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बेंगलुरु की बेम्बला फाउंडेशन, असहाय और हिंसा से प्रभावित महिलाओं और बच्चों के लिए एक सकारात्मक वातावरण वाला स्वतंत्र और गोपनीय स्वयंसेवक सहायता केंद्र है।
बेंगलुरु की बेम्बला फाउंडेशन व्हाइटफील्ड नामक लोकैलिटी की एक बड़ी पहल है। यहाँ पर कार्य करने वाले कार्यकर्ता किसी न किसी काम से जुड़े हैं, फिर भी अपना समय निकाल कर यहाँ पर अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।
आजकल विश्व भर में फैली महामारी COVID-19 से हर कोई परेशान है, मगर जो संस्थायें घरेलू हिंसा पर कार्य कर रही हैं, यह समय उनके लिए चुनौतीपूर्ण है और अत्यधिक मुश्किल भरा भी। लेकिन हम हर कार्यकर्ता के चेहरे पर देख सकते हैं कि उनको आशा है और अपने कार्य पर अटूट विश्वास।
बेंगलुरु की बेम्बला फाउंडेशन की ऐसी ही एक कार्यकर्ता से आज हमारा साक्षात्कार हुआ और हमने उनकी आवाज़ सब तक पहुंचाने का निर्णय लिया।
सबसे पहले उन्होंने हमको बेम्बला का अर्थ समझाया, जो वाकई में अत्यंत सार्थक है। बेम्बला एक कन्नड़ा शब्द है, जिसका अर्थ है ‘सहारा’ (सपोर्ट)। रीढ़ की हड्डी से जो हमारे शरीर को सहारा मिलता है उसको बेम्बला कहते हैं और बिना रीढ़ की हड्डी के हमारा शरीर निर्रथक है।
प्राथमिक तौर पर बेंगलुरु की बेम्बला फाउंडेशन एक सपोर्ट सिस्टम है, जो उन औरतों और बच्चों के लिए जो घरेलू हिंसा से प्रताड़ित होकर आहत होते हैं। कार्यकर्ता बताती हैं, “समाज में एक ऐसी संस्था होनी चाहिए जो ऐसे हिंसा ग्रस्त लोगों की मदद करने को आगे आए। हमारी एक ख़ूबी यह भी है कि हम यह सब निःशुल्क करते हैं और हम लोगों की जो भी पीड़ित हमारे पास आता है उसकी पहचान को गोपनीय रखते हैं। हम यहां पर 30-32 कार्यकर्ता हैं और लगभग सब पहले यहां के कार्यकर्ता हैं और उसके बाद जो भी उनका प्रोफेशन है, वह उसके तरीके से काम करते हैं। हमारे यहाँ बहुत से कॉउंसेलर हैं। यह एक मिशन है, समाज को हिंसा मुक्त कराने का, जिसमें सबसे पहले पीड़ित महिलाओं और बच्चों को भावनात्मक तौर पर मज़बूत किया जाता है।”
बेंगलुरु की बेम्बला फाउंडेशन के विषय में वह बताती हैं, “बेम्बला व्हाइटफील्ड में चलाया जा रहा है। व्हाइटफील्ड एक जगह का नाम है जो बैंगलोर में स्थित है। लगभग 7-8 साल पहले कुछ लोग यहाँ काम के सिलसिले में रहने आए, वह भारतीय तो हैं, साथ के साथ उन सब ने मिलकर एक मिशन शुरू करने की बात सोची और कई सारी समस्याओं को लेकर एक ग्रुप का निर्माण हुआ जिसका नाम पड़ा व्हाइटफील्ड राइज़िंग। इस ग्रुप का मकसद यही था कि हम कब तक बैठ कर सरकार की सहायता का इंतज़ार करेंगे, या उनसे कोई उम्मीद लगाकर बैठे रहेंगे, ऐसे तो कुछ भी नहीं बदलेगा।
व्हाइटफील्ड राइज़िंग तकरीबन समाज में अपनी जगह बनाने में सफल साबित हुआ और धीरे-धीरे लोग यहां आने लगे। फिर महिलाएं भी आने लगीं और उन्होंने शिकायत की कि हमारे पति द्वारा हम घर में प्रताड़ित हो रहे हैं। वह महिलाएं ख़ासतौर पर घरेलू हिंसा का शिकार थीं।
उसके बाद इन के सदस्यों की सोच में केवल पुलिस के पास जाने का विकल्प था, इसके अलावा उन्होंने कुछ आगे का नहीं सोचा मगर जब मामले बढ़ने लगे और महिलायें अपनी समस्या लेकर आने लगीं तो ग्रुप के सदस्यों ने वर्ष 2018 मार्च में एक मीटिंग रखी जिसका शीर्षक था BREAK THE SILENCE/ब्रेक द साइलेंस अर्थात अपनी चुप्पी और ख़ामोशी को तोड़िये। उस कॉन्फ्रेंस में निश्चय किया गया कि ऐसी संस्था का निर्माण किया जाना चाहिए जहाँ महिलाओं और बच्चों, जो हिंसा से पीड़ित हैं, उनको सम्भाला जा सके, उनकी सहायता की जा सके। जुलाई 2018 में ग्रुप की स्थापना हुई और उस पर रिसर्च करने की शुरआत की गई। आखिरकार 2019 जनवरी में बेम्बला की शुरुआत की गई। वैदेही हॉस्पिटल के प्रसूति विभाग के एक हिस्से में बेम्बला कई शुरुआत हुई।
