कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं? जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!
आज स्कूलों द्वारा बच्चों से जुड़े रहने हेतु उन्हें ऑनलाइन एजुकेशन और होम स्कूलिंग दी जा रही है, तो फिर ये स्कूल जाने के ताम-झाम क्या वाकई इतने ही जरूरी हैं?
आज जिस प्रकार स्कूलों द्वारा बच्चों से जुड़े रहने हेतु उन्हें ऑनलाइन एजुकेशन और होम स्कूलिंग दी जा रही है, वह कहीं व कहीं यह भी सोचने पर मजबूर करती है कि जब एजुकेशन यूं भी बच्चों पर बिना मानसिक दबाव बनाए चल सकती है तो फिर ये तामझाम क्या वाकई इतने ही जरूरी हैं क्या?
क्या इस लॉकडाऊन में माता-पिता ऑनलाइन एजुकेशन और होम स्कूलिंग के कांसेप्ट को भी समझ कर हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में अंतर कर पाऐंगें ?
आज पता नहीं क्यों मुझे शिक्षा की वर्तमान हालत को देखकर गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर की एक कहानी याद आ रही है जिसका शीर्षक है तोता।
कहानी का सारांश कुछ इस तरह है। एक राजा के बगीचे में कहीं से एक तोता आ गया, जो उछलता, कूदता, मस्ती में गीत गाता रहता। एक दिन यूं ही मस्ती में उसने कई फल भी कुतर दिए, राजा ने मंत्री से कहा इसे शिक्षा दो ताकि कुछ सभ्यता सीखे। तोते को पढ़ाने की व्यवस्था शुरू हुई। तमाम पंडित बुलाए गए, सबने पोथियाँ लिखनी शुरू कर दीं। लाखों करोड़ों पोथियाँ लिखी गयीं। पण्डितों को खूब धन बंटा। पोथियों की कापियाँ (नकलें) तैयार करने के लिए हजारों कर्मचारी नियुक्त किए गए। धन से सबके घर भरने लगे। राज्य के तमाम मंत्रियों, राजा के रिश्तेदारों के महल खड़े हो गए। बीच में राजा पूछते तो बताया जाता तोता पढ़ रहा है।
समय बीतता रहा। एक दिन राजा तोते की पढ़ाई का हाल लेने गया। तोते का पिंजरा पोथियों, कलमों, तख्तियों से भरा पड़ा था। यहाँ तक कि तोते के मुँह में भी किताबों के पन्ने और पेंसिलें ठुंसी थीं, और तोता बेचारा पिंजरे में बेसुध और लाचार पड़ा था।
गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने यह कहानी बहुत पहले लिखी थी। उस समय उन्होंने भी शायद सोचा नहीं होगा कि उनकी कहानी का सच भविष्य में प्रत्यक्ष रूप से हमारी शिक्षा व्यवस्था में दिखाई पड़ेगा।
आजकल एक से बढ़ कर एक बड़े-बड़े 5 स्टार लग्ज़री स्कूल खुलते जा रहे हैं, जिनकी फीस तो भारी भरकम है ही परंतु साथ में है ऐडमिशन की कठिन कसौटी, जिसमें तमाम तरह के बेसिर पैर के प्रश्नों की लंबी चौड़ी लिस्ट, अभिभावकों के होश उडा़ दे रही है। जिस पर जैसे-तैसे एक बार अपने बच्चों का दाखिला करवा कर अभिभावक एक ओर जहां खुद को भाग्यशाली समझने लगते हैं वहीं बस कुछ दिनों बाद ही उन्हें लगने लगता है कि बच्चे का वो अपेक्षित विकास नहीं हो पा रहा, जिसकी चाहत में उन्होंने वहां एडमिशन कराया था।
इधर बात करते हैं आक्शायिनी की जो अभी 8 साल की है। वह अपने परिवार के साथ दिल्ली में रहती है। आक्शायिनी कत्थक डांस बहुत बढ़िया करती है और बड़ी होकर एक मशहूर कथक डांसर बनना चाहती है। घर के पास ही एक अच्छे डांस स्कूल में वह रोजाना दो घंटे डांस सीखती है, दूसरे बच्चों के साथ खेलती है और कई तरह की क्रिएटिव एक्टिविटीज़ भी करती है। फिर भी उसका रुटीन दूसरे बच्चों से अलग है, क्योंकि वह स्कूल नहीं जाती। वह घर पर रहकर ही पढ़ाई करती है।
पहले वह स्कूल जाती थी, लेकिन ऐडमिशन के कुछ ही महीनों में उनके पेरेंट्स को समझ आ गया कि आक्शायिनी की रुचि किताबों से ज्यादा डांस में है। स्कूल के प्रेशर को न झेल पाने की वजह से आक्शायिनी बार-बार बीमार पड़ने लगी तो पैरंट्स ने उसकी होम स्कूलिंग कराने का फैसला किया। अब आक्शायिनी बहुत खुश है और उसके पैरंट्स भी। जी हां होम स्कूलिंग!
