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वह अजीब औरत कहीं आप और मैं तो नहीं?

कल! देखा मैंने, उस अजीब औरत को! सोचा कभी जाने क्यों इतनी अजीब होती हैं ये औरतें? इतनी सशक्त होते हुए भी, असहाय सी दिखती हैं, ये औरतें।

कल! देखा मैंने, उस अजीब औरत को! सोचा कभी जाने क्यों इतनी अजीब होती हैं ये औरतें? इतनी सशक्त होते हुए भी, असहाय सी दिखती हैं, ये औरतें।

कल! देखा मैंने,
उस अजीब औरत को,
जो गृह के असंख्य कार्यों का;
समापन कर, नियत समय पर,
हैलमेट पहन, स्कूटी से;
जा रही थी दफ़्तर,
हेलमेट के अंदर ;
उसके माथे पर;
असंख्य पसीने की बूंदों को।

देखा मैंने;
उस अजीब औरत को,
जो गोद में अपने बच्चे को लेकर,
पहुँच गयी थी मजदूरी करने,
कभी देखती अपने बच्चे को ,
कभी ढोती ईंट सर पर,
वह अजीब औरत।

देखा मैने;
अपने छोटे भाई को,
सांत्वना देती; उस छोटी बच्ची में,
परिपक्व होती; उस अजीब औरत को।

देखा मैने;
उस अजीब औरत को,
छत से टपकते हुए;
बारिश की बूंदों से,
अपने बच्चों को भीगने से;
बचाने की कोशिश में,
खुद भींगते हुए।

देखा मैने;
उस अजीब औरत को;
रसोई में; भीषण गर्मी में भी,
चूल्हे में कोयले की जगह,
खुद को जलाते हुए,
माथे से निकलती पसीने की बूंदों को,
उसकी आँखों में जाते हुए
कभी आँख पर हाथ रखते,
कभी रोटी सेंकते हुए।

देखा मैने;
उस अजीब औरत को,
वृद्धाश्रम में; अपने बच्चों के लिए,
प्रार्थना करते हुए।

कहाँ से लाती हैं, ये औरतें;
विषम परिस्थितियों को भी,
अनुकूल बना लेने की क्षमता,
कहाँ से लाती हैं ये औरतें,
जिजीविषा?

कितनी अजीब होती हैं,
ये औरतें।
इतनी सशक्त होते हुए भी,
असहाय सी दिखती हैं,
ये औरतें।

ये अजीब औरतें।
ये अजीब औरतें।

मूल चित्र : Canva 

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Anchal Aashish

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