कार्यकर्ता ने बताया, “बोल सखी एक ऐसी मुहिम है कि इस हिंसा को कैसे रोका जा सकता है? ऐसी हिंसा नहीं होनी चाहिए, उसको रोका जाना चाहिए। समाज में कई प्रकार के शोषण होते हैं जैसे शारीरिक शोषण, भावनात्मक शोषण और भी कई प्रकार के शोषण होते हैं। जिसका मुख्य कारण है पितृसत्ता, हमारा समाज पितृसत्ता के लिए अत्यधिक मज़बूत है।”
आगे वह अपने अनुभव साझा करती हैं और कहती हैं, “हमारे पास एक औरत आई और बोली मेरे पति ने मुझे शारीरिक प्रताड़ित किया मुझे मारा। और कई औरतें ऐसी आईं जिन्होंने कहा, हमारे पति ने हमको इसलिए मारा क्योंकि खाना ठंडा हो गया था। मेरे कहने का बस एक ही उद्देश्य है कि जागरूकता बहुत ज़रूरी है और बोल सखी का एक रुख़ यह भी रहा।
हमनें औरतों को बताया के आपके अधिकार क्या हैं? आप भारतीय न्याय के तहत किन किन अधिकारों की हक़दार हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि महिलाएं पिटती हैं और बोलती हैं, कोई बात नहीं यह सब तो मेरी माँ के साथ भी हुआ तो मेरे साथ भी हो रहा है। तो यह जो बोल सखी का कांसेप्ट था, इसका आधार यही था कि हम लोगों के बीच जाएं और उनको बताएं कि भारतीय नियमनक मुताबिक आपके बहुत सारे अधिकार हैं।
हमारा यह उद्देश्य बिल्कुल नहीं रहा के हम उनका घर उजाड़ना चाह रहे हैं। नहीं! हम बस उनको उनके अधिकार से अवगत करवाना चाहते हैं। पिछले साल हमने बोल सखी के 8 कार्यक्रम किए और 2 जागरूकता अभियान भी चलाये। कुल 10 सेशन एक वर्ष में हुए। जिनमें निचले सफाई कर्मचारी, माली, आदि लोगों को बुला कर संबोधित किया गया।इस तरह हमने 400 लोगों तक अपनी बातें पहुंचाईं।
इस विषय में उन्होंने विशेष जानकारी से अवगत करवाया। उन्होंने कहा “सबसे पहले मैं शारीरिक प्रताड़ना को इंगित करूंगी। पति अक्सर पत्नियों को थप्पड़ मार देते हैं, बाल खींच लेते हैं, और लात मार देते हैं।
भावनात्मक शोषण – अक्सर लोग महिलाओं को भावनात्मक तौर पर टार्चर करते हैं उन्हें गालियां बकते हैं। उनको मोटी, काली बोलते हैं, इन बातों से महिलाओं की भावना आहत होती है। हमने हमेशा से एक बात पर गौर किया है कि शारीरिक प्रताड़ना के साथ साथ भावनात्मक शोषण ज़रूर होता है।
यौन शोषण – रेप हो गया या छेड़खानी हो गई यह तो अपराध है ही और साथ के साथ अगर आप शादीशुदा है और अपनी पत्नी से ज़बरदस्ती शारीरिक सम्बन्ध बना रहे हैं तो यह भी एक यौन शोषण हो होता है।इसके परे अगर आपका पति जान-बूझ कर आपके शारीरिक संतुष्टि नहीं दे रहा और आपकी ज़रूरत को पूरा नहीं कर रहा तो यह भी एक यौन शोषण के तहत ही आता है।
साइबर क्राइम – एक महिला को गलत मेल्स आती हैं, और इस तरह से कई बार उनके सिस्टम या मोबाइल को हैक कर के उनकी तस्वीरों का गलत इस्तेमाल करते हैं यह साइबर क्राइम का ही एक रूप है। जिससे महिला पर शोषण होता है और वह इससे प्रभावित होती हैं।”
यह वास्तव में चुनौतीपूर्ण कार्य था। उन्होंने बताया, “हमारे पास एक केस आया, एक पति-पत्नी का, जो बंगलौर के रहने वाले नहीं थे। वह दोनों किसी दूसरे राज्य से थे। उनकी दो संतान थीं। आपस में पति-पत्नी की बिल्कुल भी नहीं बनती थी और तकरार होती रहती थी। महिला अपने बच्चों को लेकर बैंगलोर आ गई और यहीं रहने लगी।”
“कुछ समय बाद पति से बात हुई और दोनों की सुलह हो गई और दोनों बैंगलोर में साथ में ही रहने लगे। कुछ दिनों बाद जब महिला अपने काम पर गई तो पति पीछे से बच्चों को गायब कर अपने साथ ले गया। यह बहुत ही हृदयविदारक बात थी। पूरे डेढ़ साल बाद वह औरत हमारे सम्पर्क में आई। डेढ़ साल से उसने अपने बच्चों की आवाज़ तक को नहीं सुना था और न यह पता था के वह कहाँ हैं? जीवित हैं भी या नहीं?
