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ताराबाई शिंदे के विचार आज के समाज के लिए, जहाँ महिलाओं को नीचा समझा जाता है, एक तलवार का प्रहार हैं, जो पितृसत्ता की सोच को छिन्न भिन्न कर देता है।
जब हम तारा बाई शिंदे, पंडित रमाबाई, सावित्रीबाई फुले, ज्योतिराव फुले आदि इनका नाम सुनते हैं, तो मन में एक नाम ही खनकता है वह है ‘नारीवाद’। उपरोक्त सभी छवियाँ कहीं न कहीं नारी सशक्तिकरण और समानता के लिए प्रसिद्ध हैं। (Modern India’s First Feminist Tarabai Shinde)
उस समय कई प्रकार के नारीवादी आंदोलन हुए और लिखित साहित्य भी अपनी चरम सीमा पर थे। विश्व में महिलाओं के आंदोलन की नींव 1789 की फ्रांस की राज्यक्रांति के साथ शुरू हुई, जिसके घोषणा पत्र में महिलाओं को नागरिक ही नहीं माना गया था। महिलाओं की दयनीय स्तिथि को समाज से रूबरू करवाने के लिए पूरा विश्व धीरे-धीरे मगर समर्थित हो रहा था।
भारत में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर हों या स्त्री शिक्षा के लिए आगे आने वाली सबसे पहली महिला सावित्रीबाई फुले, सब ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। मगर कुछ चेहरे ऐसे भी रहे जो प्रख्यात तो न हो सके मगर उनके कार्य और उनकी हिम्मत की कोशिशों ने समाज में क्रांति ला दी थी। जिनमें से एक थीं ताराबाई शिंदे।
1850 में जन्मी ताराबाई बचपन से ही असमानता के ख़िलाफ़ अपनी मासूम बातों से अपने पिता और माता जी का मन मोह लिया करती थीं। महाराष्ट्र के बुलढाणा जिले में जन्मी ताराबाई अपनी पिता की अकेली पुत्री थीं और उनके चार भाई भी थे। बुलढाणा जिले में उस समय एक भी गर्ल्स स्कूल नहीं था।
ताराबाई के पिता राजस्व विभाग में एक क्लर्क थे और उन्होंने अपनी पुत्री को संस्कृत, मराठी और अंग्रेजी की शिक्षा घर ही पर दी। यह ताराबाई के लिए एक सकरात्मक पहलू था जो वहाँ की अन्य मराठी लड़कियों को प्रदान नहीं किया गया था। ताराबाई का विवाह बहुत ही कम उम्र में हो गया था।
युवा ताराबाई शिंदे ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले के साथ सामाजिक कार्यकर्ता का कार्य करती थी। साथ के साथ वह सामाजिक सत्यशोधक समाज की संस्थापक की सदस्य भी थीं। वह नारीवादी और सामाजिक कार्यकर्ता के अलावा लेखिका भी थीं। (stri purush tulana in hindi)
उन्होंने विश्व प्रसिद्ध निबंध का लेखन किया ‘स्त्री पुरुष तुलना’ जो स्त्री और पुरूष की सार्थक तौर पर तुलना करती थी। (tarabai shinde ki kitab stri purush tulana) आदिकाल के बाद महिलाओं के लिए लिखा गया यह एक सम्पूर्ण और प्रथम साक्ष्य था।
अठारहवीं शताब्दी में मराठी भाषा में लिखा गया था ये लेख। एक लंबे लेख की तरह लिखी गई इस किताब में ताराबाई शिंदे ये प्रश्न उठाती हैं एक जैसी स्तिथि में स्त्री-पुरुष के बीच कैसे अंतर पैदा हो जाता है? जबकि दोनों को भगवान ने बनाया है, दोनों साँस लेते हैं, और दोनों के शरीर में रक्त भी है, फिर भी असमानता? इस लेख में इस विषय की बहुत अच्छी व्याख्या की गई है।
भारतीय इतिहास के परिप्रेक्ष्य में इस किताब का विशेष महत्व है क्योंकि इसके जरिए आप समाज में एक भारतीय स्त्री की हालत का एक महिला की नज़रिए से आकलन कर पाएंगे के वह क्या महसूस करती हैं और क्या चाहती हैं। (stri purush tulana was written by Tarabai Shinde)
स्त्री-पुरुष तुलना में प्रकाशित लेख की लेखिका के रूप में, जो अपने विचारों के तीखे तीरों से हिन्दू धर्म और उसके ग्रंथों, धार्मिक अंधविश्वासों व उनके द्वारा पिरोई गई पितृसत्ता की माला का सर्वनाश करने के लिए उन्होंने अपनी कलम से एक मुहिम चलाई। उन्होंने उस वक्त समाज से निर्भीकता से लोहा लेकर उसमें क्रन्तिकारी बहाव को तेज़ करने की कोशिश की।
ताराबाई शिंदे ने अपनी प्रभावशाली लेखनी के द्वारा रचे-बसे ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के पाखंडों पर दिल खोल कर प्रहार किया।
हिंदू शास्त्रों में मौजूद पितृसत्ता की अवहेलना ऐसे विचार हैं जो आज तक विवादास्पद बने हुए हैं। एक विधवा महिला के द्वारा एक अजन्मे बच्चे का गर्भपात कराने के कारण उस महिला को कड़ा दंड दिया गया, उसको मौत की सज़ा सुनाई गई। इस नियम व कानून से ताराबाई काफी आहत थीं और इसी अधिनियम के ख़िलाफ़ उनके खून में उबाल आ रहा था, उन्होंने अपने विचारों के तूफानों को अपने लेखन के द्वारा दिशा दी।
ताराबाई शिंदे ने उन्नीसवीं सदी में अपने कार्यों से और अपनी मज़बूत लेखनी से और क्रांतिकारी विचारधारा से पूरे भारत के विषैले वातावरण को प्रभावित किया और उसको बदलने के लिए अपने वजूद से भी ज़्यादा कोशिश की और सफलता भी हासिल की।
भारत में सवर्ण जातिवाद की मानसिकता और ब्राह्मणवाद की जड़ें अत्यंग गहरी हैं और मज़बूती से बैठी हुई हैं। मगर जड़ें कितनी ही मज़बूत और अंदर तक जमीं हों, उनको उखाड़ने का समय आ गया है।
ताराबाई समाज से पितृसत्ता और जातिवाद को सिरे से ख़ारिज करती आईं और वे इस प्रथा को खत्म करने के लिए अंत तक लड़ती रहीं।
मैं व्यक्तिगत तौर पर अपने विचार प्रकट करना चाहता हूँ कि विद्यालयों में और कॉलेज में स्त्री पुरूष समानता का निबन्ध ज़रूर होना चाहिए या इसको एक महत्वपूर्ण पाठ के रूप में भी संलग्न कर सकते हैं।
ताराबाई शिन्दे की विचारशील उपाधि, आज के समाज के लिए, जहाँ महिलाओं को नीचा समझा जाता है, एक तलवार का प्रहार है जो पितृसत्ता की सोच को छिन्न भिन्न कर देता है।
मूल चित्र : Indiamart.com
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