कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं? जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!
एक दिन पुरुष द्वारा तिरस्कृत नारी लावा की भाँति फट भी सकती है और, उस दिन हम इस असमानता के तांडव को देख कर असहज ना हों, क्योंकि यह आग हमने ही लगायी है।
विश्व महिला दिवस पर, मैं, एक पुरूष, अपने विचार जो महिलाओं के सम्मुख हैं, उनको पेश करना चाहता हूं और अपने शब्दों को दिशा प्रदान करना चाहता हूँ कि एक पुरुष होने के नाते उसको महिलाओं के साथ कैसा बर्ताव करना चाहिए, कैसा बदलाव करना चाहते हैं।
पितृसत्ता के जीवाणु हमारे देश में कई सालों से फल-फूल रहे हैं, जिसको हर कोई साधारण बात समझता है। मगर यह साधारण बात नहीं है, यह एक असाधारण तथ्य है जो ना जाने कितनी सदियों से चला आ रहा है। मैं मानवतावादी पुरूष हूँ और मेरी प्राथमिकता और मेरी सोच नारीवादी है। मैं महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए समाज में बदलाव चाहता हूँ। मैं यह बदलाव व्यक्तिगत तौर पर नहीं, समाजिक तौर पर चाहता हूँ। समानता की नींव से पनपे नियम व कानून समाज में फैलाना चाहता हूँ मैं।
मुझे असमानता से कोई सरोकार नहीं, ना मेरे व्यक्तिगत सोच में इस शब्द की कोई परिभाषा है। ईश्वर ने सबको सामान्य अधिकार दिए हैं। मैं महिलाओं के लिए होने वाले भेदभाव को दूर करना चाहता हूँ। मैं लोगों को जागरूक करना चाहता हूँ कि महिलाएं भी उसी समानता की हक़दार हैं जिस समानता का पुरूष।
मैं पूरे विश्व में समानता की धरती चाहता हूँ और समानता का आसमान, अर्थात हर ओर समानता ही समानता हो, न कोई ऊंच-नीच, ना कोई शोषण। महिलायें भी इंसान हैं, उनके भी भाव हैं और संवेदनायें भी। घरेलू हिंसा, यौनिक प्रताड़ना, ऐसे ही ना जाने कितने नकरात्मक चेहरे हैं उस स्तिथि के, जो हमारे समाज की आत्मा को झकझोर कर के रख देती है। समाज को जागरूक होने की ज़रूरत है, वरना कई पीढ़ियों तक इस अनन्तकाल समाज के धब्बे की छींटे असमानता के बीज बोती चली जाएंगी और महिलाओं का आत्मसम्मान क्षीण और कमज़ोर होता रहेगा। इस समाज, खासतौर पर पुरुष को बदलना होगा और यह बदलाव लाना अनिवार्य है।
‘तू लड़की है, रात को घर से नहीं जा सकती’ ‘तू लड़की है छोटे कपड़े नहीं पहन सकती’ ‘तू लड़की है, बाप और भाई से पहले खाना नहीं खा सकती’ ‘तू लड़की है, अपनी पसंद से विवाह नहीं कर सकती’ आदि।
उपरोक्त संवाद कितने विषैले हैं और कितने अन्यायपूर्ण। यह सारी बात हम एक लड़के से क्यों नहीं बोल सकते? नहीं बोल सकते, क्योंकि पुराना स्टीरियोटाइप समाज अपनी गंदी, घिसीपिटी पुरानी सोच के आगे बेबस है। महिलाओं की समानता के लिए हमको एक यह भी कदम उठाना चाहिए कि इन रूढ़ियों को ख़त्म कर दें, जड़ से मिटा दें। अन्यथा समाज में विकास नहीं विनाश होगा।
आज भी समाज में ग्रामीण क्षेत्रों में यही परम्परा चली आ रही है, जिसे लोग खुशी खुशी अपनाते हैं, मगर यह नहीं सोचते के जिस नारी का तिरस्कार कर के आप अपने मन की कुंठा को ठंडक पहुंचा रहे हैं, वह एक दिन लावा की भाँति फट भी सकती है। और, उस दिन हम असमानता और समानता के बीच का तांडव देख कर असहज ना हों, क्योंकि यह हमारे द्वारा ही लगाई गई आग है। इस से पहले ही हमको पुरानी रूढ़ियों को समाप्त करना होगा।
