कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं? जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!
करो-ना क्रांति का बिगुल बज गया था, "अपने बेटों को हुक्म देने वाला नहीं, साथ देने वाला पुरुष बनाना होगा। समाज में सकारात्मक परिवर्तन के हम सभी पक्षधर हैं।"
करो-ना क्रांति का बिगुल बज गया था, “अपने बेटों को हुक्म देने वाला नहीं, साथ देने वाला पुरुष बनाना होगा। समाज में सकारात्मक परिवर्तन के हम सभी पक्षधर हैं।”
यूँ तो छुट्टी का दिन, पुरुष पूरा दिन आदेश देने में व्यतीत करते हैं और स्त्रियाँ उसे पूरा करने में। ईश्वर ने भी स्त्री और पुरुष की रचना करते समय अंतर किया था। सारी पीड़ा तो स्त्री के हिस्सें मे डाल दी और पुरुष को दे दिया कठोर संवेदनहीन दिल। स्त्रियाँ तो १५ अगस्त १९४७ के पूर्व भी पराधीन थी, और आज भी हैं। हालाँकि स्त्रियाँ भी अपनी इस दशा के लिए कम उत्तरदायी नहीं हैं, पराधीनता को अपनी नियति मान स्वीकार भी तो उन्होंने ही किया है।
“भाभी हल्वे में चीनी कितनी डालूँ?” विराज के तेज़ी से दोड़ते सोच के घोड़ों को अदिति की आवाज़ के चाबुक ने लगाम लगा कर रोक दिया था।
ज़मीनी हकीकत जानते हुए भी, पता नहीं क्यों उसके मन के भीतर सोयी हुई लेखिका गाहे-बगाहे जाग उठती थी। आज भी जब कोरोना की वजह से दिल्ली में लॉकडाउन हुआ है, अमर की आदेशों की लिस्ट लंबी होती जा रही थी। घर के काम में उसकी सहायता के लिये आने वाली विमला को भी संक्रमण के खतरे की वजह से उसने छुट्टी दे दी थी। अब घर के सभी कामों की ज़िम्मेदारी विराज और उसकी ननद अदिति के ऊपर आ गयी थी। अदिति दिल्ली यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन कर रही थी। विराज का प्रयास था कि अदिति पर भी कम से कम काम का दबाव पड़े। इसलिये वो अधिकतर काम स्वयं ही निबटा ले रही थी।
उसके दोनों बच्चें १० साल की आन्या और १२ साल का मानव अपने कमरे में वीडियो गेम खेलने में व्यस्त थे। पति अमर अपने कमरे में अधलेटे हुए चाय की चुस्कियां ले रहे थें।
अचानक वहीं से चीख कर बोलें, “सुनो आज नेटफलिक्स पर एक नयी फिल्म आयी है। सब साथ ही देखेंगे।” फिर थोड़ा रुककर बोलें, “ये तुम्हारे बच्चे इतना शोर क्यों कर रहे हैं? देखो ज़रा!”
अन्य दिन तो वर्क फ्रॉम होम होता था तो फिर भी अमर समय पर नहा लिया करते थे। लेकिन आज शनिवार होने के कारण महाशय छुट्टी मोड में चले गये थे। बच्चों की तो खैर, छुट्टियाँ ही थी।
‘बाबू साहेब सुबह से लेटे-लेटे हुक्म दे रहे हैं। मैं घर के रोजमर्या के कार्यों के साथ बढ़े हुये कामों को भी निबटाने में लगी हूँ, यह नहीं दिख रहा है जनाब को। जब कुछ गलत करे तो बच्चें मेरे, परन्तु जब यही बच्चे कुछ अच्छा करते हैं, तो इनके हो जाते हैं।”
सोच तो इतना कुछ लिया विराज ने परन्तु प्रत्यक्ष में इतना भर कह पाई, “जी, बस अभी देखती हूँ।”
सभी काम निबटाने में बारह बज गये थे। पूरा परिवार फिल्म देखने बैठ गया। विराज ने सोचा थोड़ा सुस्ता ले, तभी अमर की आवाज कानों में पड़ी, “अरे विराज कहाँ हो भई?”
