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अगर बात शादी की बात की जाए तो, उन्हें अपने संस्कारों का ज्ञान हो ना हो, पर दुल्हन 'संस्कारी दुल्हन' ही चाहिए, जो उनके हर पहलू का 'ध्यान रखेगी'....
अगर बात शादी की बात की जाए तो, उन्हें अपने संस्कारों का ज्ञान हो ना हो, पर दुल्हन ‘संस्कारी दुल्हन’ ही चाहिए, जो उनके हर पहलू का ‘ध्यान रखेगी’….
अनुवाद : इमरान खान
वर्तमान भारत में शिक्षा की स्तिथि तो सुधर रही है, लेकिन ज़्यादातर लोगों के दिमाग अभी भी अनपढ़ और पिछड़े हुए हैं। अगर बात शादी की बात की जाए तो आज भी हर किसी को ‘एक संस्कारी दुल्हन’ की तलाश है, जो हर पहलू का ‘ध्यान रखेगी’ चाहे वह वह ऐसा करना चाहती हो या नहीं, उसको अपने पति और उसके के परिवार को खुश रखना तो आना ही चाहिए।
अगर हम आजकल की बात करें तो, देख सकते हैं इन लोगों की संख्या असाधारण दर से बढ़ गयी है कि मुझे चिंता है कि यह बाकी आबादी को पछाड़ देगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे अभी भी रूढ़िवादी घिसी-पिटी सोच के एक सरल नियम का पालन करते हैं और वर्तमान भारत में पितृसत्तात्मक वातावरण का समर्थन कर के उसका विस्तार करते हैं और दूसरों पर मनमाने ढंग से हावी होने की कोशिश करते हैं।
कन्फ्यूज़ हो गए?
मैं उन लोगों की बात कर रही हूं जिनके पास अपनी शिक्षा को प्रमाणित करने के सर्टिफिकेट तो हैं मगर असल में वे अभी भी अनपढ़ ही हैं।
समाज में ऐसे लोगों की कुछ विशेषताएं हैं जो निम्लिखित हैं –
यह समाज एक लड़की को किसी के लिए एक कुर्सी खींचने पर या किसी भी तरह की सेवा करने पर ही उसको पूर्ण शिष्ट समझता है, लेकिन उसकी छोटी पोशाक के लिए उसकी निंदा करता है।
(भारतीय संस्कृति के खिलाफ यह पहला सबक है जिसके बारे में उन्हें सिखाया जाता है )
उन्हें अपना पसंदीदा गर्मागर्म भोजन सही तापमान और सही अनुपात में मिलना चाहिए और यदि नहीं मिलता तो वे एक क्षण बर्बाद किए बिना महिलाओं से मौखिक दुर्व्यवहार करने करने लगते हैं और उन्हें अपशब्द बोलते हैं।
(महिलाओं को सर्वोत्तम संभव तरीके से खाना बनाना आना चाहिए। इसके पीछे ये सोच है कि एक पुरुष बाहर जाकर अधिक मेहनत करता है और महिलाएं घर में आराम ही करती हैं, इसलिए उन्हें कम से कम इतना तो करना ही चाहिए।)
वैसे तो वे एक महत्वाकांक्षी जीवनसाथी चाहते हैं लेकिन साथ ही ये भी चाहते हैं कि घर, बच्चे, माता-पिता, सबका ख्याल उनकी बीवी ही रखे और वह घरेलू कार्य में भी निपुण हो। लेकिन उसके ऑफिस के काम को कोई प्राथमिकता नहीं देता। लोग ऐसा इसलिए करते हैं क्यूंकि इससे उनके रूढ़िवादी व्यक्तित्व के आधार को ठेस पहुंचती है और उनकी मर्दानगी पर सवाल उठाया जाने लगता है।
(अब इसमें क्या गलत है? पुरुषों की मर्दानगी भी बचानी है और रुढ़िवादी परंपरा को भी सुरक्षित रखना है तो ऐसा करना ही पड़ेगा। महिलाओं को तप इन सारी बातों को झेलना ही चाहिए और इस बात के विरोध में कोई शिकायत नहीं करनी चाहिए।)
माता-पिता दोनों की ज़िम्मेदारी को पूरी तरह से माताओं पर थोपा जाता है, यहाँ तक कि अगर बच्चे की पढ़ाई में काम अंक या उसका किसी के प्रति अभद्र व्यवहार भी देखने को मिलता है तो इसके लिए बच्चे की माँ को ही जिम्मेवार समझा जाता है।
(यह तो कुछ भी आश्चर्य की बात नहीं है! यह सब वही तो है जो कि वे अनगिनत पीढ़ियों से देखते हुए आ रहे हैं और महिलाएं झेलती हुई। यह स्पष्ट रूप से उनकी गलती नहीं है, यह तो पुरानी प्रथा है और सदियों से चली आ रही है )
