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कई माहवारी सम्बन्धी समस्याएं सामाजिक हैं और इनको बढ़ावा देने का कारण है इनके बारे में खुल कर बात ना करना और इनका हल ढूंढना पुरुषों का भी काम है...
कई माहवारी सम्बन्धी समस्याएं सामाजिक हैं और इनको बढ़ावा देने का कारण है इनके बारे में खुल कर बात ना करना और इनका हल ढूंढना पुरुषों का भी काम है…
माहवारी सम्बन्धी समस्याएं मेरे अपने अनुभव से तो कुछ अजीब ही थीं। हमको बचपन में पास के मदरसे में धार्मिक शिक्षा लेने के लिए घर से बाहर जाना पड़ता था। मेरी बहन और मैं रास्ते में उछल कूद करते पढ़ने जाते थे। गर्मियों की छुट्टियाँ भी थीं और हम शाम का इंतज़ार करते के हम कब जाएंगे पढ़ने।
एक साल तो सब ठीक रहा मगर जब अगले साल हमारी छुट्टियाँ पड़ीं तो मेरे साथ मेरी बहन को जाने नहीं दिया गया। मैं हताश था और वह उदास। मैंने पूछा, “चल न, चलते हैं जामुन भी तोड़ेंगे।” मगर उसकी ज़ुबान ने नहीं बल्कि उसकी आँखों ने मुझे जवाब दिया, उसके आंसू टपक पड़े। मैंने अपनी माँ से पूछा, “अम्मी यह मेरे साथ मदरसे नहीं जा रही पढ़ने पर क्यों?” माँ का जवाब आया, “बेटा अब वो बड़ी हो गई है, घर पर मैं ही पढ़ाऊंगी।”
उनका यह कहना था और मेरी मायूसी का जो दायरा था वह बेहद गहराई में चला गया और मैं अपने मन को मसोस कर चुप होकर लेट गया। यह वाला अनुभव मेरी ज़िंदगी के कड़वे अनुभवों में से एक है, जो मुझे सालों साल तकलीफ़ देता रहा। मेरी बहन को हर धार्मिक पूजा से दूर रखा जाने लगा। कभी-कभी तो अगर उसके हाथ गीले हैं और उसने मुझे छू लिया तो मेरी माँ उसका डांटती थी, “तू नापाक है क्यों छुआ इसको, जा अंदर जा।”
यह सब मेरी सहनशीलता से आगे की बात बनने लगी, मैं आठवीं कक्षा में आया और मेरे साथ साथ मेरे अनुभव और शिक्षा का स्तर भी बढ़ा। मेरे विद्यालय की कक्षा की लड़कियों के साथ भी मैंने महसूस किया था, वह अचानक मैडम के पास जातीं और मैम कुछ लड़कियों को अपने पास बुला कर शौचालय में भेज देती, मेरे लिए वाकई में यह बहुत नई बात थी। मैं सोचता आख़िर हुआ क्या? लड़के उन लड़कियों का मज़ाक उड़ाने लगते के अब इसको छूना मत आदि।
मैं कक्षा नौवीं में आया, इसमें भी पाठ था रिप्रोडक्टिव सिस्टम(Reproductive system) जिस पाठ में हमको पुरूष जननांग और महिला जननांगों के चित्र दिए हुए थे। जब मुझे किताब नई नई मिली, तो मुझे देखने में शर्म भी आई और मैं उत्सुकता वश इंतज़ार करने लगा कि मैडम कब पढ़ाएंगी यह पाठ, मगर ऐसा नहीं हुआ। हमको उस पाठ को छोड़ने के लिए कहा गया और किसी भी बच्चे ने वह पाठ नहीं पढ़ा और मैडम आगे बढ़ गईं।
मुझे अब भी कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैंने कुछ दिनों बाद अपनी माँ से ही पूछ लिया के यह दुआ में शामिल क्यों नहीं हो पाती? यह गीली अगर हो गई तो मुझे क्यों नहीं छू सकती। माँ मुझे अंदर ले गईं और मुझे समझाया बेटा यह लड़कियों की पर्सनल बात है, इससे तेरा कुछ लेना देना नहीं, ‘वो लड़कियों वाली बात है’। मुझे अब भी कुछ नहीं बताया गया और न कहीं से कोई सटीक प्रमाण मिलता।
मैं ग्यारहवीं कक्षा में था तब भी लड़के यही बोलते देख इसकी स्कर्ट पर लाल रंग लगा है, यह खून है, जैसे हमारे वीर्यपात होता है, जब हम उत्तेजित होते हैं, ऐसे ही इनके खून निकलता है। पर मुझे यह बात भी निरर्थक लगने लगी थी। मुझे इसका सार्थक जवाब अब भी नहीं मिला। बस एक बार किसी से सुना के लड़कियों को पीरियड्स होते हैं, उसमें उनको खून निकलता है आदि। मैंने फिर ख़ुद इसको इंटरनेट के सहारे रिसर्च कर के जाना के यह वाकई में क्या है? यह कौन सा प्रोसेस है, वैज्ञानिक तौर को मैन प्राथमिकता दी बनिस्बत के धार्मिक आडम्बरों के।