बेशक होम स्कूलिंग ट्रडिशनल स्कूल के एक बेहतर विकल्प के तौर पर उभरा है और धीरे-धीरे अपनी जगह भी बना रहा है। विदेशों में पॉप्युलर यह ट्रेंड अब धीरे -धीरे पूरे भारत में अपनी जगह बनाने लगा है। होम स्कूलिंग 20वीं सदी के आखिर में शुरू हुई, जब एक मशहूर लेखक और एजुकेशनिस्ट जॉन हॉल्ट ने स्कूलिंग के तरीकों पर सवाल उठाना शुरू किया। उनका मानना था कि सही विकास के लिए यह जरूरी है कि बच्चों को कब, क्या, किससे और कैसे पढ़ना है, यह तय करने का हक उन्हें ही मिले।
मेरा मानना है कि स्कूलों के 8 घंटे के बोरिंग टाइम टेबल के चलते अब लगता है कि क्या एक जैसा टाइम टेबल विभिन्न प्रकार के मैंटल लेवल और इंट्रेस्ट रखने वाले बच्चों के लिए उपयोगी सिद्ध हो पा रहा है? टीचर, काउंसलर शशी चौधरी का कहना है कि हर बच्चा अपने आप में खास होता है और उसकी ज़रूरतें भी खास होती हैं। 40-50 बच्चों की क्लास को एक टीचर जो पढ़ाता है, वह काफी जनरल किस्म का होता है। टीचर हर बच्चे को उसकी जरूरत के मुताबिक उसे नहीं पढ़ा सकते।
हर बच्चे की दिलचस्पी, समझ और चीजों को सीखने की क्षमता अलग होती है, लेकिन टीचर उन्हें एक जैसा ही पढ़ाते हैं। वैसे भी बच्चों में चीजों को जानने-सीखने की एक पैदाइशी ललक होती है, लेकिन स्कूल इसे पूरा नहीं कर पाते। स्कूल बच्चों को पढ़ाने के लिए एक ही तय तरीका अपनाते हैं, जो सारे बच्चों को एक जैसा सोचने-समझने लायक बनाते हैं। शिक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि बच्चे के सही विकास के लिए एक ऐसा रास्ता होना चाहिए, जो उनका खुद का बनाया हो। दूसरे के बनाए रास्तों को फॉलो करने पर वे नया कुछ नहीं कर पाएंगे। तो क्या घर ही है सबसे पहला और सबसे बड़ा स्कूल! जी हां!
