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क्या इस लॉक डाउन में भी जीत पुरुषवाद की ही होगी?

प्रथाओं की बेड़ियों में जकड़ी ज़्यादातर महिलाएं आज भी घर की चार दीवारी में अपनी दुनिया गुज़ार देती हैं, ओर वो इस कैद को भी अभिमान से जी जाया करती हैं, ताउम्र!

प्रथाओं की बेड़ियों में जकड़ी ज़्यादातर महिलाएं आज भी घर की चार दीवारी में अपनी दुनिया गुज़ार देती हैं, ओर वो इस कैद को भी अभिमान से जी जाया करती हैं, ताउम्र!

ये लॉक डाउन बेशक नया है पुरुषवाद के लिए,
पर सवाल उठता है महिलाओं के लिए…
तो सोचिये, महिलाएं लॉक डाउन की आदि हो चुकी हैं अनादि काल से,
प्रथाओं की बेड़ियों में जकड़ी ज़्यादातर महिलाएं आज भी घर की चार दीवारी में अपनी दुनिया गुज़ार देती हैं।
और गुज़ारें भी क्यों न? मान सम्मान, घर की इज़्ज़त की इक अमिट स्याह बचपन से छाप दी जाती है इन पर।
ओर वो इस कैद को भी अभिमान से जी जाया करती हैं ताउम्र…

आज बबाल तो बस इस बात का है कि पुरुषवाद लॉक डाउन है।
इसी तरह कुछ परिन्दे पालने के शौकीन भी होते है जो मात्र अपने आंखों के सुकून के लिए कैद कर लेते है आज़ाद से फरिश्तों को।
उन्हें देखकर मेरे मन में सवालों के बवंडर उमड़ पड़ते हैं, क्या इतने जरूरी हैं इंसान के शौक, उनका अहम,
आज़ादी तो सभी को प्यारी होती है न?
सीता की लक्ष्मण रेखा उल्लंघन की कहानी को सीता की गलती दिखाने वाले लोगों, बताओ मुझे,
उलंघन न करती तब भी पुरुषवाद की जीत, ओर उलंघन किया, तब भी पुरुषवाद की जीत?
और इसमें गलत सीता ही क्यों?

ज़रूरी स्त्री का बंधा रहना नहीं, ज़रूरी पुरुषवाद की मानसिकता बदलने की है,
ये स्त्री का लॉक डाउन बदलने की है…

मूल चित्र : Pexels

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