“थोड़ा थक गयी थी। सोचा लेट लेती हूँ!” विराज अनमनी सी हो गयी थी।
“अरे इतनी मुश्किल से तो फैमिली टाइम मिला है। उसमें भी इन्हें सोना है!”
अमर की बात सुनकर विराज को ऐसा मालूम हुआ जैसे गुस्से की एक लहर तनबदन में रेंग गयी हो। मन में आया कि कह दे, “फॅमिली टाइम या पैर फैलाकर ऑर्डर देने का टाइम।”
वैसे आम दिनों में भी अमर घर का कोई काम नहीं करते थे। लेकिन विमला और अदिति की सहायता से काम हो जाता था। फिर विराज को थोड़ा मी टाइम भी तो मिल जाया करता था। लेकिन अब तो विराज के पास दो घड़ी बैठकर चाय पीने का भी समय नहीं था।
“अरे कहाँ रह गयी?” अमर ने जब दुबारा बुलाया विराज को मन मारकर जाना ही पड़ा।
फिल्म वाकई में अच्छी थी। विराज को भी अच्छा लग रहा था कि पूरा परिवार एक साथ बैठा था। तभी अचानक अमर ने फरमान सुनाया, “विराज पकोड़े बना लो। फिल्म के साथ सभी को मजा आ जायेगा।”
“सभी को या तुम्हें!” विराज के इस अचानक पूछे गये प्रश्न पर अमर चौंक गया था। फिर थोड़ा गुस्से में बोला, “मैं तो सभी के लिये कह रहा था, तुम्हारा मन नहीं तो मत बनाओ।”
“मम्मी प्लीज!” अब तो बच्चे भी चिल्लाने लगे थे। विराज उठ कर रसोई में चली गयी।
थोड़ी देर बाद अदिति को वहाँ बैठी देखकर, अमर बोल पड़े थे, “अरे तुम कहाँ बैठ रही हो, अंदर रसोई में जाओ भाभी के साथ।”
अदिति के चेहरे पर एक पल की झेंप को पहचान लिया था विराज ने। दोनों की नज़रें मिली और हाले दिल बयां हो गया था। विराज ने इशारे से अदिति को अंदर बुला लिया था।
अंदर रसोई में भी कुर्सियां लगी हुई थीं। उनमें से एक पर अदिति को बैठने का इशारा करके विराज ने अपना सारा ध्यान गैस पर रखी हुई कढ़ाई पर लगा दिया था।
“कितनी गर्मी हैं आज!” अदिति ने बात शुरू करने के लिए यह जुमला कहा था शायद।
“हमम! चाहो तो वापस कमरे में जाकर बैठ जाओ, वहां तो ए सी लगा है।”
“नही-नहीं! मैं ठीक हूँ।”
“भाभी आपको क्या लगता है, यह लॉकडाउन कब तक रहेगा?” अदिति फिर बोली थी।
“देखो कब तक चलता है! बस देश में सब ठीक रहें!” विराज ने दार्शनिक के अंदाज़ में कहा।
“भाभी मुझे आपके साथ बातें करना बहुत पसंद है।” अदिति ने बात बदल दी थी।
“आजकल हमें समय भी बहुत मिल रहा है। तुम्हारे साथ कितनी विषयों पर बातें हो जाती हैं”, विराज ने उसकी बात का अनुमोदन किया था।
“आप तो मेरी प्यारी भाभी हैं!” अदिति ने पीछे से विराज को अपने अंक में भर कर कहा था।
“इसी बात पर मेरी तरफ से तुम्हें ट्रीट”, विराज ने मुस्कुराते हुए कहा।
“क्या मिलेगा ट्रीट में?” अदिति ने पूछा था।
“तुम पहले ये पकौड़े दे आओ। खाना तो तैयार ही है। तुम्हें अच्छी सी चाय पिलाती हूँ?”
