के लिए चुरा लेती है और सब दुख भूल जाती हैं। बेड़ियों में बंद ये महिलाएं अंत में अपनी ज़िंदगी के लिए निर्णायक फ़ैसले लेती हैं।
फिल्म ये सच बताती है कि कैसे पुरुष अपनी शारीरिक जरूरतों को ‘मर्दानगी’ का नाम देते हैं, लेकिन महिलाओं की दैहिक ज़रूरत को कोई नहीं समझता। बल्कि औरतें ऐसी कुछ बात भी करें तो उन्हें गलत बोल दिया जाता है। ये फिल्म आपको सच से रूबरू कराएगी।
मकान मालकिन विधवा उषा (रत्ना शाह पाठ) भोपाल में एक बड़े से घर में रहती हैं जहां उसके तीन किराएदार हैं। इन परिवारों की औरतें हैं शिरीन (कोंकणा सेन), लीला (अहाना कुमार), रिहाना (पलबिता बोरठाकुर)। हर एक औरत की ज़िंदगी में कुछ किस्से हैं जो ये सिर्फ या तो एक-दूसरे से बांटती हैं या बस ख़ुद से। 55 साल की उम्रदराज़ औरत किताबों के बीच में छिपाकर ‘वैसी वाली’ किताबें पढ़ती है, दर्जी की बेटी बुर्के के अंदर जींस और टॉप पहनकर घर से निकलती है और मॉल से लिपस्टिक चुराकर लगाती है, पति से छिपकर शिरीन सेल्स गर्ल की नौकरी करती है जो उसे बस सेक्स की चीज़ समझता है, लीला की शादी किसी और से पक्की हो गई हैं लेकिन वो किसी और से प्यार करती है और सगाई के कुछ घंटे पहले भी अपने लवर से रिश्ता बनाती है।
लेकिन क्या होता है जब इन औरतों की ज़िंदगी के राज धीरे-धीरे सबके सामने आ जाते हैं और कैसे ये अपने हक के लिए लड़ती है। चाहती तो खुद को बचा सकती थीं लेकिन नहीं अंत तक एक-दूसरे को साथ देती हैं और खुलकर अपनी बात रखती हैं। फिल्म अभिनय के मामले में मालामाल है।
औरतें अपने अंदर बहुत कुछ छिपा कर रखती हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि लोग क्या कहेंगे। आपको ये याद रखना होगा कि आप एक इंसान है और हर एक की तरह आपकी भी कुछ फेंटेसीज़ हैं। इसमें कुछ ग़लत नहीं है क्योंकि ये बहुत स्वाभाविक है। ये फिल्म भी आपको यही सिखाती है कि अपनी चाहतें और सपनों को अहमियत दीजिए। दुनिया के बारे में सोच-सोच कर घुटिए मत। बुर्के में छिपकर नहीं बल्कि ज़िंदगी से खुलकर रूबरू हों।
रेखा और नसीरूद्दीन शाह की ये फिल्म अपने समय यानि 1987 की बहुत बेहतरीन फिल्म है। ये फिल्म रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम से शुरू होती हैं जहां एक-दूसरे से अलग हो चुके पति-पत्नी महेंद्र और सुधा अचानक फिर से मिलते हैं और अपनी ज़िंदगी के बारे में कुछ नया जानते हैं।
महेंद्र के दादा ने कई सालों पहले सुधा से महेंद्र की शादी पक्की कर दी थी। महेंद्र कई बार टालता रहा क्योंकि वो माया नाम की महिला से प्यार करता था। लेकिन माया अचानक महेंद्र को छोड़कर कहीं चली जाती है। सुधा-महेंद्र की शादी हो जाती है और वो साथ खुश रहने लगते हैं। ऐसे में कुछ समय बाद अचानक माया आ जाती है और सुधा-महेंद्र के बीच तनाव आ जाता है। माया की सुसाइड की कोशिश करने पर महेंद्र उसके साथ ज्यादा समय बिताता है। सुधा को माया की आत्महत्या की कोशिश के बारे में कुछ नहीं पता होता इसलिए उसे लगता है कि महेंद्र उसके साथ विश्वासघात कर रहा है। सुधा टूट जाती है और महेंद्र को छोड़कर कहीं दूर चली जाती है कभी वापस ना लौटने के लिए।
महेंद्र की तबीयत खराब होने पर माया उसका ख्याल रखती है और ये अनुभव करती है कि वो सुधा से ही प्यार करता है। एक एक्सीडेंट में माया की मौत के बाद अचानक महेंद्र और टूट जाता है। फिल्म में कई उतार-चढ़ाव और रिश्तों की उलझन को बड़े बेहतरीन ढंग से दिखाया गया है। रेलवे स्टेशन पर महेंद्र-सुधा की बातचीत आपको जोड़कर रखेगी। सुधा का महेंद्र को शादी से मुक्त करने की बात या फिर सुधा के पुनर्विवाह का किस्सा आपकी रूचि को और बढ़ाएगा। रिश्तों के ताने-बाने में अक्सर हम ख़ुद को अनदेखा कर देते हैं। उस दौर में बनी इस फिल्म में औरत की भावनाओं को बड़े करीने से दिखाया गया है। औरत कैसे प्यार के लिए सब कुछ कर भी सकती है लेकिन कैसे प्यार से पहले अपने आत्मसम्मान की रक्षा करती है, इस फिल्म की कहानी कहती है।
वैलेंटाइन डे पर ख़ुद को ज़रूर तोहफ़ा दें और अपने सपनों और चाहतों को पूरा करें।
मैं औरत हूं जो ज़िंदगी देती है, फिर मुझे क्यों जीने के लिए किसी की इजाज़त लेनी है।
मूल चित्र : YouTube
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