अधिकतर पुरुष जातिवाद या वित्तीय स्थिति के आधार पर कमज़ोर पक्ष, यानी कि महिलाओं, के ऊपर चीखना चिल्लाना और उनकी आवाज़ को दबाने का और उनका शोषण करना उनका एक अधिकार बन गया है, जिसको रोकने के लिए अब कोई भी आगे नहीं आता।
(इसके बाद केवल एक चीज है जो उन्हें अब तक सिखाई गई है, सबसे श्रेष्ठ कार्य पैसा कमाना ही है। पैसे कमाने का ज्ञान होना ही केवल पुरुषत्व के लिए आवश्यक है अन्यथा सारी ज़िम्मेदारी महिलाओं के लिए निर्धारित कर दी जाती है।)
स्पष्ट रूप से, वे जानते हैं कि दूसरों पर कैसे हावी होना है और उन्हें कैसे दबाना है। जैसे परजीवी अपने यजमानों से कैसे चिपके रहते हैं और उसमें से पोषण को चूसते हैं, बिल्कुल वैसे ही ये लोग आपका आत्मविश्वास चूसते हैं, और आपकी अखंडता को तोड़ते हैं, आपको छोटा महसूस कराते हैं, आपको भावनात्मक रूप से विचलित करते हैं और आपको डराकर छोड़ देते हैं और इसलिए आप चुप हो जाते हैं।
किसने कहा कि शिक्षा विनम्रता सिखाती है? यह कमजोर और अपरिपक्वता का मात्र लक्षण है! धैर्य, स्नेह और ईमानदारी इतनी पुरानी हो गई है कि वे अब अस्तित्व के लिए जरूरी नहीं रहीं।
भारत में, शिक्षा मुख्य रूप से दो लक्ष्य रखती है – रोजगार और विवाह। कोई भी शिक्षा का मूल सार नहीं प्राप्त करना चाहता है और ना प्राप्त कर पाया। सबको बस डिग्री लेने या किसी अच्छी नौकरी के लिए पढ़ना अच्छा लगता है और उनको आवश्यकता भी बस इतनी है के शिक्षा आपको पैसा कमाने के योग्य बनाती है। इस कारण उनके पास शिक्षा पूर्ण करने के कागजात तो हैं, परंतु उनका दिमाग और आत्मा अभी भी अनपढ़ हैं।
ये सीखें कभी भी अपने आप पर केंद्रित नहीं होती हैं, यहां सम्पूर्ण विश्व एक दूसरे से प्रभावित होता है।
हमें हमेशा अपने आस-पास की बाहरी समस्याओं के बारे में शिक्षित किया जाता है और उनसे कैसे निपटना है, यह समझाया जाता है, लेकिन कभी भी आत्मनिरीक्षण करने और समस्या के मूल को देखने के लिए नहीं कहा जाता है। कभी भी शांत मन से शरीर की अंदरूनी शक्ति को संतुलित करना नहीं सिखाया जाता है। नतीजतन, वे कभी भी समकालीन में नहीं होते। हम अपनी बाहरी रूपरेखा को दिनों दिन निखार रहे हैं और अंदरूनी शक्ति और अपने दिमाग और अपनी सोच को और पीछे की और धकेल रहे हैं।
अब, यह और भी बुरा है। मनुष्य को सबसे चतुर और सबसे विकसित प्रजाति कहा जाता है। मुख्य कारणों में से एक है उनकी अत्यधिक उच्च मस्तिष्क क्षमता और यहां हम एक ऐसे मोड़ पर हैं जहां एक आम सहमति के साथ, हमने इसकी पूरी क्षमता का उपयोग करना बंद कर दिया है। हम दिमागी तौर पर हक़ीक़त में कमज़ोर हो चले हैं।
समय की आवश्यकता है कि आप अपने स्वयं के नज़रिये से से दुनिया को देखें, ना कि दूसरे आपको क्या दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। ज्ञान को अपने विचारों और कल्पनाओं में बहने दें, इसे पक्षपाती चश्मे को हटाने दें और समानता के साथ सभी को देखें। सहानुभूति को आप पर हावी होने दें और वास्तव में दूसरों के लिए मानवीय बनें। जीवन में उतार चढ़ाव आते हैं और इंसान गलतियों से ही सीखता है। अपनी कमियों को स्वीकार करना सीखें, थोड़ा समझदार बनना और छोटी छोटी समस्याओं से ऊपर उठना सीखें। समानता का ऐसा वातावरण निर्धारित करें, जिससे आपकी कई पुश्तों को लाभ मिले।
मूल चित्र : Pexel
An online Biology tutor, a die hard music lover, an avid book reader, raw writer, coffee addict, yoga enthusiast, messy but organized, loner but social. read more...
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