अभी भी कितनी महिलायें घर में चारदीवारी में बैठ कर घर की नौकरानी या सेविका के रूप में ही बहाल हैं, मगर कभी किसी ने उनके अंदर किसी न किसी कौशल को देखा है? नहीं! और अगर देखा भी होगा तो उसे नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। पहले तो उनकी शिक्षा को आगे की ओर बढ़ाया नहीं जाता और अगर वे पढ़-लिख गयीं तो उनका वैवाहिक जीवन नरक के समान बना दिया जाता है।
महिलाओं के कौशल को पहचानें और उन्हें मौका दें, सशक्त होने का। कपड़े की कटाई, सिलाई, बुनाई, आदि, इन कामों के ज़रिए भी महिलाएं अपने जीवन पर खुद के पैरों पर खड़ी हो सकती हैं और आत्मनिर्भर बन सकती हैं, मगर ज़रूरत है तो समाज के पितृसत्तात्मक सोच को बदलने की।
शिक्षा केवल समाज को नौकरी दिलाने में ही मददगार नहीं बल्कि हर इंसान की सोच को और जीवन को भी सकरात्मक तौर पर उज्ज्वल करती है। उसके अनुभव को निखारती भी है। हमारे देश के संविधान में निहित अनुच्छेद 21-क, के अनुसार छह से चौदह वर्ष के आयु समूह के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान करता है।
प्रांरभिक शिक्षा प्रत्येक बच्चे का अधिकार है चाहे वह लड़का हो या लड़की। जब देश की सबसे बड़ी संस्था इस बात का निर्धारण कर रही है कि शिक्षा के क्षेत्र में भी समानता का रास्ता ही होना चाहिए, फिर समाज को क्या हुआ? बेटे के लिए शिक्षा के लिए विधालय ढूंढते हुए देखा जाता है, कोई अच्छा प्राइवेट स्कूल होना चाहिए, और लड़कियों के लिए अभी भी कहा जाता है, “ये तो पराए घर जाएगी, इसको पढ़ने की क्या ज़रूरत?”
यही मानसिकता आज के समाज को प्रदूषित कर रही है, यह पुराने और बीते समय की बात नहीं यह आज की बात है, और अभी भी लोग ऐसा ही सोचते हैं। मेरी विनती है पुरुष समाज से कि लड़कियों की शिक्षा को भी प्राथमिकता दें, क्योंकि किसी भी छोटे बच्चे की पहली अध्यापिका आज भी उसकी माँ ही होती है, और अगर वह शिक्षित होगी तो समाज भी शिक्षित होगा।
अब समाज में बदलाव की ज़रूरत है। पिता, पति, भाई, आदि, जो भी पुरुष की छवि हैं, अब समय है उनको अपनी सोच को खुला रखने की। बहुत हुआ अत्याचार और रोक-टोक। पिछले कई सदियों से हमारे समाज की महिलाएँ यह सब झेलती आ रहीं हैं।
हमें महिलाओं को स्पेस देनी चाहिए, उसको उड़ने के लिए आत्मविश्वास से भर देना चाहिए, जिस से उसको भी लगे कि वह अपने जीवन की रानी है, न कि गुलाम। उसको भी वही एहसास होने चाहिए जो एक पुरुष महसूस करता है।
अक्सर हमारे समाज में देखा जाता हैं, बाहरी बाजार के काम आज भी पुरुष खुद करते हैं। कहीं भी आने-जाने में भी स्त्री का पुरुष के साथ ही जाना अनिवार्य माना जाने लगा है। ऐसा क्यों ? क्या महिलाएं अकेली चल नहीं सकतीं? या वह समर्थ नहीं हैं बाहर की दुनिया को पहचानने में? मेरे विचार से तो महिलाओं को ऐसे अवसर होने चाहियें जिसमें उनकी अपनी ज़िंदगी हो और अपना आसमान। अपने पसंद के कपड़े हों, और अपनी उड़ान के लिए आत्मविश्वास। क्यों न हम उनको विश्व महिला दिवस पर यही तोहफा पेश करें।
और अब सब फ़िल्म के संवाद से जोड़ कर कह सकते हैं, “जा सिमरन जा, जी ले अपनी ज़िंदगी…” क्यूंकि इसपर असली हक़ सिर्फ सिमरन का है और अब उसका ये हक़ हम नहीं छीनेंगे।
(संवाद स्त्रोत: दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे 1995)
मूल चित्र : Canva
read more...
Please enter your email address