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कैसे इन पीरियड्स ने मुझे, एक लड़के को, पितृसत्तात्मक बना दिया…

मेरे पास पीरियड्स से जुड़ा वो अनुभव है, जिसने पहली बार मुझे यह बताया कि मैं समाज के उस वर्ग का हिस्सा हूँ जिसे पुरुष वर्ग कहा जाता है और वह सब से बेहतर है।

मेरे पास पीरियड्स से जुड़ा वो अनुभव है, जिसने पहली बार मुझे यह बताया कि मैं समाज के उस वर्ग का हिस्सा हूँ जिसे पुरुष वर्ग कहा जाता है और वह सब से बेहतर है।

ज़ाहिर सी बात है कि एक लड़का होने के नाते मेरे पास पीरियड्स से जुड़े वह अनुभव नहीं होगे जो एक लड़की के पहले पीरियड्स से होते होंगे।

मेरे पास नारी शरीर से जुड़े, उस दौर के मानसिक या सामाजिक अनुभव तो नहीं हैं। मेरे पास वह अनुभव ज़रूर है जिसने पहली बार मुझे यह बताया कि मैं समाज के उस वर्ग का हिस्सा हूँ जिसे वर्गीय विभाजन के आधार पर पुरुष वर्ग कहा जाता है और वह सबों से बेहतर है।

दूसरे शब्दों में, पीरियड्स से जुड़े अनुभवों ने मुझे पितृसत्तामक बनाया।

जब मेरे साथ की लड़कियों के पीरियड्स शुरू हुए

इस अनुभव से मेरे पहला तारुफ तब हुआ, जब मेरे बचपन की एक महिला मित्र का पीरियड शुरू हुआ। पहले मैं बचपन के दोस्तों के सर्किल में अकेला पड़ गया।

पहली मित्र ने मेरे साथ खेलना बंद कर दिया और दूसरी ने अपने घर वालों के कहने पर मुझसे दूरी बनानी शुरू कर दी। मेरा बाल मन अचानक से इस बदलाव का कारण समझ नहीं पाया कि आखिर क्या हुआ न ही किसी ने मुझे समझाया।

मैं पहले अपने घर में कैद हुआ बाल पत्रिकाएं और इन्डोर गेम्स से मेरा परिचय हुआ जैसे लूडो, शतंरज, व्यापारी और क्वीज़ जैसे खेल। पीरियड्स ही इन सबों का मूल कारण है, यह किसी ने मुझे नहीं समझाया।

समझ नहीं पाया कि आखिर क्या हुआ, न ही किसी ने मुझे समझाया

मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि मैं अब तक खेले जाने वाले खेलों से अचानक वंचित क्यों कर दिया गया? कित-कित और डेगा-पानी जैसे खेलों से ही नही, मेरे महिला साथियों से भी मुझे क्यों वंचित कर दिया गया? मैं मन ही मन में अपने बचपन के महिला साथियों को लेकर कुढ़ता रहा।

अब उन लड़कियों के साथ तो खेला ही नहीं जा सकता था

जब मौजूद इंडोर गेम्स में सुस्त और बोझिल होने लगा और घर से चुरा-छुपाकर मैं दूसरे बच्चों के साथ कंचे खेलने या पंतग लूटने या गुल्ली डंडा खेलने के लिए भागने लगा। तब इससे मुझे बचाने के लिए भाई साहब की साईकिल थमा दी गई, जिसका जोश कुछ ही दिनों में फीका पड़ गया और मैं पुन: कंचे, पतंग और गुल्ली डंडा के पीछे भागने लगा। तब मेरी संगत बिगड़ जाने के डर से मुझे उन खेलों से मुझसे बड़े भाई साहबों से परिचय कराया जो घरों के छतों या गली-मोहल्ले में नहीं खेला जा सकता था और लड़कियों के साथ तो खैर खेला ही नहीं जा सकता था।

मुझे एहसास कराया गया कि लड़कों और लड़कियों के खेल अलग होते हैं

मुझे मैदान जाने की छूट मिली जहां मैं क्रिकेट, फुटबाल, हांकी, कबड्डी और बास्केट बाल जैसे गेम्स खेल सकता था। पहली बार मुझे यह एहसास कराया गया कि लड़कों के लिए ये वाले खेल होते है और लड़कियों के खो-खो, कित-कित जैसे खेल होते है। कच्चे खेलना, पंतग लूटना या गुल्ली-डडा जैसे खेल कमतर बच्चों के खेल है।