मैंने उसमें यही तथ्य पाए कि यह एक साधारण प्रक्रिया है, जो हर महिला के साथ होती है। यह एक हेल्थी संकेत होता है कि लड़की आगे चलकर वह माँ बन सकती है। यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। मुझे समझ आ गया था के लोग घोर अंधविश्वास के काले बादलों से घिरे हुए हैं। यह लोग कितना अन्याय करते आ रहे हैं छोटी छोटी उम्र की बच्चियों के साथ, इनको पता भी नहीं होगा के यह उनको किस तरह का मानसिक आघात पहुंचा रहे हैं।
‘लड़कियों की बात है’ जैसे वाक्यों के मतलब मुझे समझ आ चुके थे, मेरी 13 साल की बहन के वो आँसूं जो मेरे दिल में घर कर गए थे, उनका जवाब मुझे अब मिल गया था। मेरी माँ का बर्ताव जो मेरी बहन के लिए था वह भी मुझे समझ आ गया था।
समाज वैसे ही पितृसत्ता की आग में कब से तपता हुआ आ रहा है, और उस बीच एक यह भी अवधारणा बना दी गई कि इनको धार्मिक या घरेलू वातावरण में बचपन से ही प्रताड़ित करने शुरू कर दिया गया। जागरुकता की घोर कमी की वजह से हमारे समाज में एक प्राकृतिक प्रक्रिया को एक पाप समझा जाने लगा।
समय है लोगों में इस चीज़ के लिए जागरूकता फैलाने की, और यह काम एक पुरूष के द्वारा ही शुरू किया जा सकता है, जिससे लोगों के अंदर जो शर्म और भय है वो निकलेगा क्यूंकि यह मात्र एक प्राकृतिक की प्रक्रिया भर है इसके अलावा कुछ नहीं। न तो इसका चरित्र से कोई लेना देना, और न ‘ गंदी बात ‘ से। मेरे विचार से समाज में सबसे पहले स्कूलों में यह बात बतानी होगी, अभियान चलाना होगा, के यह सब बिल्कुल साधारण सी बात है। हम अगर बात करें फिल्मों की तो ‘ पैडमैन’ जैसी जागरूकता फैलानी वाली फिल्मों को बनाया जाना चाहिए, और लोगों को समझाना चाहिए। सबरीमाला मंदिर का जो फरमान जारी हुआ, वह बेहद सराहनीय है।
मैंने खुद एक माहवारी सम्बन्धी मुहिम दो साल पहले अपने घर से शुरू की। मैंने अपनी बहन को खुद पैड लाकर दिए। उसकी प्रतिक्रिया यह थी कि दो दिन तक उसने मुझे अपनी शक्ल तक नहीं दिखाई। इस बात के पीछे जाईये के उसकी ऐसी प्रतिक्रिया क्यों आई? इसके लिए सीधे तौर पर समाज जिम्मेदार है और समाज में फैली पितृसत्ता, जो अब तक अपने पाँव पसार रही है।
बहरहाल! मैंने अपनी मुहिम जारी रखी है और मैं आज भी अपने घर की महिलाओं के लिए बाजार से पैड लाकर खुद देता हूँ और एक वक्त अब ऐसा आ गया है कि मेरे घर की हर लड़की या महिला इस सिलसिले में खुल कर बात करती हैं। मेरे विद्यार्थियों की माँ मेरे से यह बोलने में बिल्कुल नहीं कतराती, “आज बच्ची नहीं आयेगी उसको थोड़ा कमर में माहवारी सम्बन्धी दर्द है।”
यह बात सुनने में शायद साधारण लगे मगर जब इसको पुरुषवादी चश्मे से देखा जाएगा तो एक ज़ोरदार तमाचा है उनके मुँह पर जो महिलाओं को कुछ दिनों के लिए अपवित्र मानते हैं तो यह बदलाव हर कोई शुरू कर सकता है। लोगों में झिझक को ख़त्म कर सकते हैं, और आईये पुरानी रूढ़िवादी पुरुषवादी सोच को एक साथ कुचलने के प्रयास करते हैं।
हमको ऐसे अभियानों से जुड़ना चाहिए जहाँ समानता जी बात हो, जहाँ एकता की बात हो। महिलाओं के लिए वह पाँच दिन अगर अपवित्र हो सकते हैं, तो हमको ऐसी पवित्रता से कोई सरोकार नहीं, और हम ऐसी प्रक्रिया का खंडन करते हैं। ऐसे अगर पुरूष को प्रितदिन रस्खलन होने लगे तो वह तो पूरे तीस दिन अपवित्र रहेगा और यह बात हर पुरुष की पवित्रता पर भी सवालिया निशान लगाती है।
मूल चित्र : Pexels
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