मगर ममता तो ममता होती है। उसकी बेबस ममता उसको बेम्बला तक खींच लाई। यह एक चुनौतीपूर्ण कार्य था कि उसके बच्चों को कैसे ढूंढा जाए, क्योंकि उसके अंदर एक डर की भावना थी और हमारी प्राथमिकता थी कि उसको हम उस भय से कैसे निकालें जो वह महसूस कर रही थी। हमने सबसे पहले उसके साथ कॉउंसलिंग सेशन शुरू किए, जो वास्तव में बहुत प्रभवशाली रहा।
उस महिला को हमने कॉउंसलिंग सेवा दी, जिससे वह उस भय से निकल पाई और उसने अपने आत्मविश्वास को उजागर किया। इसके बाद हमारे लिए दूसरी चुनौती थी बच्चे को ढूंढना और उससे उनका संपर्क करवाना। हमने पुलिस और वकीलों की मदद लेनी शुरू की। आर्थिक तौर पर भी हमको कहीं से कुछ नहीं मिलता और न ही हमें मिला। हमारे लिए वह तीन हफ्ते, बहुत मुश्किल से गुजरे। उस माँ की आँखों के आँसू हमसे देखे नहीं जाते थे। उसकी ममता रोज़ चीख मारकर रोया करती थी और हम सब हताश से हो कर रह जाते।
कोशिश करते-करते हमको एक दिन एक का पता मिला जिन्होंने हमारी मदद करने के लिए अपने क़दम आगे बढ़ाए। हम पहले यही सोचते रहे के इसकी सहायता और इस समस्या का हल कैसे निकाला जाए? 15 दिनों के बाद उसके पति का उसके पास, पूरे डेढ़ साल बाद, फोन आया और उसने अपने पति से इस तरह से बात की कि वह बच्चों से बात करवाने पर राजी हो गया और माँ और बच्चों की लगातार बात होती रही। यह बात हमारे लिए बहुत खुशी वाली और कामयाबी वाली साबित हुई। कॉउंसलिंग के सेशन उसके लिए मील का पत्थर साबित हुए।”
बेंगलुरु की बेम्बला फाउंडेशन लोगों की सहायता करती है मगर यह रेसिडेंशियल नहीं है। मगर इसके अलावा यहाँ हर तरह से पीड़ित लोगों की मदद की जाती है।
“यह एक कॉउंसलिंग के सेंटर के तरीके से काम करता है। हमारी विशेषता यह है कि हम एक दोस्त और साथी की भांति काम करते हैं। साथ के साथ जो भी कार्यकर्ता हमारे पास आता है, उसके लिए हम 5 दिन का ट्रेनिग प्रोग्राम आयोजन करते हैं और सभी अपना रोल बखूबी निभाते हैं। हम लोगों के साथ जब तक जुड़े रहते हैं जब तक वो चाहते हैं और उनको जितनी भी ज़रूरत होती है, पुलिस की वकील की या चिकित्सक सलाह की, हम उनके साथ ही जाते हैं। ये सब करवाने का काम भी बेंगलुरु की बेम्बला फाउंडेशन द्वारा किया जाता है।
कई औरतें ऐसी होती हैं जिनको सिर्फ भावनात्मक साथ की ज़रूरत होती है, तो हम उनके साथ भी कॉउंसलिंग सेशन सत्र करते हैं। हमने फिलहाल फैमिली मेडिएशन भी शुरू किया है।अब से पुलिस भी हमारे लिए सहायक सिद्ध हो रही है। अगर किसी पति-पत्नी का झगड़ा हुआ और वह पुलिस स्टेशन जाते हैं, तो पुलिस वाले उनको हमारे यहां रेफेर करते हैं। यह भी बड़ा कदम है।
आगे अगर कहीं से कोई ऐसी महिला आती है जिसको किसी सपोर्ट की ज़रूरत होती है और जिसके पास रहने के लिए जगह नहीं होती तो ऐसे में हम उनको शेल्टर होम के लिए रेफर करते हैं और उसके रहने का इंतज़ाम करते हैं। हमारे कई संस्थानों के साथ संपर्क हैं, जो हमारी मदद करते हैं। हमने पुलिस के साथ मिलकर भी एक जागरूक अभियान चलाया था जिसका नाम था Active Listening Skills/एक्टिव लिसनिंग स्किल्स”