“भाभी आप चाय लेकर बालकनी में चलो, मैं पकोड़े देकर आती हूँ।” अदिति ने बड़े प्यार से विराज को कहा था।
“लॉकडाउन में भी इन्हें पाँच दिन का काम और दो दिन की छुट्टी मिल रही है, परन्तु हमें कब मिलती है छुट्टी? यदि कुछ कहूँगी तो एक ही उत्तर मिलेगा, तुम तो सारा दिन घर में आराम ही करती हो। हमें तो बड़ी मुश्किल से छुट्टियाँ मिलती हैं। उस समय दिल करता है कि कह दूँ, यह आराम एक दिन के लिए तुम भी लेकर देखो।”
“तो कहती क्यों नहीं?”
विराज को पता ही नहीं चला था कि कब उसके मन की आवाज ज़ुबान से निकलने लगी थी। अदिति ने सब सुन लिया था। उसके प्रश्न का उत्तर सोचने में विराज को समय लगा। अदिति भी पास आकर बैठ गयी और अपना प्रश्न दोहरा दिया था। इस बार विराज बोली थी, “अब बात तो उनकी भी पूरी तरह से गलत नहीं है। ऑफिस में परेशानी तो कई तरह की होती ही हैं”, अब विराज का स्वर बदल गया था।
“पुरुषों से अपने कार्य के लिए सम्मान की अपेक्षा हम तभी कर सकते हैं, जब स्वयं हम अपने कार्य को सम्मानित महसूस करें”, अदिति की आँखों में चमक थी।
“हमारे कार्य का कोई आर्थिक महत्व नहीं हैं, सम्मान इस दुनिया में द्रव्य सम्बन्धी है”, विराज ने एक आह भरकर अपनी बात रखी थी।
“मैं ऐसा नहीं मानती। कामकाजी स्त्रियों को कौन सा सम्मान ज़्यादा मिल जाता है? घर आकर उन्हें भी चूल्हा-चौकी की इस आग में जलना ही पड़ता है। बाहर से थक कर दोनों ही आते हैं, परन्तु पुरुष के हिस्से आती है टीवी का रिमोट और सोफे का आराम। स्त्री के हिस्से आती है रसोई और बच्चों की पढ़ाई”, अदिति ने उसकी इस बात का खंडन किया था।
विराज उनकी बातों को अनमने भाव से सुन रही थी कि अनायास ही नीचे की फ्लैट से आ रही एक स्त्री की आवाज ने उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया था।
विराज उसे नहीं जानती थी। कभी मिलने का समय ही नहीं मिल पाया था। वो और उसके पति दोनों ही इंजीनियर थे। कभी-कभी बालकनी से उनके मध्य एक मुस्कान का आदान-प्रदान हो जाया करता था।
वो किसी से फोन पर बात कर रही थी, “मेरी राय में इसमें मर्दों से ज्यादा औरतों की गलती है। दोष पुरुष पर डाल कर औरत अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती। बचपन से मर्द को यह बताया जाता है कि तेरे सारे काम करने के लिए घर में एक स्त्री है। उसकी परवरिश ही ऐसी होती है कि वो स्वभाववश ही आराम पसंद हो जाता है। कभी माँ, कभी बहन, कभी बीवी बन कर हम औरतें ही उन्हें आलसी बना देती हैं। अब जब मर्द को यह पता हो कि घर में औरत हैं उसका काम करने को तो फिर वो क्यों अपने शरीर को कष्ट देगा? आराम किसे बुरा लगता है? इसलिए वो तो काम नहीं करेगा, तुझे काम करवाना पड़ेगा। उसे समझाने से पहले तुझे खुद समझना होगा कि तू भी इन्सान है और तुझे भी आराम की उतनी ही ज़रुरत है। तुझे क्या लगता हैं रवि हमेशा से घर के काम में मेरी मदद करता था! नहीं, उसे खाना बनाना मैंने सिखाया है। अब देख मुझे से भी अच्छी खीर बनाता है। चल अब फ़ोन रखती हूँ, रवि बुला रहा है।”
