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शादी करना कोई गुड्डे-गुड़ियों का खेल नहीं

युवा अक्सर अपने मन मुताबिक फैसला लेते हैं, लेकिन कुछ फ़ैसले ऐसे होते हैं जिनके लिए अपने परिवार वालों के साथ विचार-परामर्श करने में ही समझदारी है।

युवा अक्सर अपने मन मुताबिक फैसला लेते हैं, लेकिन कुछ फ़ैसले ऐसे होते हैं जिनके लिए अपने परिवार वालों के साथ विचार-परामर्श करने में ही समझदारी है।  

सुबह-सुबह…

“अरे सुनते हो अजय! तुम स्‍कूल में ठीक से छोड़ आए न मनिषा को? वार्षिक परीक्षा है 12वीं की।”

“क्‍यों चिंता करती हो आभा? अब अपनी बेटी बड़ी हो गई है, उस पर भरोसा रखो। वह स्‍वयं भी अपना सही-गलत समझती है।”

“नहीं जी। ऐसी बात नहीं है, मुझे अपनी बेटी पर पूर्ण रूप से भरोसा है। वर्तमान में आस-पड़ोस के माहौल को देखकर थोड़ी बेचैनी होती है।”

“अभी कल ही की तो बात है। मनिषा बता रही थी कि उसकी सहेली सुषमा की बड़ी बहन सुरेखा को मुंबई से एक दिनेश नामक लड़का, अपने माता-पिता के साथ विवाह के लिये देखने आया, जो अमेरिका में एक मल्‍टीनेशनल कंपनी में मैनेजर है। वर और वधु पक्ष की सारी बातें निश्चित होने के बाद तय हुआ कि सुरेखा और दिनेश शादी से पूर्व 6 महिने तक लिव-इन रिलेशनशिप में रहेंगे और उसके बाद उनका धूमधाम से विवाह रचाया जाएगा। अब आप ही बताईए, बेचारी सुरेखा क्‍या जाने लिव-इन रिलेशनशनशिप और दिनेश ने बाद में उसे धोखा दे दिया तो?”

“बदलते वक्‍त के साथ समाज और रिश्‍तों की परिभाषा भी बदल गई है, खासकर बड़े शहरों में। वहां भी विदेशों में चल रही इस प्रक्रिया के अनुसार यहाँ पर लोग वही करना शुरू करने में लगे है। विवाह में बंधने वाले दुल्‍हा-दुल्‍हन का पवित्र रिश्‍ता तो आजकल की युवा पीढ़ी के लिए महज एक हँसी-मजाक या गुड्डे-गुडि़यों का खेल ही रह गया है।”

“ऐसा नहीं है आभा, हम सभी को अपनी सोच सकारात्‍मक रखने की बहुत जरूरत है। ठीक है युवा पीढ़ी का विवाह के संबंध में विदेशों के रिवाजों की देखा-देखी बदल गया है और अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन संबंधों को स्‍वीकृति दे दी हो, परंतु हाँ वर-वधु के साथ-साथ उनके माता-पिता को भी इसके निर्धारित नियमों को पहले समझना अति-आवश्‍यक है। ताकि विवाह के पवित्र रिश्‍ता जिंदगी भर निभाने में सरलता हो सके।

“नहीं अजय ऐसी बात नहीं है। मैं भी सकारात्‍मक ही सोचती हूँ पर सुरेखा की पूर्व की कहानी शायद आप जानते नहीं हैं। पहले भी उसके साथ कुछ ऐसा घटित हो चुका है जो नहीं होना चाहिये था।”

“आभा कुछ बताओगी भी कि ऐसे ही विचार व्‍यक्‍त करते रहेंगे हम लोग? लेकिन रूको अभी, आज मनिषा की आखिरी परीक्षा है, मैं उसे लेकर आता हूँ। फिर अपन सब एक साथ तुम्‍हारे हाथों से बने स्‍वादिष्‍ट भोजन का आनंद भी लेंगे और साथ ही सुरेखा की कहानी भी सुनेंगे ताकि मनिषा भी सुन सके।”

