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हम में से ज़्यादातर महिलाएं अपनी ही ज़िंदगी किसी और की पसंद के हिसाब से जीना शुरु कर देते हैं और हम उसमें सहजता महसूस करते हैं।
“मेरा फेवरेट कलर तो येल्लो था न पापा।”
थप्पड़ देखकर बाहर निकली तो देर तक ये शब्द कानों में गूंजते रहे। फ़िल्म के बारे में पहले ही बहुत कुछ लिखा जा चुका है। लेकिन फ़िल्म देखने के बाद इसके बारे में लिखे बिना रह नहीं गया।
नायिका जो अपने नए घर में नीला दरवाज़ा लगाना चाहती थी भावुक होकर कहती है उसे नीला रंग कभी पसंद ही नहीं था, वो घर को नीले रंग से इसलिए सजाना चाहती थी क्योंकि नीला रंग उसके पति की पसंद है। उसका पसंदीदा रंग तो पीला था, वो किसी और के रंग में इस कदर रंग गई कि यही भूल की उसे क्या अच्छा लगता है।
फ़िल्म के इस संवाद से मुझे वाकया याद आया। कुछ दिनों पहले हम कुछ खास दोस्त किसी कार्यक्रम में इकट्ठे थे और हमेशा की तरह मैंने साउंड सिस्टम का कार्यभार संभाला हुआ था। मैं एक-एक करके सबसे उनके पसंदीदा गाने पूछ कर चला रही थी। इसी सिलसिले में जब मैंने अपनी सहेली राधिका से पूछा ” बताओ तुम्हारा फेवरेट गाना कौन सा है ?” तो वह बोली “कुछ भी चला दो, ऐसा कोई खास फेवरेट नहीं है।”
पर मैं नहीं मानी और मैंने जिद पकड़ ली, “नहीं तुम बताओ कोई एक गाना जो तुम अभी सुनना चाहती हो।”
थक हार कर वह बोली, “केसरी का गाना बजा दो आजकल अजय यही सुन रहा है।”
मैंने फिर गुस्से से उसकी ओर पलट कर कहा, “मैंने तुमसे तुम्हरी पसंद पूछी है, तुम्हारे पति की नहीं।”
उसने हाथ जोड़कर कहा, “माफ कर दो, अगली बार याद करके आऊंगी।”
आशय यह कि यह सिर्फ फ़िल्म की कहानी नहीं है, हमारी जिंदगी की असलियत है। हमारे घरों में हमारी पसंद का गाना नहीं बजता, हमारी पसंद का खाना नहीं बनता और कई बार हम कपड़े भी दूसरों की पसंद के ही पहन लेते हैं। अगर हम खुद ही अपने आपको अपनी पसंद को महत्व नहीं देते तो कोई और क्यों देगा?
कितना मुश्किल है पांच मिनट के लिए समय निकाल कर अपनी पसंद का गाना सुनना? या सब को नकारते हुए अपनी पसंद के कपड़े पहन कर बाहर निकल जाना? बहुत आसान है। लेकिन हम नहीं करते क्यों क्योंकि हम अपनी ही ज़िंदगी किसी और की पसंद के हिसाब से जीना शुरु कर देते हैं। और हम उसमें सहजता महसूस करते हैं। हमने सोच लिया है कि यही सही है। जबकि ऐसा नहीं है, हमें अपनी पसंद की ज़िंदगी जीने से किसी ने नहीं रोका। हम जब चाहें अपनी पसंद का खाना बनाकर खा सकते हैं, अपनी पसंद के फिल्म का गाना देख सकते हैं गाना सुन सकते हैं। ज़रूरत है खुद को कम-कम से इतना समय देने की अपनी पसंद बनाई जा सके।
फ़िल्म में एक जगह नायिका फिर कहती है, “बचपन में जब सब पूछते थे बड़े होकर क्या बनना चाहती हो तो कभी नहीं कहा कि हाउस वाइफ बनना चाहती हूँ। फिर भी मैंने वर्ल्ड की बेस्ट हाउस वाइफ (house wife) बनने की पूरी कोशिश की।”
कितनी सच है यह बात, क्या हम में से किसी का लक्ष्य था कि उसे दुनिया की सबसे अच्छी हाउस वाइफ या दुनिया की बेस्ट मां बनना है, नहीं ना? तो फिर आज हम ये किस दौड़ में शामिल हो गए हैं? अपनी प्राथमिकताओं की कहीं पीछे रख कर?
हम सभी भली भांति जानते हैं कि सबसे ज़्यादा ज़रूरी है एक अच्छा इंसान बनना। अगर आप खुश हैं और दूसरों को खुशी देने में विश्वास रखती हैं तो फिर आपको कुछ और बनने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। आप स्वतः ही एक अच्छी पत्नी, एक बेहतरीन माँ और एक आत्मविश्वास से भरपूर दोस्त बन जाएंगी। आप इन सभी ज़िम्मेदारीयों के साथ-साथ अपना लक्ष्य भी हासिल कर सकती हैं। इस भ्रम को तोड़िये की खुद को सबसे पीछे रखना है, इस दौड़ से बाहर निकलिये। अपने लिए समय निकालिये ।
क्योंकि सबको खुश रखने के लिए ज़रूरी है कि आप खुश हों अपने लक्ष्य निर्धारित कर उनको पूरा करने की योजना बनाइये। आप एक बार ठान लेंगी, तो रास्ते अपने आप खुलते जाएंगे । आप अपने जीवन की किसी ख्वाब को सिर्फ इसलिए मत दफ़न करिए कि आप एक महिला हैं।
अनुभव सिन्हा, मृण्मयी लागू व तापसी पन्नू को एक प्रेरणास्पद , समाज़ की सोच की झकझोरने वाली फिल्म बनाने के लिए साधुवाद, बधाई।
इस महिला दिवस संकल्प लीजिये की आप रोज़ कुछ समय अपने लिए निकालेंगी। अपनी पसंद का गाना सुनेंगी, खाना बनाएंगी और खाएंगी और एक बार वह ड्रेस पहनकर जरूर बाहर जाएंगी जो आप हमेशा से पहनना चाहती थीं। अपनी पुरानी रुचियों की तरफ़ रुख करेंगी । सामाजिक बंधनों और ज़िम्मेदारियों के बीच कहीं खोए हुए अपने असली व्यक्तित्व को निखारेंगी।
#WomensWebMyFav हैश टैग के साथ अपनी पसंद दुनिया को बताईये। आपका पसंदीदा रंग, गीत, फ़िल्म या और भी कुछ जो आप करना चाहती हैं, पर आपने किसी से कहा नहीं।
मूल चित्र : Canva
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