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कुछ बोलते आँसू – लड़कियां फिर चुप हो जाती हैं…

अगर आप पुरुष हैं तो यह तो बिल्कुल मत समझिए कि आप उसके मालिक हैं और वह एक खेलने वाली गुड़िया की भांति, जिसको किसी भी बात का एहसास नहीं होता।

अगर आप पुरुष हैं तो यह तो बिल्कुल मत समझिए कि आप उसके मालिक हैं और वह एक खेलने वाली गुड़िया की भांति, जिसको किसी भी बात का एहसास नहीं होता।

उन आँखों की कहानी…..

जब वह पैदा होती है, तो भी आंसू लिए और उसके कई अपने भी आंसू से सराबोर हो जाते हैं। फिर वह बड़ी होती है और फिर रोती है। पितृसत्ता की ड्योढ़ी पर खड़ी खड़ी, अपने लिए होने वाली असमानता की हवा के झोंके उसको बचपन में ही महसूस होने लगते हैं। चाहे वह 5 वर्ष की हो 8 कि, मगर यह कहती हुई पाई जाती है, “पापा मेरे लिए नहीं लाए? भैया के लिए लाए हो? चलो कोई बात नहीं, मैं उनसे लेकर ही खेल लूंगी।”

बात कड़वी है मगर सच्ची है। हैं न? वो गुड़िया से खेलना चाहती है, मगर बचपन में खिलौने की जगह उसके हाथ में अपने पिता के लिए पानी का गिलास होता है, या फिर झाड़ू। कभी-कभी हाथ बर्तनों से भी खनकते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में यह मासूम हाथ गोबर के उपले थापने में इतने सक्षम हो जाते हैं कि उनको उपलों की आग की तपिश भी महसूस नहीं होती। उनके हाथ शल हो चुके होते हैं।

त्यौहार के समय अक्सर देखा जाता है लड़कियों के लिए वही पुराने कपड़े और वही पुरानी चप्पल और बेटों के लिए कपड़ों के साथ-साथ, जूते, चश्मे आदि। इस पर भी लड़कियां संकोच नहीं करती और अपनी हालत के लिए किसी को दोषी नहीं मानती, उनको लगता है यही उनका जीवन है, भगवान ने ऐसा ही बनाया होगा और आंखों की किनारियों से आंसू का एक क़तरा फिर ढलक जाता है। लड़कियां फिर चुप हो जाती हैं।

कई तो घर की दहलीज पार नहीं कर पाती और कई को तो खुला आसमान देखने को भी नहीं मिलता। विद्यालय तो बहुत दूर की बात है। अगर हम भारत की शिक्षा की स्तिथि का निरक्षण करेंगे तो हमारी आंखों के सामने आंकड़े ख़ुद अपनी ज़ुबानी बोलेंगे। 2011 के मुताबिक 82.14% पुरुष शिक्षित थे और केवल 65.46% महिलायें शिक्षित थी। इतना बड़ा अंतर? क्यों? यहाँ क्या केवल पुरुष ही इस बात के ज़िम्मेदार हैं? नहीं ! इसमें माँ और समाज भी शामिल होता है। यह एक बहुत गहन समस्या है।

जैसे तैसे बड़ी होकर लड़कियां अपनी युवावस्था तक ज़िन्दगी काटती हुई पहुँचती हैं। इसके बाद शुरू होता है असमानता का तांडव, भाई और पिता इनको अपनी धरोहर समझ कर उस पर अपना अधिकार जाहिर करते हैं। सांस लेने के अलावा लड़की कुछ भी अपनी मर्ज़ी का नहीं कर पातीं। उनका मन भी करता होगा साइकिलिंग करने का, पतंग उड़ाने का, और तो और सहेलियों के साथ बाज़ार जाकर ठहका लगाने का। मगर यह सब आज इस समाज में लड़कियों के लिए मौजूद है? बिल्कुल भी नहीं। क्या ऐसा लगता है, लड़कियों का जो दिल है, उनका मन है, वो ईश्वर ने इस तरह का बनाया है के वो यह सब असमानता का कीचड़ खुद पर उछलने दें? नहीं! जब ईश्वर ने कोई भेद नहीं किया पुरूष और महिलाओं को बनाने में तो हम क्यों करते है?

युवावस्था के बाद या उस से पहले ही लड़कियों की शादी कर दी जाती है। उसके बाद भी उनकी आंखों में ख़ुशी के आँसू कम, दर्द के आँसू ज़्यादा देखने को मिलते हैं। फिर बार-बार की धमकियां, तलाक़ का मामला, बच्चों की परवरिश, परिवार को संभालना। उसके बाद भी हाथ क्या लगता है दिल का दर्द, जो आंखों के रास्ते बाहर आने लगता है।

मैं एक नारीवादी पुरूष भी हूँ और साथ के साथ मानवतावादी भी। मैं असमानता में बिल्कुल भी यक़ीन नहीं रखता। मैं लड़ना चाहता हूँ, उन आंसुओं के लिए जो जन्म के समय से शुरू होते हैं और मृत्यु तक साथ-साथ चलते हैं। मैं लड़ना चाहता हूँ, उस असमानता के लिए के जिससे मानवता शर्मसार होती है। मैं उस नियम से लड़ना चाहता हूँ जो एक रूढ़िवादी सोच की रस्सी में जकड़ा जा चुका है। मनुष्य कितना स्वार्थी हो गया। उसको ज़रा भी ख़ौफ़ नहीं आता जिसका बलात्कार करता है फिर उसी के लिए न्याय की भीख भी मांगता है। आज महिलाएं खुद महिलाओं के सामने खड़ी होती हैं और महिला सशक्तिकरण का विरोध करती हैं। यह क्या हो गया है समाज को?

हम किसी के भाई हैं, बेटे हैं और पति हैं, पिता हैं यह चार रिश्तों की डोरी तो मूल है किसी भी महिला के लिए, बस आप अपना फर्ज समानता की सीढ़ी पर चढ़ कर निभाने का वादा कीजिए। आप भाई हैं, आप उसके मालिक नहीं, और आप पिता हैं इसका मतलब यह नहीं कि वह आपकी धरोहर हो गई, और अगर आप पुरुष हैं तो यह तो बिल्कुल मत समझिए कि वह एक खेलने वाली गुड़िया की भांति है, जिसको किसी भी बात का एहसास नहीं होता। वह औरत है, संसार की जननी है। भारतीय संस्कृति में हर धर्म के लोगों में महिलाओं को कितनी बड़ी बड़ी उपाधि दी गई है उसके बाद भी आप उस देवी के समान रूपी महिलाओं को प्रताड़ित करते हैं, आप केवल प्रताड़ित ही नहीं बल्कि उसके शरीर के साथ साथ उसकी आत्मा को भी छिन्न भिन्न कर देते हैं? घिन है आपकी ऐसी सोच पर।

अपने विशवास को नई दिशा दें और संसार में ऐसा नाम करें कि पूरे विश्व में चर्चा हो के भारतीय समाज में असमानता का जो कीड़ा था वह मर चुका है, औरतें अब अपनी शर्तों पर जीती हैं, जिस तरह पुरूष। बदलाव तो लाना होगा, और मुकम्मल बदलाव तभी आएगा जब पितृसत्ता समाज अपनी सोच बदलेगा।

मूल चित्र : Pexels 

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