“मेरा तो मानना है आभा कि हमारे जैसे हर माता-पिता जिनके बच्‍चे 12वीं कक्षा में पहुँचे हों और चाहे वह बेटा हो या बेटी, इस विषय पर परिवार में उनके साथ खुलकर चर्चा होनी चाहिये ताकि जब वे कॉलेज की पायदान पर पहुचेंगे तब उन्‍हें अपना हर कदम, भला-बुरा सोच-समझकर उठाने में सहायता मिलेगी।”

फिर अजय मनिषा को लेकर आता है और सभी साथ में भोजन करते हैं, “चलो मनिषा बेटी अपना भोजन भी हो गया है, अब तुम्‍हारी मम्‍मी किसी की बात बतायेंगीं, जो तुम्‍हें भी शायद पता नहीं है।”

“हाँ, मम्‍मी बताओ न, मै भी सुनना चाहती हूँ।”

“तो सुनो बेटी, तुमने अपनी सहेली सुषमा की बड़ी बहन सुरेखा के बारे में बताया था न? वह तुमने अभी की स्थिति बताई, पहले उस बेचारी पर क्‍या बीती यह किसी को भी ठीक से मालूम नहीं है। वह तो एक समाज सेवी संस्‍थान में जहाँ मैं बीच-बीच में जाती रहती हूँ। वहाँ पुरानी सहेली ज्‍योती मिल गई, सो उसने बताया।”

“सुरेखा जो परिवार की बड़ी बेटी थी और घर में दादी से लेकर सभी रिश्‍तेदार उसकी शादी के बारे में ही हमेशा पूछा-पाछी करते। दिन-ब-दिन उम्र भी होती जा रही थी न उसकी, पर सुरेखा ने कला विषय के साथ एम.ए. की परीक्षा उत्‍तीर्ण की थी। और वह अपने पैरों पर खड़े होना चाहती थी। शादी के बारे में उसका दूर-दूर तक कोई विचार भी नहीं था। उसके विचारों से सहमत होकर माता-पिता ने भी उसका हमेशा की तरह आगे बढ़ने में साथ दिया। सुरेखा को कलाकृति संस्‍थान से जुड़ी और उसको ऐसे ही अभ्‍यास करते-करते छोटे-छोटे सीरियल्‍स एवं नाटकों में भाग लेने का अवसर मिलने लगा। और मुंबई में उसके साथियों की अच्‍छी-खासी मंडली बन गई। अब तो सुरेखा के वारे ही न्‍यारे हो गए और सब जगह से कार्यक्रम प्रस्‍तुत करने के लिये बुलावा भी आने लगा।”

“ऐसे ही दिन गुजरते गए। सुषमा छोटी थी सुरेखा से, जो हमारी मनिषा संग एक स्‍कूल में पढ़ती है। पर सुरेखा बड़ी होने के कारण माता-पिता को दिन-ब-दिन उसकी शादी की चिंता सताए जा रही थी। पिताजी का रिटायरमेंट भी पास में था। खैर! माता-पिता के सोचने से क्‍या फर्क पड़ता है, होता वही है जो किस्‍मत में लिखा होता है।”

“अजय समझ में नहीं आता शादी का यह पवित्र रिश्‍ता जो पति-पत्नि को जिंदगी भर साथ निभाना होता है, जैसे कि हर परिस्थिति में हम दोनों निभा रहे हैं। पता नहीं आजकल इसको हँसी-खेल क्‍यों समझा जाता है?”

“अब सुरेखा का सपना सच हो चला था, उसे मनपसंद काम जो चुना था। पर घर में दादी पिताजी को सुरेखा की शादी करने हेतु बहुत उकसा रही थी। दादी और माता-पिता को सोचना चाहिए था, शादी जैसा पवित्र बंधन जिसकी बागडोर सिर्फ विश्‍वास पर टिकी होती है और उन्होंने बिना कुछ सोचे-समझे सुरेखा का रिश्‍ता पक्‍का कर दिया।”

“सुरेखा अपने काम से जब घर आई, तो उसकी माँ ने बताया कि समीप के रिश्‍तेदार ही हैं समधि जी। इकलौता लड़का है और उनका मुंबई में ही कपड़ों का व्‍यवसाय है। जो बेटा और पिता मिलकर करते हैं, अच्‍छा-खासा मुनाफा हो जाता है। लड़के का नाम राजेश है बेटी, तुमको और कुछ पूछना हो तो अपने पिताजी से पूछ लेना।”

