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दुआ-ए-रीम जो पंक्ति मुझे तोड़ गई और कोरी सच्चाई भी बता गई समाज की, वह है, "धमकियां दें तो तसल्ली हो के थप्पड़ न पड़ा, पड़े थप्पड़ तो करूँ शुक्र के जूता न पड़ा।"
दुआ-ए-रीम जो पंक्ति मुझे तोड़ गई और कोरी सच्चाई भी बता गई समाज की, वह है, “धमकियां दें तो तसल्ली हो के थप्पड़ न पड़ा, पड़े थप्पड़ तो करूँ शुक्र के जूता न पड़ा।”
दुआ-ए-रीम यानी दुल्हन की दुआ या दुल्हन के लिए दुआ। दुआ का मतलब होता है आशीर्वाद, मगर इस पाकिस्तानी नग़मे से शिकायत और बग़ावत की बू आती है। इसमें साफ तौर पर दिखाया गया है कि पुरानी और रूढ़िवादी सोच की औरतों के लिए दुल्हन को दुआ देने के लिए क्या है? शब्द तो ऐसे हैं मानो बद्दुआ से भी बदतर मालूम पड़ते हैं, मगर दुल्हन का जवाब और बग़ावत लाजवाब है, और एक ऐसी मार उन पुरुषवाद तबकों के लिए जिनको महिलाएं बस कमज़ोर नज़र आती हैं।
गाना इक़बाल की एक छोटी सी नज़्म से ताल और लय को लेकर बनाया गया है और मौजूदा गीत को लिखने वाले शोएब मंसूर ने जबरदस्त शब्दों के जाल से पुरुषवादी विचारधारा को कुचलने के पूरा प्रयास किया है और गाने वाली हैं दामिया और शहनाज़।
गीत के पहले भाग में मुझे कईं पंक्तियों ने अंदर तक झकझोर कर रख दिया, जिसमें से सबसे ज़्यादा जो पंक्ति मुझे तोड़ गई और कोरी सच्चाई भी बता गई समाज की और वह है-
“धमकियां दें तो तसल्ली हो के थप्पड़ न पड़ा, पड़े थप्पड़ तो करूँ शुक्र के जूता न पड़ा”
उपरोक्त पंक्तियां सिर्फ काग़ज़ पर उतारी हुई महज कुछ लाइन ही नहीं हैं। ये कितनी दयनीय और असहाय आत्मा है असमानता की। महिलाओं को महज शोषण के लिए ही अपनाया जाता है क्या?
गीत दो भागों में बांटा गया है एक तो वह है जिसमें पितृसत्ता के घिनौने चलन को विरासत के रूप में पेश किया गया है और खुले आम पुरुषवाद घटिया सोच को समर्थन दिया गया है। वही घिसी पिटी असमानता की बातें कि पति के हर जुल्म को प्यार से सहो और थप्पड़ खाने में ही भलाई समझना, कहीं मूँह पर जूता न पड़ जाए, और अगर पति गालियाँ दे तो चुपचाप मुस्कुराते हुए इग्नोर कर देना। पति तुम्हारा परमेश्वर है उसकी हर बात को मानना तुम्हारा कर्तव्य होना चाहिए आदि।
मगर दुल्हन यह सुन का सकपका जाती है और बोलती है कि ‘यह कैसी दुआ है? हौलनाक!’ अर्थात यह कैसी दुआ है जो बद्दुआ से भी बदतर नज़र आती है, और उनकी यह दुआ उनके मुँह पर वापस मारकर, यह कोरी बकवास रद्द कर के खुद दुआ करने का चयन करती है।
गीत का दूसरा भाग वास्तव में महिलाओं को समर्पित है और महिलाओं को सशक्त करने के लिए अच्छा भी है।इस भाग में दुल्हन चाहती है कि सारा आसमान उसी का हो। जीवन का एक एक पल उसी का हो जिसमें किसी का दख़ल न हो। जब उसका मन चाहे तभी वह कुछ करे और गीत में यह भी दर्शाया गया है कि अपनी रूचि को प्राथमिकता दें। वह खुद को प्यार करती है और खुद को दुआ देती है।
वह ईश्वर से कहती है आपने उसको आदमी/ पुरुष बनाया है, अब मुझमें ऐसी ताकत दो की मैं उसको इंसान बना सकूं। यहाँ पर भी वह जैसी करनी वैसी भरनी की बात करते हुए कहती है मैं अपने माँ के घर जाने से ज़्यादा उसको वही मरम्मत कर के ठीक करने की ख्वाहिश रखती हूँ। गीत का अंत अत्यंत हास्यस्पद मगर सच्ची बात पर खत्म होती है कि मुझे अगर चावल पसंद है और उसको रोटी तो हम चावल को रोटी के साथ खाकर कॉम्बिनेशन को अच्छा कर सकते हैं।
दूसरे भाग की सारी पंक्तियों का एक एक शब्द पुरुषवाद को निढाल करता है और मेरे व्यक्तिगत तौर पर जो पंक्ति पसंद आई वह है-
“घर में भटकने से जो उनके अंधेरा हो जाए, भाड़ में झोंकु उनको और उजाला हो जाए।”
दुआ-ए-रीम के दूसरे भाग में महिला और समानता की बात कही गई है। शोएब मंसूर ने महिलाओं की स्तिथि को इतनी बख़ूबी से उतारा है जिसको हम नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते।
बहरहाल! मुझे पर्सनली दुआ-ए-रीम गाना बहुत अच्छा लगा इसलिए सोचा इस पर एक लेख लिख कर अपनी आवाज़ को उजागर करूँ। महज सात मिनट की यह वीडियो अपने आप में महिलाओं के सशक्त होने की कहानी कहती है और लड़कियों के मनोबल को बढ़ने के लिए काफी हद तक मददगार साबित हो सकती है।
मूल चित्र : YouTube
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