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मैं जीत गई! मैं ज़िंदगी की हर हार को पीछे छोड़ आयी…

उस रात के बाद जब सुबह हुई तो मैंने अपने भूत को अपने माज़ी को पीछे छोड़ दिया था और सोचा मेरा कल बुरा था, पर जो आने वाला कल है वह तो मेरे हाथ में है।

उस रात के बाद जब सुबह हुई तो मैंने अपने भूत को अपने माज़ी को पीछे छोड़ दिया था और सोचा मेरा कल बुरा था, पर जो आने वाला कल है वह तो मेरे हाथ में है।

जिस घड़ी मैं लिटिल कॉटेज (मेरे घर का नाम) में पैदा हुई उस समय मेरे पिताजी ने घर में कथा रखी और जागरण करवाया, मेरा नाम आस्था रखा। मेरे घर में सब पढ़े लिखे और खुले विचारों वाले लोग थे सिर्फ मेरी माँ को मेरा चेहरा थोड़ा सांवला नज़र आता था। मेरी माँ और मेरे पिताजी जी का कॉम्प्लेक्शन थोड़ा उजला था।

मैं अपनी माँ की इकलौती सन्तान थी

वैसे तो मेरी परवरिश में 5 साल तक कोई कमी नहीं कि गई, मगर ये 5 साल से 17 साल तक कि जो उम्र मैंने काटी है, मैं उसे कभी भूल नहीं सकती। मेरे माता और पिताजी दिल्ली में ही कार्यरत थे। मैं अपनी माँ की इकलौती सन्तान थी, जो शादी के 7 साल बाद पैदा हुई थी। मेरी दादी माँ और अब स्वर्ग सिधार चुकी हैं, उन्होंने मेरी माँ को हज़ारों नुस्ख़े बताए और मेरी माँ भी कहाँ पीछे हटने वाली थीं। उन्होंने भी इन टोटके और नुस्खों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। शादी के 7 साल गुज़रे और मैं दुनिया में आई।

मुझे अपना बचपन बहुत प्यारा है

मुझे अपना बचपन बहुत प्यारा है। मैं अपने बचपन के पाँच साल मरते दम तक नहीं भूलूंगी। पापा के लिए मैं लाडो बिटिया थी और माँ के लिए काजल। उन्होंने मेरा घर कस नाम काजल इसलिए रखा था क्योंकि मैं काली थी। मुझे तो हर बात आराम से हजम थी। मुझे कभी मेरे पिताजी ने रोने का मौका नहीं दिया। समय से पहले मेरे पास गुड्डे और गुड़िया और ढेर सारे खिलौने आ जाते थे और पहनने के लिए पता नहीं कितनी फ़्रॉक्स और नए नए जूते।

मेरी माँ किसी बड़े संपादन क्षेत्र में संपादक के पद पर थीं, और मेरे पिताजी अकसर काम के सिलसिले में घर से बाहर ही रहते थे। घर में मेरे साथ मेरी अम्मा (आया) जो 50-55 की उम्र की रही होंगी और हम दोनों के अलावा घर में एक कुक था और एक ड्राइवर अक्सर मौजूद रहता था। बचपन के दिनों में मैं उन सब के साथ गुड़िया गुड्डे का खेल खेला करती थी और खूब किलकारियां मार कर हँसती रहती थी।

फिर हमारे घर में 3 पुरूष हो गए और मैं अकेली

मेरे पाँच वर्ष पूरे होने पर अम्मा के देहांत हो गया, उनको हैजा नाम की बीमारी ने जकड़ लिया था। अब घर में खाना बनाने वाले भैया और ड्राइवर ही रहे। अम्मा के देहान्त की ख़बर मुझे नहीं दी गई। जिस दौरान यह सब हुआ उस समय मुझे पापा ने डलहौज़ी मेरी बुआ के साथ 5 दिनों के लिए भेज दिया था। मैं भी छोटी थी और वक़्त के साथ साथ सब भूल चुकी थी। पापा ने इस बार एक पुरुष (मनोज) को घर में रखा जो मेरी देख-रेख कर सके। इस तरह हमारे घर में 3 पुरूष हो गए और मैं अकेली।

छोटी दीवाली की शाम मम्मी और पापा दोनों ही ऑफिस से लेट आने को बोल गए थे, और मनोज भैया से कहा था गुड़िया को खाना खिला कर सुला देना। मैंने टी. वी पर कार्टून देखते देखते खाना ख़त्म कर लिया और अपने रूम में चली गई। मैं आदि हो चुकी थी अकेले रहने की। एकाएक मुझे लगा कोई मेरे पैरों को सहला रहा है, मैं चौक कर उठ कर खड़ी हुई और देखा मेरे पैर की तरफ मनोज भैया बैठ कर मेरा पैर दबाने की बात कर रहे थे।

उन्होंने मेरे गुप्तांगों को छूना शुरू कर दिया

मैं 8 वर्ष ही की थी और पैर दबाते दबाते उन्होंने मेरे गुप्तांगों को छूना शुरू कर दिया और मैं डरने लगी। मैंने उसका हाथ हटा दिया और मुझे हल्का हल्का याद है इसके बाद वह हँस कर बाहर चला जाता है। इसके बाद वह हर दिन मेरे पास आता और मेरे साथ और मेरे शरीर के साथ खिलवाड़ करता। और धीरे धीरे यह एक से तीन हो गए।