“सुरेखा ने दूसरे ही दिन अपने पिता से राजेश से एक बार मिलने की इच्‍छा जताई तो पिता ने कहा कि अपनी रिश्‍तेदारी में ही है और देखने-दिखाने की क्‍या जरूरत? दादी ने हाँ कर दी है और मैं कुछ सुनना नहीं चाहता बेटी और फिर उम्र भी तो निकली जा रही न तुम्‍हारी और हाँ उन्‍होंने कहा है कि तुम्‍हें अब काम करने की जरूरत भी नहीं है।”

“यह सुनकर सुरेखा क्‍या बोलती, अपने माता-पिता और दादी की आज्ञा का पालन करते हुए बिना जाने-पहचाने व्‍यक्ति से सिर्फ कि वे रिश्‍तेदारी में है करके, शादी के लिए हाँ कर दी। और करती भी क्‍या बेचारी। बार-बार के शादी के तानों से तंग आ चुकी थी, सो हाँ कर दी।”

“फिर क्‍या था, चट मग्नि पट ब्‍याह भी संपन्‍न हो गया। सुषमा छोटी थी, इतनी समझ नहीं थी उसको, पर सुरेखा विदाई के समय बहुत रोई, अपने माता-पिता से मिलकर। वे ही तो उसके जीवन के पालनहार और सर्वस्‍व हैं।”

“सास-ससुर एवं राजेश संग आ गई ससुराल सुरेखा। उसे कुछ मालुम ही नहीं था अपनी ससुराल के बारे में और न ही माता-पिता ने भी कुछ पूछताछ करने की जरूरत समझी। शादी जैसा पवित्र रिश्‍ता रिश्‍तेदारी में ही है और बिल्‍कुल आँखे बंद करके विश्‍वास के साथ कर दिया। पर सुरेखा का संघर्ष अभी यही खत्‍म नहीं हुआ था।  ससुराल में नई-नवेली बहु की न कोई रस्‍म और न ही कोई रिवाज़। मन ही मन सोच रही सुरेखा यह कैसा विवाह हुआ भला?”

“विवाह के पहले दिन सासुमाँ बोली, राजेश किसी काम से गया है करके और रोज़ बेचारी राह देखे और राजेश रात को घर में रहता ही नहीं था। दिन भर अपने व्‍यवसाय में व्‍यस्‍त और रात में ऐसा, अब तो सुरेखा को नई ही तस्‍वीर देखने को मिली ससुराल में। और तो और उसका काम भी छुड़वा दिया। अब वह करे तो क्‍या करे, विवाह जैसे पवित्र बंधन में, जो दो दिलों के पवित्र रिश्‍तों के साथ ही दो परिवारों के मधुर रिश्‍तों को बनाए रखता है। सुरेखा के दुल्‍हन के रूप में देखे हुए सपने एक पल में धराशाई होते नज़र आने लगे।

“अब वह करे तो क्‍या करें? माता-पिता और दादी से भी बोल नहीं सकती थी। फिर उसने ठान लिया कि राजेश का राज जानकर ही रहेगी, आखिर उसने फिर शादी की ही क्‍यों मुझसे? इतने में क्‍या देखती है सुरेखा कि रात को 12 बजे राजेश शराब के नशे में धूत होकर किसी लड़की के साथ घर आया। अब तो सुरेखा के होश उड़ गए। राजेश भी सुरेखा को कुछ गलत बातें बोलने लगा। अब तो सुरेखा रोज़ ही इस तरह से जुल्‍म बर्दाश्‍त करने लगी। आखिर एक दिन सास-ससुर से हिम्‍मत करके पूछ ही लिया कि अपने अय्याश बेटे के साथ मेरी शादी क्‍यों रचाई? और इस पवित्र रिश्‍ते का महत्‍व नहीं समझा आप लोगों ने। आप लोगों को क्‍या लगा, शादी जो है गुड्डे-गुडि़यों का खेल या कोई हँसी-मजाक?”

“सास-ससुर बोले अरे बेटी सब्र रखो, थोड़े दिनों में सब ठीक हो जाएगा। हम थोड़े ही आए थे, यह रिश्‍ता लेकर, वो तो तुम्‍हारे पिताजी ने पूछा तो हमने हाँ कर दी और राजेश से भी नहीं पूछा इस रिश्‍ते के बारे में।”

“सुरेखा सिसक-सिसककर रोने लगी और बोली अरे माँजी ये तो सरासर धोखा है और आप लोगों ने पिताजी से जैसा चाहा वैसा ही विवाह संपन्‍न कराया उन्‍होंने, फिर आपको राजेश से पूछ लेना चाहिए था पहले। अभी भी आप अपने बेटे को कुछ भी समझा नहीं रहे हैं, आखिर आपको मेरी जिंदगी बरबाद करके क्‍या मिला?”