याद है महात्मा गांधी ने भी एक बार कहा था कि एक सभ्य घर से बड़ा कोई स्कूल नहीं होता और सदाचारी माता-पिता से बड़ा कोई टीचर नहीं होता। मार्क ट्वेन जैसे मशहूर लेखक ने लिखा कि मैंने कभी भी स्कूल को अपने और एजुकेशन के बीच में नहीं आने दिया। यानिएजुकेशन के लिए स्कूल जाया ही जाए, यह ज़रूरी नहीं है। हां, डिग्री हासिल करने के लिए ज़रूर स्कूल की जरूरत होती है।
कई पेरेंट्स का मानना है कि होम स्कूलिंग में बच्चों को बेहतर तरीके से फलने-फूलने का मौका मिलता है। लीना कंसल ने बताया कि मेरा बेटा स्कूल गया, लेकिन उसे म्यूजिक, आर्ट, क्राफ्ट आदि में ज्यादा दिलचस्पी थी और इस सबके लिए टाइम ही नहीं मिल रहा था। अब वह घर पर ही पढ़ाई करता है। मैं उसके लिए सीबीएसई करिकुलम के मुताबिक सभी किताबें ले आई। मैंने उसके लिए एक टाईम-टेबल बना रखा है, जिसे वह नियमित रूप से फॉलो करता है। इससे उसके पास अपने पैशन के लिए भी टाइम होता है। वैसे भी किताबों से अलग ज्ञान हासिल करने में क्या बुराई है?
इसमें कोई संदेह नही कि फॉर्मल स्कूलिंग की एक सीमा होती है, मशहूर साइंटिस्ट आइंस्टाइन का मानना था कि ज्यादातर आम स्कूल बच्चों को दूसरों के अधीन काम करने के लिए तैयार करते हैं, जबकि बच्चे हों या बड़े, हम सभी उस चीज के बारे में जानना चाहते हैं जो हमें दिलचस्प लगती है। पहले हम उसका अनुभव करते हैं, उसकी जानकारी लेते हैं और फिर उसे और एक्सप्लोर करते हैं। यही तरीका पढ़ाई का भी होना चाहिए। दिमाग में पहले से तैयार जानकारी को भरने से कुछ खास भला नहीं होता। किसी बच्चे को लगातार 8 घंटे तक पढ़ाना कुछ वैसा ही है, जैसे पहले से खाए खाने को पचाने और दोबारा भूख लगने का वक्त दिए बिना फिर से खाना ठूंसते जाना। इसके अलावा, एग्जाम की टेंशन और पियर प्रेशर भी बच्चों का अच्छा खासा नुकसान करता है। इन सबके बीच बच्चे की क्रिएटिविटी कहीं न कहीं दब कर रह जाती है।
एजुकेशनिस्ट पवन कुमार इससे अलग राय रखते हैं। उनका कहना है कि बच्चे के पूरे विकास के लिए फॉर्मल (स्कूल), अन-फॉर्मल (मीडिया व दोस्तों से) और नॉन-फॉर्मल (डिस्टेंस लर्निंस से) एजुकेशन जरूरी है। स्कूल बच्चे को हुनर, आपसी रिश्ते, सही बर्ताव की समझ और फिजिकल फिटनेस को एक साथ सिखाते हैं। अगर होम स्कूलिंग कराना ही चाहते हैं तो बच्चे को स्किल सेंटर, फिजिकल फिटनेस सेंटर में एडमिशन कराना चाहिए। होम स्कूलिंग, फॉर्मल स्कूलिंग की पूरक हो सकती है, पूरी एजुकेशन नहीं।
अमेरिका में रहने वाली मेरी कज़न साशी ने बताया, ‘अमेरिका में होम स्कूलिंग काफी चलन में है। हमें अपने बच्चे के लिए भी यही सिस्टम ठीक लगा।’ जब उनसे पूछा कि आगे जाकर बच्चा क्या करेगा तो वह बोलीं, ‘ बड़ा होकर चाहे तो वह स्कूल में बड़ी क्लास में या फिर किसी प्रफेशनल कोर्स में दाखिला ले सकता है। नैशनल ओपन स्कूल के जरिए ऐसा मुमकिन है। हालांकि आगे क्या होगा इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन हमें उम्मीद है कि वह एक ऐसे इंसान के रूप में बड़ा होगा, जिसे अपनी, अपने समाज और अपनी धरती की परवाह होगी। फिलहाल वह रोजाना तय टाइम पर खेलता है, विडियो देखकर कुछ नया सीखता है, खेत में काम करता है और खुश रहता है।’