महिला साथियों से अलग होता चला गया और खुद को श्रेष्ठ समझने लगा

मैं अपने बचपन के महिला साथियों से अलग होता चला गया और खुद को पुरुष समझने लगा। मेरे सामाजिक परिवेश ने मुझे श्रेष्ठ होने का एहसास करा दिया, वह भी इस कदर कि मैं अपने बचपन के महिला साथियों से बात करना और टोकना तो दूर उनके जिद्द करने पर उनके साथ हिंसक होने लगा, उन पर हाथ छोड़ देता, उनकी चोटी पकड़कर खींच देता। यह सब कुछ मेरे साथ चलता रहा पर किसी ने मुझे पीरियड्स के बारे में नहीं समझाया।

ये कुवारी भोज क्या होता है

पीरियड्स के बारे में मुझे पहली जानकारी उस सांस्कृत आयोजन से हुई जो भारत के हर हिस्से में अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है, कुमारी कन्याओं की पूजा और भोज खिलाने का लिए जिसे कुवारी भोज कहा जाता है के लिए मुझे भी जब जाने को कहा गया। मेरा बाल मन अब तक शादी-विवाह, जन्मदिन, गृहप्रवेश और मृत्यु भोज ही जानता था कुवारी भोज क्या होता है? जब यह सवाल मैंने पूछा तो कोई जवाब नहीं मिला।

इस भोज मैं जब अपने बचपन के महिला साथियों के घर गया और उनसे सवाल किया तुम लोगों ने मेरे साथ खेलना क्यों छोड़ दिया? तब जवाब मिला – हम लोग अब बड़े हो गए, अब साथ में नहीं खेल सकते है। उन दोनों ने मुझ पर तोहमत ज़रूर लगाई कि मैं बहुत बदल गया हूं तो मैंने कहा, “मैं भी बड़ा हो गया हूं न।”

पीरियड्स के दौरान बन रहे सामाजिक परिवेश का समाजीकरण

पीरियड्स का प्रारंभ केवल लड़कियों के जीवन में नाटकीय परिवर्तन नहीं लाता है, उसका असर लड़कों पर भी पड़ता है। इसकी व्याख्या कम देखने को मिलती है, पीरियड्स के दौरान बन रहे सामाजिक परिवेश का समाजीकरण ही लड़कों के अंदर पितृसत्ता का बीज गाड़ देता है जो धीरे-धीरे विशाल हो जाता है, जो लड़कियों को दोयम दर्जे का वस्तु मानने लगता है।

समाज पीरियड्स पर ज़्यादा बात नहीं करता

इसकी चर्चा मैंने उस वक्त की जब मैं नौवी क्लास का छात्र हुआ और क्लास में प्रजनन का चैप्टर पढ़ाया गया। मैम ने पीरियड्स के बारे में बारिक से बारिक बातों को बताना शुरू किया उस वक्त मैंने इन अनुभवों पर चर्चा की।

मैंम ने बताया कि पीरियड्स को लेकर सामाजिक मान्यताएं और मिथक समाज में इस कदर हावी है कि वह इस पर बात करना जरूरी नहीं समझते है। जिसके कारण कई तरह के वर्गीय विभाजन ही नहीं कई तरह की समस्याएं भी खड़ी हो जाती है। इस विभाजन और समस्याओं का असर आगे चलकर बहुत अधिक गहरा होता है यह मानवीय सामाजिक व्यवहार में आचार-व्यवहार को भी प्रभावित करता है।

मैं जेडर स्टडी के रिसर्चर के तौर पर इन बातों के बारे में सोचता हूँ

आज जब मैं जेडर स्टडी के रिसर्चर के तौर पर इन बातों के बारे में सोचता हूं तो यह विश्वास पक्का हो जाता है कि लड़कियों के पीरियड्स के दौरान अगर सामाजिक परिवेश बच्चों का उचित समाजीकरण करें तो पितृसत्ता के उस बीज का जड़ से खत्म किया जा सकता है। जिसका पाठ समाज बच्चों को खासकर लड़कों को देता है।

अगर मेरे बालपन में ही मुझे इन विसंगितियों के बारे में कोई समझाता या समझाने का प्रयास भर करता है तो मेरे अंदर पुरुष दंभ के उस चरित्र का निमार्ण कभी नहीं होता जिसको मैं कालेज के दिनों तक बेहतर साहित्य के संपर्क में आने से पहले बेवज़ह ढो रहा था।

मूल चित्र : Canva Pro 

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