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सैकड़ों की संख्या में मजदूर पैदल ही दिल्ली और आसपास के इलाकों से चल पड़े थे अपने-अपने गांव की तरफ। सब अपने मन में सोच रहे थे अभी तो बहुत चलना है।
लीला परेशान होकर अपने छोटे से कमरे में इधर से उधर चहल-कदमी कर रह थी। बीच-बीच में कमरे का पर्दा सरका कर झांक लेती थी। पर सूरज का कोई अता-पता ही नहीं था। होली में जब गांव आया था सूरज, तो बड़ी मिन्नतें कर उसके साथ शहर चली आयी थी। अब यहां आकर तो महामारी अपने रूप में फूटी किस्मत साथ ले कर आई थी। कभी-कभी लीला को लगता उसी की किस्मत में कोई दोष है जिसकी वजह से यह सब हुआ है नहीं तो अब तक तो सब ठीक ही चल रहा था। उसके मनहूस कदम पड़े सूरज के इस कमरे पर और काम-धंधा सब ठप्प पड़ गया, और सूरज ही क्यूं इस बस्ती के हर घर की यही कहानी थी। कभी-कभी उस लगता जैसे पूरी बस्ती कि इस हालत की वही ज़िम्मेदार है।
नरेन्द्र मोदी जी के अनुरोध पर पूरे भारत को लॉक डाउन यानी ‘कर्फ्यू’ लगा दिया गया है, यह खबर बाहर आते ही लगभग सभी वर्गों में खलबली सी मच गई थी। ऐसे में सबसे ज्यादा परेशान मजदूर वर्ग था। ये वह लोग हैं जो छोटे-छोटे गांवों से बड़े-बड़े शहरों की तरफ पलायन करते हैं काम की तलाश में। ये मजदूर आम तौर पर दिहाड़ी मजदूर होते हैं, ये हर दिन कमाते हैं और हर दिन खाते हैं। किसी दिन अगर काम नहीं मिला तो इनके पास एक-दो दिन से ज़्यादा की बचत भी नहीं होती कि बिना दिहाड़ी दो दिन से ज्यादा इनका पेट भर सकें। ऐसे समय में इन मजदूरों के ऊपर तो विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा है। लीला और सूरज भी इसी वर्ग का हिस्सा हैं।
अभी लीला यही सब सोच रही थी कि सूरज और उसके साथ कई सारे मजदूर वापस आते दिखाई दिए। सूरज के आते ही लीला ने पूछा, “का बातचीत हुआ तुम लोगों के बीच? अब का करेंगे हम सब?”
” कुछ ना पूछ लीला, बस सामान बांध ले, अब यहां तो कुछ नहीं रखा हम जैसन के लिए। हम सब ने सोचा है गांव वापस लौट जाएंगे।” सूरज के चेहरे पर दुःख साफ नजर आ रहा था।
“पर जाएंगे कैसे? सब गाड़ी सब तो बंद है ना? तुम कह रहे थे ना कि रेलगाड़ी भी बंद कर दिए हैं प्रधानमंत्री जी”, लीला परेशान हो गई थी।
“हां लीला! है तो बहुत मुश्किल घड़ी, पर सबने यही सोचा है कि पैदल ही यहां से गांव की तरफ चलेंगे। थोड़ा हिम्मत से काम लेना होगा, साथ दोगी ना मेरा?” सूरज ने प्यार भरी नज़रों से लीला को देखा।
“हां! हम तुम्हारे साथ हैं”, कहती लीला सामान बांधने लगी।
थोड़ी ही देर में सैकड़ों की संख्या में मजदूर पैदल ही दिल्ली और आसपास के इलाकों से चल पड़े थे अपने-अपने गांव की तरफ। चार घंटे लगातार चलने के बाद, थोड़ी देर ठहर, फिर चल पड़े। कोई प्यास से बेहाल था पर खाना और पानी बचा कर भी रखना था। एक घूंट पानी से प्यास बुझाने की नाकाम कोशिश करते फिर आगे बढ़ जाते। कोई चलता-चलता थक कर धीरे चलने लगता, फिर अपने साथियों सहित कदम से कदम मिलाकर चलता। कभी पुलिस की लाठी के डर से छुपते चले जा रहे थे सभी।
शाम हो आई थी पर मंज़िल अभी दूर थी। लीला का दिल भर आया, उसे अपने ठेले पर बिठा कर ठेला खींचता सूरज अब ठीक से चल भी नहीं पा रहा था। थोड़ी देर बाद सुनसान सी जगह देख सब वहीं अपनी-अपनी चद्दर बिछा के पड़ गए जैसे किसी में जान ही ना हो। सब अपने मन में सोच रहे थे अभी तो बहुत चलना है। साथ लाया राशन खत्म होने को है। अब कल क्या होगा?
औरतें मन ही मन कोस रहीं थीं इस महामारी को, ना जाने कब तक ऐसा ही चलता रहेगा।
दोस्तों ऐसा कोई परिवार या समूह आपके आसपास हो तो उनका साथ जरूर दें।
मूल चित्र : livehindustan.com
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