माँ के इन अल्फ़ाज़ों ने मुझे अंदर तक तोड़ दिया

मैं छोटी थी और धमकियों से डर कर चुप बैठी रहती थी किसी से कुछ नहीं कहती और दिन में बातें भूल जाती। यह सब 2-3 साल ऐसे ही चलता रहा और 10 -11 वर्ष की आयु में मैंने अपनी माँ को बताया कि माँ ऐसी ऐसी बात है। इसके बाद मुझे मेरी माँ की तरफ से जवाब मिलता है, “तू पागल हो गई है? इतने पुराने लोग हैं, गलत नहीं करते होंगे। तू इतना मत डरा कर, गलती से खेलते वक़्त हाथ लग जाता होगा, पागल कहीं की।”

मेरा शारीरिक शोषण होता रहा

माँ के इन अल्फ़ाज़ों ने मुझे अंदर तक तोड़ दिया, पापा श्रीनगर में काम के सिलसिले में वहीं रहने लगे और मेरे साथ शुरू होता है मेरी इस्मत के साथ खिलवाड़, और मैं दिन रात सिसकती रहती मैं स्कूल की साधारण छात्रा थी। मुझे रोज़ रौंदा जाता था। मैं बचपन से यह सब झेलती झेलती थक चुकी थी, और शायद अपनी मर्यादा और सीमा को थक कर हार चुकी थी। मेरा शारीरिक शोषण होता रहा।

मैं चित्रकारी और डायरी लिखने लगी

मैं हर दिन मरती थी और ज़िंदा लाश बन कर घर में ही बैठी रहती। मुझे तो बाहर निकलना भी नहीं आता था, और न मेरी कोई सहेली थीं। मैं अपनी बातें और अपनी व्यथा को काग़ज़ों पर उतारने लगी, मैं चित्रकारी और डायरी लिखने लगी। जिससे मेरे को आंतरिक सुकून मिलता था।

मैं शारीरिक और मानसिक तौर पर दुर्बल होती गई

मैं मन ही मन कुंठित होती गई और पुरूष की परछाई तक से नफरत करने लगी। मैं शारीरिक और मानसिक तौर पर दुर्बल होती गई। मुझे 17 साल की उम्र में पता लगा में एक प्रकार की मानसिक बीमारी से जूझ रही हूँ, जिसकी वजह वह घटना थी। मेरा मस्तिष्क मेरे खून भरे आंसुओं से सन चुका था, मैं टूट चुकी थी। एक बात और के मुझे रोना नहीं आता था, मेरे आँसू सूख चुके थे।

जो आने वाला कल है वह तो मेरे हाथ में है

पापा घर आए जब मैं 17 वर्ष की हो चुकी थी। पापा से गले लगकर मैं पूरे 6 घण्टे रोती रही और सारा गुबार तो नहीं निकाल पाई मगर हाँ, कुछ राहत ज़रूर मिली। उस रात के बाद जब सुबह हुई तो मैंने अपने भूत को अपने माज़ी को पीछे छोड़ दिया था और मैं कड़ाके की ठंड में छत पर घण्टों बैठी और सोचा मेरा कल बुरा था, शायद आज भी बुरा था, पर जो आने वाला कल है वह तो मेरे हाथ में है। आस्था सही समय है यह नरक छोड़ने का। मेरे मन के भीतर से आवाज़ आई।

मैंने घर छोड़ने का फैसला किया

मैंने घर छोड़ने का फैसला किया और किसी न किसी तरह पापा को मनाया। माँ के लिए तो मैं केवल काली काजल थी। मैं केवल दसवीं कक्षा से पास थी और तकनीकी क्षेत्र में मुझे ज़रा सा भी इंटरेस्ट नहीं था। पापा ने मुझसे मेरे 3 दिन माँगे और उसके बाद मुझे पापा ने बताया कि बेटी तुमको किसी भी कोर्स में जाने के लिए बारहवीं करनी ज़रूरी है।

मैं आज खुद की कविता लिखती हूँ

मैं कला के क्षेत्र में जाना चाहती थी। मैंने पापा से कहा मैं बारहवीं कक्षा पत्रचार विद्यालय से करूंगी और कामयाब होकर दिखाउंगी। मैंने दिल्ली वाली बुआ के घर रहकर 2 साल तक पढ़ाई की और साथ के साथ उनके घर का सारा काम किया, क्योंकि मेरे जाते ही उन्होंने काम वाली आया कि छुट्टी कर दी थी। बहरहाल मैंने बारहवीं पूरी की और दिल्ली के कॉलेज ऑफ आर्ट्स में एडमिशन लिया और वहीं हॉस्टल में रहने लगी। मैं उस लिटिल कॉटेज को अपने जीवन से निकाल चुकी थी। मैं सिर्फ अपने पापा के संपर्क में रही और जब तीन साल बाद मैंने अपनी पढ़ाई पूरी की और लेखन में हाथ आज़माया तो मैंने ख़ुद को उस स्थान पर पाया जहाँ मैं कभी सपने में भी नहीं सोच सकती।

“मैं जीत गई”

मैं उस शाम लोधी गार्डन गई और ऊँचाईं पर खड़ी होकर तेज़ी से चिल्लाई, “मैं जीत गई!” आस्था जीत गई। मैं आज खुद की कविता लिखती हूँ और वह वक़्त याद करती हूँ जब मैंने मम्मी की डायरी पढ़ी, जिसमें साफ साफ लिखा था, “मैं एक लड़का चाहती थी और मुझे भगवान ने लड़की दी वह भी काले रंग की। भगवान तूने ऐसा क्यों किया?” और भी बहुत कुछ लिखा था जिसे मैं साझा नहीं कर सकती।

मैं यही डायरी पढ़ कर 6 घण्टे रोई थी, और अब पिछले 6 दिनों से हँस रही हूँ, क्योंकि आस्था जीत गई…

मूल चित्र : Pexels

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