“हिंसा तो सभी के साथ ही होती है पुरूष के साथ भी मगर वैश्विक तौर पर आँकड़े देखे जाएं तो हमको यही ज्ञात होता है कि इसमें महिलायें और बच्चों की संख्या बहुत अधिक है। इसकी भी सबसे बड़ी वजह यही है कि समाज पितृसत्ता के रंग में रंगा हुआ है। यह शक्ति के असंतुलन के कारण है। महिला और बच्चे संवेदनशील होते हैं और इन पर ज़्यादातर पुरूष अपनी शक्ति का गलत इस्तेमाल करते हैं।
दूसरी और जब हम विचार करते हैं कि इसको कैसे रोका जा सकता है तो इसका सीधा साधा एक संदेश है कि हमको जागरूकता फैलानी है। यह जागरूकता केवल महिलाओं के लिए ही नहीं बल्कि इसमें पुरुषों को भी साथ लेकर चलना होगा, जो आज के समाज के हिसाब से बहुत ज़रूरी है जिसके प्रति बेंगलुरु की बेम्बला फाउंडेशन काम कर रही है।
पुराने समय की बात करें तो देख सकते हैं की पहले महिलाएं घर का कार्यभार संभालती थी और पुरुष बाहर से काम कर के आते थे। मगर अब दौर बदल चुका है, दोनों बाहर जाकर काम करते हैं। और अभी भी ज़्यादातर पति यही सोचते हैं कि अब घर पहुंच कर हम आराम कर सकते हैं। महिलायें मशीन की तरह अपने ऑफिस से आकर, अकेले ही घर का कार्यभार सम्भालती हैं, जो अन्यायपूर्ण है। तो इसके लिए हमको जागरूकता अभियान चलाना होगा और इसमें पुरुषों की भागीदारी अवश्य ही होनी चाहिए। हमको समानता का संकल्प लेना होगा और यह ज़रूरी होगा के निम्नलिखित तथ्य एक परिवार में ज़रूर शामिल हों-
“कई सालों से मेरा यही सपना था के मैं समाज के लिए कुछ करूँ। मैं चाहती थी कि मैं कुछ सामाजिक कार्य कर सकूं और ख़ासकर औरतों और बच्चों के लिए। मैं 22 सालों से कॉउंसलिंग का काम कर रही हूँ। मैं अमेरिका में थी और वहाँ का अनुभव भी लेकर आई हूँ। उसके बाद मैं दुबई शिफ्ट हुई। वहाँ भी मैं लोगों की कॉउंसलिंग किया करती थी। सौभाग्यपूर्ण, मैं 2 साल पहले ही बेंगलुरु शिफ्ट हुई और 2 महीने के अंदर ही मैं बेम्बला फाउंडेशन की एक सदस्य बन गई।”
यह महज एक साक्षात्कार नहीं है, यह एक प्रेरणा है उन लोगों के लिए जो ज़िन्दगी में कुछ करना चाहते हैं। जीवन जीना तो कई लोगों के लिए आसान हो सकता है। मगर जिनसे हमने बात की और समझा के जीवन में ऐसे लोगों की दूसरों को कितनी ज़रूरत है।
समानता और एकल होने की हद यह है कि यह कार्यकर्ता अपना ना तो नाम छापने की अनुमति देती हैं और न ही अपनी कोई तस्वीर। एक महिला का यह भी रूप हो सकता है, हम समझ सकते हैं। महिलाएं वर्किंग हो या घरेलू दोनों के सामने चुनौतियों का पहाड़ रहता है।
हम शुक्रगुज़ार हैं बेंगलुरु की बेम्बला फाउंडेशन के और उन कार्यकर्ताओं के जो अपने जीवन में से समय निकाल कर सामाजिक सेवा में लगाते हैं।
(अगर आप बेंगलुरु में हैं और हिंसा से मुक्त होना चाहते हैं तो आप निःशुल्क बेम्बला फाउंडेशन की सेवा ले सकते हैं। आपके साथ ईमेल आईडी और फ़ोन नंबर साझा किया जा रहा है)
मूल चित्र : Canva
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