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इन सब का आधारिक पात्र हैऔरत ! इसके समावेश में ही कोई पुत्र बनता है तो कोई पिता, कोई पति बनता है तो कोई भाई, एक सशक्त पात्र है यह सम्पूर्ण विश्व का...
इन सब का आधारिक पात्र हैऔरत ! इसके समावेश में ही कोई पुत्र बनता है तो कोई पिता, कोई पति बनता है तो कोई भाई, एक सशक्त पात्र है यह सम्पूर्ण विश्व का…
समाज में एक औरत कितने ही पात्र से होकर होकर गुजरती है, गिरती है उठती है, संघर्ष करती है, और आख़िरी में अपने दम पर खड़ी भी हो जाती है।
इस कर्मठ और संघर्षशील जीवन व्यतीत करने वाली को हम औरत बोलते हैं, औरत के जीवन की शुरुआत बेटीसे करते हैं, सबसे पहले वह एक बेटी होती है और उसी समय उसका विकास होता है।
बेटी हूँ, तनुजा हूँ, तनया भी, नंदिनी भी छुपकुंगी, निकलूंगी, चली जाऊंगी एक दिन।
बहन एक ऐसा शब्द है, जिसको सुन कर सबसे पहले जो शब्द ख़्याल में आता है वह है दोस्त का। कई बार हम अपने माता पिता से वह बात नहीं कर पाते जो हमारे दिल में होती है, मगर हमारे पास अगर बहन है तो हमारे पास समझिए बहुत कुछ है।
भगिनी हूँ, बहना हूँ, अनुजा हूँ,सहोदरा भी, तैरूँगी,फिसलूंगी,जी जाऊंगी एक दिन।
बहन और बेटी के बाद जो अन्य पात्र है, जिसमें संघर्ष है और कई बार दर्द भी। वह है पत्नी का। पत्नी के लिए या किसी भी लड़की के लिए आसान नहीं के वह किसी अंजान घर में आकर अपने आप को एक ही दिन में अपने ससुराल वालों के रंग में खुद को ढाल ले।उसको वही माहौल चाहिए होता है जो वह पीछे छोड़कर आई है।
पत्नी हूँ, तिरिया हूँ, भामा हूँ, भामिनि भी, रूठूँगी, बिलखुंगी, संवर जाऊंगी एक दिन।
फिर माँ, को कौन भूल सकता है? यह वह किरदार है जो खुद का न सोच कर दूसरों का सोचता है, और निस्वार्थ भावना से लबरेज़। माँ की ममता के आगे मेरी नज़र में कोई से भी एहसास नहीं ठहरता। माँ कभी लड़ती है तो पुचकारती भी है, और गले से भी लगाती है।
माता हूँ, जननी हूँ, अंबा हूँ, अम्बिका भी, सिसकुंगी, झिड़कूँगी, बदल जाऊंगी एक दिन
इन सब का आधारिक पात्र है औरत इसके समावेश में ही कोई पुत्र बनता है तो कोई पिता, कोई पति बनता है तो कोई भाई, एक सशक्त पात्र है यह सम्पूर्ण विश्व का। यह चलते चलते थकती है, गिरती है और फिर चलती है और अंत में आखिरकार संभल जाती है।
औरत हूँ,गृहणी हूँ,रमणी हूँ, वनिता भी। टुटूंगी, बिखरूँगी, संभल जाऊंगी एक दिन।
मूल चित्र : Pexels
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