फ़ोन रख कर न मालूम किस भावना के वशीभूत होकर उसने ऊपर देखा। वहाँ दो जोड़ी आँखों को अपनी ओर घूरता पाया। उन आँखों में इर्ष्या और सम्मान का भाव एक साथ मौजूद था। इर्ष्या इसलिए कि जो बात वे अभी तक सोच भी नहीं पाई थीं, उसे वो इतने अच्छे से समझ गयी थी। सम्मान इसलिए कि न केवल समझी थी अपितु अपने जीवन में सकारात्मक परिवर्तन भी ले आई थी।
उन दोनों की खामोशी ने एक दूसरे से संवाद कर लिया, और एक छोटी सी चिंगारी उसकी आँखों से विराज की आँखों में प्रवेश कर गयी थी। बिना किसी शोर के एक मूक क्रांति का जन्म हुआ था।
वो अंदर चली गयी थी। अदिति और विराज दोनों चुप थे।
“मध्यम वर्ग की सोच में बदलाव एक क्रांति ही ला सकती है”, अदिति ने चुप्पी तोड़ी थी।
“तब तक?” विराज ने प्रश्न ऐसे पूछा था जैसे उत्तर उसे पहले से पता हो।
“जो जैसे चल रहा है, वैसे ही चलता रहेगा”, अदिति जैसे स्वयं को समझा रही थी।
उसकी बात सुनकर विराज एक मुस्कान के साथ बोली, “बात किसी वर्ग की नहीं है। बात सिर्फ इतनी है कि जो तू कहती है, बात सही लगती है; पर वो मेरे नहीं तेरे होठों पर सजती है।”
“आप कहना क्या चाहती हैं?” अदिति के स्वर में उत्सुकता थी.
“समाज में सकारात्मक परिवर्तन के हम सभी पक्षधर हैं। परन्तु पहला कदम उठाने से डरते हैं। बदलाव केवल क्रांति ही ला सकती हैं, यह एक भ्रान्ति है। आत्मविश्वास के साथ बढ़े हुए छोटे-छोटे कदम भी परिवर्तन ला सकते हैं।”
“जैसे कि?” अदिति को विराज की बातों ने जैसे सम्मोहित कर लिया था।
“बच्चों को खाने के लिए बुला लेते हैं”, विराज ने अनायास ही बातों का रुख बदल दिया।
दोनों ही वर्तमान में लौट आये थे।
“हाँ, मैं आन्या को बुला लाती हूँ। खाना लगाने में मदद कर देगी।”
“क्यों?” विराज ने अदिति की तरफ बिना देखे पूछ लिया था।
अदिति के चेहरे पर प्रश्न था।
“मानव क्या करेगा? पुरुष होने की उत्कृष्टता का लाभ लेगा! बदलाव अपनी परवरिश में लाना होगा। अपने बेटों को हुक्म देने वाला नहीं, साथ देने वाला पुरुष बनाना होगा और अपनी बेटियों को गलत का विरोध करना सिखाना होगा। तुम समझ रही हो ना?”
विराज के इन शब्दों ने जैसे अदिति पर जादू कर दिया था। पहला कदम लेना उतना मुश्किल भी नहीं था।
“भाभी, मैं अभी मानव और आन्या को बुला कर लाती हूँ। आज उन्हें मेज़ पर खाना लगाना सिखाते हैं”, लगभग उछलती हुई अदिति अंदर की तरफ चली गयी थी।
कुछ सोचकर विराज भी उस तरफ चल दी थी, आखिर बड़े बच्चे को भी तो उसका नया पाठ समझाना था।
जब विराज बैठक में पहुंची तो अमर किसी से फोन पर बात कर रहे थे। टीवी बंद था। बच्चे भी अपने कमरे में जा चुके थे। अमर की स्त्री स्वतंत्रता और सशक्तिकरण पर चर्चा अभी-अभी समाप्त हुई थी। पुरुष बॉस और स्त्री बॉस में कौन ज्यादा प्रभावी होता हैं; इस प्रिय विषय पर वाद-विवाद कई घंटों तक चला था। स्त्रियों की मानसिक क्षमता का भी आंकलन हो चुका था। अभी शेरों-शायरी का दौर जारी था और श्रीमान अमर जी एक शेर सुना रहे थे ….“एक उम्र गुजार दी तेरे शहर में, अजनबी हम आज भी हैं, तेरी ख्वाहिशों के नीचे, मेरे दम तोड़तें ख्वाब आज भी हैं….”