“फिर राजेश से बात की, तो वह बोला कि मैं तो ऐसे ही जिंदगी बसर करुँगा, कोई ज़ोर-जबरदस्‍ती है क्‍या? सुरेखा से कहा कि तुम्हें जो करना है वह कर लो, तुम मेरी तरफ से आज़ाद हो। वह तो अच्‍छा हुआ था कि सुरेखा ने अपना काम पूरी तरह से बंद नहीं किया था। सो अपने साथियों संग पुन: काम शुरू कर दिया ताकि मन लगा रहे और माता-पिता को अभी कुछ भी नहीं बताया। उसने सोचा कि शायद कोई राह निकल आए और थोड़ा समय भी लिया सोच-विचार करने के लिए। पर जब एक दिन सारी हदें पार कर दी राजेश ने तो इसने अपना ससुराल छोड़कर हमारी समाज-सेवी संस्‍था में शरण ली। माता-पिता के पास नहीं गई, बहुत नाराज़ थी उनसे और फिर वे उसकी बात सुनते नहीं, क्‍योंकि पहले भी नहीं सुनी। इस तरह से विश्‍वास टूटता है रिश्‍तों में, जो सबको बनाए रखना अनिवार्य है।”

“समाज-सेवी संस्‍था ने उसको राजेश से तलाक लेने संबंधी सहायता प्रदान की और सारी औपचारिकताएँ पूर्ण करते हुए सुरेखा के माता-पिता को भी बुलाया। वस्तु-स्थिति से अवगत कराया और कहा देखिए व सोचिए, आज आपने बेटी सुरेखा का भविष्‍य संवारा है या बिगाड़ा है। उसकी शादी का फैसला बिना सोचे-समझे और सुरेखा से बिना कुछ पुछे किये जाने का अंजाम देख लिया आप लोगों ने। अब आपसे विनती कर रहे हैं कि उसकी जिंदगी उसे स्‍वतंत्र जीने दीजिये और शादी जैसे पवित्र रिश्‍तें में बांधने से पहले उसे विचार तो करने दीजिये।”

“इसलिए अजय और मनिषा तुम्‍हें यह कहानी सुनना जरूरी थी। मैं चाहती हूं कि तुम भी अब 12वीं कक्षा में आ गई हो तो ऐसे ही जिंदगी के उतार-चढ़ावों की कहानी से तुम भी कुछ सिखोगी ही न? आखिर मैं भी एक माँ हूँ और तुम मेरे और अजय के रिश्‍ते को बचपन से देख रही हो बेटी, साथ ही हमारी संस्‍कृति निभाना भी नितांत आवश्‍यक है।”

“इसलिये अजय वर्तमान में फिर से जो सुरेखा फैसला लेने जा रही है,अपनी जिंदगी का, मुझे लगता है कि युवा पीढ़ी के हिसाब से सही निर्णय हो भी सकता है। पर अपने माता-पिता और सुषमा के साथ अच्‍छी तरह से विचार-विमर्श कर ही लेना चाहिए। साथ ही लिव-इन रिलेशनशिप के नियमों को विस्‍तृत जानने के पश्‍चात ही वह कोई निर्णय ले। ताकि पूर्व की तरह बाद में पछताना न पड़ें।”

“हाँ भाई आभा तुम बिल्कुल सही फरमा रही हो, आखिर तुम समाज-सेवी संस्‍था से जुड़ने के पश्‍चात काफी जागरूक जो हो गई हो।”

यह सब सुनकर मनिषा बोली, “माँ तुम्‍हारी मिशन सक्‍सेसफुल रही है और मैं अब समझ गई हूँ। भविष्‍य में आपसे यह वादा करती हूँ कि शादी जैसे पवित्र रिश्‍ते के संबंध में आप दोनों की सहमति से ही राजी-खुशी कोई भी निर्णय लूँगी।”

मूल चित्र : Pexels

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