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लॉक डाउन – महिलाओं का सदियों से पुरुषवाद ने लॉक डाउन ही तो किया हुआ है

महिलाएं इस लॉक डाउन की कब से साक्षी रहीं हैं क्यूंकि पुरुषवाद इस लॉक डाउन को महिलाओं पर कई सदियों से चलाता आ रहा है, क्या इसे पुरुषों ने कभी महसूस किया?

महिलाएं इस लॉक डाउन की कब से साक्षी रहीं हैं क्यूंकि पुरुषवाद इस लॉक डाउन को महिलाओं पर कई सदियों से चलाता आ रहा है, क्या इसे पुरुषों ने कभी महसूस किया?

लॉक डाउन, मतलब की एक क़ैदी की सभी सीमाओं को एक दायरे में बांध दिया जाता है। उसके अधिकार छीन लिए जाते हैं, कई बार यह सार्थक साबित होता है और कई बार निर्रथक। मगर आज मेरा यह लेख लिखने का सिर्फ महज यह बताना नहीं के लॉक डाउन क्या होता है, क्यों होता है? किसके लिए होता है इत्यादि।

मुझे आज यह बताने और समझाने की ज़रूरत नहीं है कि एक कैदी की तरह ज़िन्दगी को गुज़ारना कैसा होता है? यह कोई पुरुष कभी महसूस कर सकता था? महिलाएं इस लॉक डाउन की कब से साक्षी रहीं हैं। पुरुषवादी तो इस लॉक डाउन को महिलाओं पर कई सदियों से चलाते आ रहे हैं।

कल एक दिन के जनता कर्फ्यू से ही हालातों को देखकर लोगों की हालत ख़राब हो चुकी है। अब पुरूष पूछ सकता है महिलाओं से के तुमको कैसा लग रहा है ये कर्फ्यू? महिलाओं का जवाब तो यही होगा कि हम तो सदियों से यह स्तिथि झेलती आ रहीं हैं। यह बात बिल्कुल ठीक है महिलाओं के लिए कि वह कब से इस क़ैदी ज़िन्दगी को जीती आ रहीं हैं। आज पूरे विश्व से पूछो या सिर्फ़ भारत के लोगों से भी पूछा जा सकता है, ख़ासकर पुरुषों से कि उनको यह एक दिन का कर्फ्यू या एक हफ्ते का कर्फ्यू कैसा लगा? कैसा लगा आपको क़ैदी बनकर? कैसा लगी आपको अपने मन के मुताबिक काम न करने की स्तिथि? बस! ज़रा सा अपने मन के विचारों को थोड़ा सा काग़ज़ पर उतारने की कोशिश तो कीजिए, साहब! आप शायद खुद भी रो पड़ेंगे अपनी स्तिथि को पढ़कर।

शायद पुरुष समुदाय को थोड़ा सा महसूस करने की ज़रूरत है कि क्या महिलाओं की सदियों से चली आ रही स्तिथि की उनको कोई जानकारी नहीं थी, या अंधे, गूंगे, और बहरे बन बैठे थे?

कितनी प्रताड़ना झेल झेल कर एक महिला कर्मठ बनती है, और क़ैदी बनकर अपना पूरा जीवन काट लेती है, ‘जीवन तो जिया जाता है’ है न? मगर उनके लिए जो अपनी आज़ादी के मुताबिक जीवन जीते हैं। महिलाओं के लिए तो जीवन काटना ही होता है।

आज समाज समझ रहा है हम तो क़ैदी से बनकर रह गए जब,
– न कहीं अपने मन से जा सकते
– न किसी रेस्टोरेंट में अपना थोड़ा जी बहला सकते
– न अपना मन हल्का करने के लिए किसी दोस्त के घर जा सकते

यह जो सारी बातें हैं, ज़रा महसूस कर के देखो क्या इस तथ्य की पात्र हमारे घर की महिलाएँ नहीं थीं? माँ, बहन, बेटी, बहु, पत्नी? मैंने अपने समाज में यहां तक कि अपने घर में यह लॉक डाउन की स्तिथि कई बार देखी है और आवाज़ भी उठाई, मगर आज तक कह आवाज़ बस कहीं न कहीं दबी रह गई।

उपरोक्त लेख बस इतनी सी बात के लिए ही लिखा गया है कि पुरूषवाद को समर्थन देने वाले लोग बस आज जिस स्तिथि में वह जी रहे हैं, इस स्तिथि को महिलाएं कबसे झेलती आ रहीं हैं। बस ज़रा सा दिमाग़ पर ज़ोर डालिए और सोचिए। शायद आप भी मानवता की सीढ़ी पर समानता का क़दम रख सकते हैं।

महिलाओं की तुलना कैदियों से कर के एक नग़मा याद आता है जो लता मंगेशकर जी ने गाया था ‘साधना’ फ़िल्म का ‘औरत ने जन्म दिया मर्दों को’

इसी गीत का अंतरा बड़ी गहरी चुभन दे जाता है-

‘मर्दों के लिये हर ज़ुल्म रवाँ,
औरत के लिये रोना भी ख़ता मर्दों के लिये लाखों सेजें,
औरत के लिये बस एक चिता
मर्दों के लिये हर ऐश का हक़,
औरत के लिये जीना भी सज़ा..’

(गीत स्त्रोत- साधना फ़िल्म से संकलित है)

मूल चित्र : Pexels

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