अमर ने अपनी पंक्तियाँ अभी समाप्त ही की थी कि विराज ने उन्ही पंक्तियों के साथ अपने शब्द जोड़ दिए थे,“तेरे दर्वाज़ाऐ क़ल्ब पर दस्तक देते मेरे हाँथों को देखा हैं कभी, तेरी गर्म रोटी की चाह में झुलसे मेरे हाथ तब भी थे और आज भी हैं …”
अमर चौंक कर पलट गये थे। अपने स्वप्न में भी विराज से इस तरह के व्यवहार की उम्मीद उन्होंने नहीं की थी। उन्होंने कंधे उचका कर विराज से कारण पूछा।
बेपरवाह विराज ने उनके कान पर से फोन हटाया और कॉल काट दी। कमरे में तूफान के बाद वाली शांति पसर गयी थी।
अपनी दम्भी आवाज़ में अमर ने पूछा था, “यह क्या हो रहा है विराज?”
“कुछ नहीं! इस कोरोना फीवर ने मुझे दो बातें समझा दी हैं।”
“अच्छा ! जरा मैं भी तो सुनूँ कौन-कौन सी!” अमर के स्वर में तल्खी थी।
विराज सामने पड़े सोफ़े पर आराम से बैठकर बोली, “पहली तो ये कि सही शिक्षा किसी भी उम्र में दी जा सकती है; मात्र एक मंत्र पढ़ना है, तुम भी करो ना। दूसरी, फॅमिली टाइम घर की स्त्रियों के लिये भी होता है। घर सभी का, तो घर के काम मात्र स्त्री के क्यों! मुसीबत तो सब पर आयी है, तो उसका सामना भी तो सबको मिलकर ही करना होगा।”
इतना कहकर विराज ने पलट कर पीछे देखा। आन्या और अदिति मेज पर खाना लगा रहे थें और मानव ग्लासों में पानी भर रहा था। अमर की नजर भी विराज की नजर का पीछा करते हुये उधर ही चली गयी थी।
“सुनो!” विराज की आवाज पर अमर ने उसकी तरफ देखा।
“खाना तैयार हैं, मेज़ पर लगा दिया है। अदिति अपना और मेरा खाना यही ले आयेगी।”
अमर चुपचाप अंदर की तरफ जाने लगा था कि विराज ने फिर पुकारा, “सुनो! बड़े बर्तन तो मैंने धो दिये थे। अपने और बच्चों के बर्तन धोकर अलमारी में रख देना।”
इतना कहकर बिना अमर की तरफ देखे, विराज टीवी खोलकर अपना धारावाहिक देखने में तल्लीन हो गयी थी। घर में ‘करो-ना क्रांति’ का बिगुल बज चुका था।
टीवी से आवाज़ आ रही थी-
राजकुमार कुछ देर तक राजकुमारी के विचार परिवर्तन की राह देखता रहा। वह उनके कोमल ह्रदय को लेकर विश्वस्त था। परन्तु राजकुमारी की अनभिज्ञता उसे व्यग्र कर रही थी। उसकी निर्निमेष दृष्टि से अविचलित राजकुमारी अपनी सखियों के साथ आखेट में व्यस्त थी। राजकुमारी की ना को हाँ में बदलने का दम्भ जो उसने अपने मित्रों के सामने भरा था, वह दम तोड़ रहा था। थके क़दमों से वह आगे बढ़ गया था। इस परिवर्तन को उसने अनमने भाव से स्वीकार कर लिया था। अपनी गले में लटकती माला से खेलती हुयी राजकुमारी भी जानती थी कि यह पहला सबक था, पूरी शिक्षा अभी शेष थी।
मूल चित्र : YouTube
read more...
Please enter your email address