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ना दिवाली है ना होली, क्यों पकवानों की खुशबू हवा में छाई है...गरीब कल भी नंगा था, गरीब आज भी नंगा है, बेबसी से दो मुठो दाल चावल के लिए आंखें उसने झुकाई हैं।
ना दिवाली है ना होली, क्यों पकवानों की खुशबू हवा में छाई है…गरीब कल भी नंगा था, गरीब आज भी नंगा है, बेबसी से दो मुठो दाल चावल के लिए आंखें उसने झुकाई हैं।
आज कल घरों की रसोई में तेल-छौंको की सिरहन लौट आई है,ना दिवाली है ना होली, क्यों पकवानों की खुशबू हवा में छाई है।
घर-दरवाजों पर अक्सर जिनके झूला करते थे ताले,घर-दरवाजों पर अक्सर जिनके झूला करते थे ताले,बागानों में उनकी जैसे बाहार नई आई है, बागानों में उनकी जैसे बाहार नई आई है ।अपनों के साथ-सलामती का सुकून भी है, फिर भी कही खौंफ ने दिलों-दिमाग में जगह बनाई है।
लगता है मौसम बदला है, लगता है मौसम बदला है,बाज़ारों में रौनक गायब है, रास्ते-घाट भी सब खाली हैं।हवा में भी एक अजब सा तीखापन है, सोशल मीडिया पर भी पसरी तन्हाई है।
होटल रेस्तरां सब खाली हैं, लोगों ने घर की ओर पैदल ही की अगवाई है।घर-दफ्तर के मायनें बदल गए हैं रातों-रात, वर्क फ्रॉम होम ने धूम मचाई है।अख़बार कागज सब जगह एक ही दोहाई है, कोरोना ने पूरी पृथ्वी पर तबाही मचाई है।
गरीब कल भी नंगा था, गरीब आज भी नंगा है,बेबसी से दो मुठो दाल चावल के लिए आंखें उसने झुकाई हैं।
तालियॉं भी बजी, थालियों भी पिटी,कहीं दीये जले, तो कही दिल जले,गरीब और लाचार की नहीं कहीं कोई सुनवाई है।राजनीती जोरों पर है, राजनीती जोरों पर है,सबने बहती गंगा में नाँव अपनी-अपनी चलाई है ॥दोष-आरापों का बाजार गरम है,
ना जाने किसके दोषों व नियतों की सजा है, ये किसकी बेपरवाई है ।इतिहास गवाह है कमज़ोर बेबस ने ही की इसकी भरपाई है ॥
जड़ों को रखो संभाल कर, इस वक़्त की बस यही दुहाई है,इंसानियत ने इंसानियत की गुहार लगाई है। धन-दौलत औधा सब बेकार है, क़ुदरत के सामने इंसान बहुत लाचार है।
बात बस इतनी से है, प्रकृति ने सबक सिखाने को, दौलत के अंधों की लगाम लगाई है,बात बस इतनी सी है, प्रकृति ने सबक सिखाने को, दौलत के अंधों की लगाम लगाई है।
मूल चित्र : Canva
My name is Indu. I am a computer engineer by profession and qualification. I am also a very analytical person and have interests in analyzing the things from a different perspective which convince me to read more...
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