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इस कविता के माध्यम से सरोज जी ने अपने मन की बात हम सब के साथ साझा की है - तब का वक़्त और आज का वक़्त...जाने उनके इस दृष्टिकोण को!
इस कविता के माध्यम से सरोज जी ने अपने मन की बात हम सब के साथ साझा की है – तब का वक़्त और आज का वक़्त…जाने उनके इस दृष्टिकोण को!
अकेली बैठकर सोचती हूं जब अतीत यादों में उभर आता है अब तब वक़्त कुछ और था, वक़्त कुछ और है अब
संयुक्त परिवार थे, रिश्ते नि:स्वार्थ थे तब एकल परिवार हैं, रिश्ते लाचार हैं अब
ज़रुरतें थीं सीमित, दूसरों के प्रति समर्पण था तब ज़रुरतें हैं असीमित, कैसे समर्पित हो पाए अब
अतिथि देवो भव: थे, सबका मान सम्मान था तब धन का मान है, हम रिश्तों से अनजान हैं अब
बुआ चाचा दोस्त थे, मामा मौसी संग खेलते थे तब दादा दादी गेस्ट हैं, नाना नानी मेहमान हैं अब
जो था मिल बांट के खाते थे, एक दूजे पर प्यार लुटाते थे तब हॉटेल में खाते खिलाते है, स्व सामरथ्य को बताते हैं अब
कुछ भी आडंबर न थे, सो आगंतुक बोझ न थे तब रिश्तों में बनावट है, सो मेहमान बुलाना हिचकिचाहट है अब
नारी का सम्मान था, घर बाहर सुरक्षा का भव था तब इंसानियत गौण है, रिश्तों का ना कोई मोल है अब
बुजुर्ग विशाल बरगद सम थे, वे घर की शान थे तब अनुपयोगी वस्तु हैं वे, घर में बैठे बोझ हैं वे अब
संस्कारों की पूंजी थी, अनुभावों की गूढ़ शिक्षा थी तब गूगल नेट का जमाना है, चौपालों पर न रौनक है अब
जीवन के सुंदर रंग थे, जीने के सुंदर ढंग थे तब जीवन के नए रंग हैं, नए पीढ़ी के नए ढंग हैं अब
तब वक़्त कुछ और था, वक़्त कुछ और है अब!
मूल चित्र : Canva
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