शायद हर अभिभावक की अपने बच्चे से अपेक्षा रहती भी है। अलग सोच, बेहतर नतीजे, फेसबुक पेज ह्यूमन्स ऑफ बॉम्बे के हवाले से अंगद के बारे में जानकारी मिलती है। इस पर डाले गए पोस्ट में बताया गया है कि अंगद ने स्कूल जाना इसलिए छोड़ दिया, क्योंकि उन्हें जीवन की पाठशाला से सीखने में ज्यादा मजा आता है।
अंगद ने फेसबुक पोस्ट में लिखा, ‘मैं जब 9वीं कक्षा में था, तो मैंने स्कूल को गुडबाय कर दिया, क्योंकि मैं बार-बार पुराने कॉन्सेप्ट्स को बिल्कुल सीखना नहीं चाहता था। स्कूली शिक्षा में बच्चे नए आइडियाज़ नहीं लाते और किताबों से थिअरीज़ याद करते हैं… सिर्फ बाद में भूल जाने के लिए। जब मैं 10 साल का था तो मैं अपने पिता के पास गया और कहा कि मैं हॉवरक्राफ्ट बनाना चाहता हूं। मेरे आइडिया का मजाक उड़ाने की जगह पापा ने मुझे आगे बढ़ने को कहा। अब 16 साल की उम्र में अंगद दो कंपनियां चला रहे हैं, जो क्यूरिअसिटी और इनोवेशन को बढ़ावा देने वाले प्रॉडक्ट्स तैयार करती हैं।
बेंगलुरू में ला विज्डम स्कूल चलाने वाले जस आहूजा का कहना है कि 25 साल पहले मेरी होम स्कूलिंग हुई थी। आहूजा की फैमिली उस वक्त आगरा में थी और उन्हें स्कूल न भेजने की वजह उनकी खराब सेहत थी। जस ने बाद में सीधे दसवीं के लिए स्कूल में एडमिशन लिया और फिर आईआईटी से भी पढ़ाई की। विदेशों में पॉप्लयुलर हमारे देश में होम स्कूलिंग बेशक बहुत चलन में नहीं है, लेकिन कई देश ऐसे हैं, जहां यह काफी पॉपुलर है। ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, न्यूजीलैंड, इटली, यूके और अमेरिका ऐसे ही कुछ नाम हैं। अमेरिका में तो करीब 25 लाख स्टूडेंट्स घर पर ही रहकर पढ़ाई करते हैं। हालांकि जर्मनी, ब्राजील, टर्की, ग्रीस, कजाकिस्तान जैसे देश भी हैं, जहां होम स्कूलिंग पर कानूनी तौर पर पाबंदी है। कुछ देश ऐसे भी हैं, जहां कानूनन पाबंदी नहीं है, लेकिन सामाजिक तौर पर स्वीकृति नहीं है या फिर वहां लोगों को इसकी जरूरत नहीं लगती। हमारे देश में भी स्थिति कमोबेश यही है। हमारे कानून के मुताबिक, बच्चे को स्कूल भेजना पैरंट्स की जिम्मेदारी है, लेकिन अगर वे ऐसा नहीं करें तो किसी सजा का प्रावधान भी नहीं है।
अब ये हम पर निर्भर करता है कि हम इन सब चुनौतियों का सामना कैसे करते हैं। ऩिसंदेह अगर दृढ़ इच्छा शक्ति हो तो कुछ भी असंभव नहीं। तो क्यों न मिलजुल कर कुछ ऐसे ही नए रास्तों की तलाश की जाए जिन पर चलकर हमारे ये नन्हे पंछी बिना किसी अवरोध के उन्मुक्त आकाश में ऊंची उड़ान भरने को तैयार हो सकें।
हाँ, शायद ऑनलाइन एजुकेशन के साथ होम स्कूलिंग एक अच्छा विकल्प साबित हो सकता है!
मूल चित्र : Canva
read more...
Please enter your email address