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बड़ी संख्या में, दलित महिलाओं का भारत में हर दिन उत्पीड़न, अपहरण, बलात्कार और नृशंस हत्या की जाती है फिर भी, हम उनकी कहानियों को नहीं सुनते हैं।
भारत में जातिवाद कई सदियों से मौजूद है। भारत में जाति व्यवस्था के विभिन्न स्तरों को एक पिरामिड के रूप में समझा जा सकता है, जिसके शीर्ष पर आप ब्राह्मण हैं, जो पुजारी और विद्वान हैं, धर्म के द्वारपाल। इसके बाद क्षत्रिय, शासक, योद्धा, लोगों के संरक्षक हैं। इसके बाद वैश्य व्यापारियों और कृषकों के श्रमिक वर्ग हैं, शूद्र मजदूर हैं और वहीं दलित सिस्टम के निचले हिस्से में हैं और उन्हें लेबर की सफाई और सड़कों पर झाड़ू लगाने जैसे श्रमसाध्य और काम के काम सौंपे जाते हैं।
अगर हम बात करें दलित आंदोलन का उद्देश्य पहले ब्राह्मणवाद, पूंजीवाद और पितृसत्ता से लड़ना था। हमारा आंदोलन अब शहरी समस्याओं से जुड़ा हुआ है और इस तरह खुद को रोजगार और आरक्षण तक सीमित कर रहा है। ऐसा दृष्टिकोण केवल एक व्यक्ति को सशक्त बना सकता है, लेकिन यह इस देश के बड़े लोगों को लाभ नहीं पहुंचा सकता है। इसलिए हमारे आइकनों द्वारा प्रचारित आदर्शों को ध्यान में रखते हुए दलित आंदोलन के लक्ष्यों और उद्देश्यों को फिर से परिभाषित करने का आग्रह है।
समाज में सबसे पहले दलित आदिवासी आंदोलन की शुरुआत करने वाले दो साथी सावित्रीबाई फुले और ज्योतिराव थे, जिनको लगता था कि पूरा भारत ब्राह्मणवाद से पीड़ित है। उन्होंने शिक्षा के द्वारा इस प्रथा को समाप्त करने के लिए अपनी कमर कस ली और अपने कार्य को पूरी लगन से करने लगे।
महिलाओं, दलितों, आदिवासियों और अन्य हाशिए के समुदायों को शिक्षित करने की कोशिश करने के लिए, उन दोनों ने हिंदू धर्मग्रंथों के खिलाफ जाकर धार्मिक स्वीकृत की सामाजिक व्यवस्था को तोड़ना पड़ा। उनके इस काम से आहत हो कर उनको घर से निकाल दिया गया। सावित्री बाई की ख़ास सहेली मुस्लिम महिला फातिमा शेख थीं, जिन्होंने उन्हें शरण दी। उन दोनों ने अपने विचार फ़ातिमा से साझा किए और उसके बाद उन्होंने अपने घर में स्कूल खोलने की अनुमति दे दी।
सावित्रीबाई, फातिमा और ज्योतिराव ने पहली बार एक स्कूल की शुरुआत की, जिसने महिलाओं, आदिवासियों, शूद्रों और दलितों को अपनी तह में जाने का मौका दिया। यह संपूर्ण समस्या का हल तो नहीं साबित हो पाया मगर यह इतिहास में दलित और आदिवासी महिलाओं के उद्धार के लिए एक बहुत बड़ा मील का पत्थर साबित हुआ।
वर्तमान समय में भारत की स्तिथि दयनीय है महिलाएं आमतौर पर इन अत्याचारों की मुख्य शिकार होती हैं क्योंकि वे सबसे आसान लक्ष्य हैं। बड़ी संख्या में, दलित महिलाओं का भारत में हर दिन उत्पीड़न, अपहरण, बलात्कार और नृशंस हत्या की जाती है फिर भी, हम उनकी कहानियों को नहीं सुनते हैं। और उनके मुद्दों को उसी तरह का कवरेज नहीं मिलता है जैसा कि उच्च-जातियों के अन्य पीड़ितों को मिलता है।
दलित और आदिवासी महिलाएं अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रही हैं, प्रकृति के लिए संघर्ष कर रही हैं – क्या वे केवल अपने लिए संघर्ष कर रही हैं? वे अपनी जान और परिवारों को जोखिम में क्यों डाल रही हैं? क्या वे एक बेहतर समाज बनाने के लिए आंदोलनों का नेतृत्व नहीं कर रहे हैं? यदि वे भूमि के लिए लड़ रहे हैं, तो यह उनके लिए नहीं है, बल्कि ब्रह्मांड के लिए है। वे जैव विविधता का भाग हैं, वे प्रकृति के रक्षक हैं, वे इसे भविष्य की पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखना चाहते हैं, वे अमीरों के धन में हिस्सा नहीं मांग रहे हैं। आज भी, मैं दोहराता हूं, आज भी वे जीवित रहने के लिए न्यूनतम बुनियादी जरूरतों के लिए दर दर भटकते हैं और उन्हें न्याय नहीं मिलता। आज़ादी के 72 साल इस देश में उनके लिए स्वास्थ्य, शिक्षा और बुनियादी सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने में विफल रहे, जो एक सघन चिंता का विषय बना हुआ है।
आज के भारत में हमको अपने विचार व्यक्त करने के लिए और अपनी आवाज़ को दिशा देने के लिए हमको सम्मेलन करने चाहिए, एकजुट होना चाहिए और निम्न तथ्यों को ध्यान में रखकर समाधान को ढूंढना चाहिए।
उन संसाधनों को साझा किया जाना चाहिए जिनके रूप में आदिवासी दलित महिलाओं के लिए संसाधन आधार को बढ़ावा मिले:
समूह चर्चा पर निम्न विषय जैसे मुद्दों को उठाया जाना चाहिए
हमारे राज नेताओं को एक मसौदा तैयार करना चाहिए, जिसके फलस्वरूप निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखने की आवश्यकता है
मेरा मानना है इस युग में न तो हमें सावित्री बाई फुले या ज्योतिराव और ना ही फ़ातिमा सना शेख़ मिलने वाली हैं। मगर हम उनसे सीख तो ले सकते हैं। जिन्होंने उस समय समाज से उन्होंने बग़ावत की और सफल भी हुए। उनकी बातों से सबक लेते हुए शायद सौभाग्य से हमको दोबारा कोई सावित्री, ज्योतिराव और फ़ातिमा मिल जाएं, जो समाज के हर तबके के लोगों को एक मानें और शिक्षा को अपना हथियार बना कर रखें।
एक सफल क्रांति के लिए सिर्फ असंतोष का होना पर्याप्त नहीं है, जिसकी आवश्यकता है, वो है न्याय एवं राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों में गहरी आस्था – डॉ बी आर अंबेडकर
मूल चित्र : Canva
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