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अगर पुरुष अपनी मर्ज़ी से घर के काम करना चाहे और महिला अपनी मर्ज़ी से अपने परिवार के लिए कमाना चाहे, तो इसमें समाज को परेशानी क्यों होनी चाहिए?
समाज में समानता और असमानता का जो मिश्रण है वह समाज के द्वारा ही पनपा है। लोगों ने स्त्री पुरुष के कार्य को, उनकी प्राथमिकता को, एक घेरे से बाँध दिया है। यह एक निरर्थक आधार है, जो समाज को और अधिक प्रदूषित कर रहा है। सारा का सारा खेल यहाँ पुरुषवाद और पितृसत्ता पर ही टिका हुआ है। यह वास्तव में महिलाओं की प्रतिभा के दुश्मन हैं।
आज कल की ज़िंदगी इतनी व्यस्त हो गई है। सभी लोग व्यस्त रहते हैं और घर की ज़िम्मेदारी औरतों को दी जाती है और बाहर की पुरुषों को, चाहे वह चाहे या न चाहे।
महिलाएं घर के काम में खुद को न देखना चाहें और पुरूष बाहर नहीं जाना चाहे, फिर भी उनको अपनी ख़्वाहिशों का क़त्ल करना होता है। यह एक सोच बना ली है समाज ने के पुरुष घर का काम नहीं कर सकते और महिलाएं बाहर का नहीं। अजीब विडंबना है।
पुरूष अगर घर में रह कर काम करना चाहे और घर सम्भालना चाहे तो क्या वह कर सकता है ऐसा? कर तो सकता है मगर उसको इस बात के ज़रिए क्या क्या सुनने को मिलेगा समाज से, वह बेहद अश्लील और सुनने योग्य नहीं होता।
“जोरू का गुलाम!”
“बीवी की कमाई खाता है, नामर्द!”
“कामचोर है तभी घर में पड़ा रहता है!”
“आदत पड़ गई होगी बैठ कर खाने की!”
“थू है औरत की कमाई खाता है!”
ऐसे ही न जाने कितने संवाद से गुज़रता होगा घर पर रहकर काम करने वाला पुरुष। उसकी अपनी प्राथमिकता है और अपने उसूल हैं, वह कुछ भी करे, यह उसका अधिकार है न कि समाज का।
हमने किसी संविधान या नियम की किताबों में यह नहीं पढ़ा के महिला और पुरुष के काम को बांट दिया गया है और अब वह लोग इसी के अंतर्गत काम करेंगे। असमानता के ठेकेदारों सुनो! महिला जो करना चाहेगी वह करेगी, और बहुत जल्दी यह आंकड़ा बता देगा के महिलाओं ने ख़ुद के लिए जीना और उड़ना सीख लिया है।
वहीं अगर कामकाजी महिला है तो उसके चरित्र का जिम्मा समाज में बैठे पाखण्डी कर देते हैं। अगर वह बाहर काम कर रही है तो वह चरित्रहीन है। और आज कल तो चलन चल पड़ा है, महिलाओं के चरित्र को लोगों ने भागों में बांट दिया है, अगर टीचर है तो चलो अच्छे चरित्र की होगी, और अगर रिसेप्शन पर काम करने वाली है या किसी संस्था में कम औरतें हों और ज़्यादा सारे पुरुष तो उन महिलाओं को वह गंदी गाली के रूप में पेश करते हैं।
पुरुष अगर घर पर बैठ कर रहना चाहे तो वह उसको भी नहीं बख्शते, वह भी नामर्द, कामचोर और तो और ना जाने क्या क्या बोल दिया जाता है कि यह तो अपनी बेटी तक को बेच देगा आदि। वाह रे समाज! घिनौने उनके काम नहीं तुम्हारी सोच है।
आज कल वैसे भी बेरोज़गारी अपने पंख पसार कर फ़ैली है। यदि महिला अगर अपनी प्रतिभा और अपने कौशल के कारण कहीं काम करने की इछुक है तो उसे जाने दिया जाना चाहिए। कई बार देखने में आया है कि पुरुष को कोई अच्छा अनुभव नहीं है, पूरा परिवार गरीबी की मार झेल रहा है और घर में पत्नी है जो सिलाई कढ़ाई जानती है, इस कार्य में वह कुशल है, पर फिर भी वह बाहर कार्य नहीं कर सकती। यहाँ तक कि वह घर में रहकर भी कार्य नहीं कर सकती पैसों के लिए। एक बार को पति तो मान भी जाए मगर यह समाज मानने को तैयार ही नहीं। अरे! जब दोनों में से कोई एक किसी काम का महारथी है तो उसको वह काम करने दिया जाए। इससे गरीबी भी दूर होगी। परिवार भी सुखी से जीवन व्यतीत कर सकता है।
समाज को एक संदेश है, अपनी सोच बदलो अपने दिमाग को परिष्कृत करो। प्राकृतिक ने जब किसी कार्य को करने में नर और मादा का पक्षपात नहीं किया तो आप लोग क्यों करते हैं? जिस पुरुष का घर उसकी पत्नी द्वारा चल रहा है उसमें हर्ज ही क्या है? ना चाहते हुए भी पुरूष को आग में झोंकने की क्या ज़रूरत? सोच को बदल डालो। कई पुरुष हैं जिनको बाहर जाकर काम करना नहीं पसंद वह घर पर रह कर ही बहुत कुछ कर सकते हैं, तो उनको कामचोर, नामर्द, बीवी की कमाई खाने वाला आदि, क्यों कहा जाए? सबको समानता के अधिकार को पढ़ना चाहिए और उस पर अमल करना चाहिए। कोई भी काम कोई भी कर सकता है।
मूल चित्र : Canva
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