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ताजमहल 1989 को देखने के बाद कुछ तो है जो महसूस होता है, वह है प्रेम, मतलब किसी को याद करना और शायद इसलिए इस सीरीज़ का नाम ताज महल 1989 रखा गया है।
इश्क़ की लज़्जत हर किसी के नसीब में नहीं होती। हर किसी के जीवन में इश्क ही वह विषय है जिसे आदमी उम्र भर समझने की कोशिश करता है लेकिन समझ नहीं पाता है। ताज महल 1989 सीरीज़ मानो तो इश्क़ पर एक फिलॉसफ़ी की तरह कही सुनाई जा रही कहानी है।
मसलन इस सीरीज़ का पात्र सुधारक मिश्रा कहता है “Love means missing someone प्रेम, मतलब किसी को याद करना…आप यदि किसी से प्रेम करते हुए किसी और से प्रेम नहीं करते तो इसका अर्थ है कि आप प्रेम नहीं करते। ताजमहल को देखने वाले आखिर करते क्या हैं? यही न कि मुमताज और शाहजहां के प्रेम को याद करते हैं।”
निर्देशक ने जिस तरह से यह समझाने की कोशिश की है कि प्रेम का एहसास तो एक हो सकता है, पर हर किसी के लिए उसकी व्याख्या अपनी-अपनी है। ताजमहल के इर्द गिर्द बुनी कहानी दरअसल ज़िंदगी जीने का एक तरीका सिखाने की कोशिश है। शायद इसलिए क्योंकि भले हर किसी के प्रेम की व्याख्या अलग-अलग हो, प्रेम का पहला एहसास तो ताहमहल के पत्थर के तरह सफेद ही होता है।
ताज महल 1989 सात एपीसोड की सीरीज़ भर नहीं है, इसे देखकर ऐसा लगता है कि जैसे पूरी जिंदगी की एक फिलॉसफ़ी है। इश्क़ का एहसास है तो इश्क़ की बेइमानी भी है, जो जैसे समोसे के साथ नमकीन चटनी का मजा दे रही हो। कहानी देखकर ही लगता है कि लिखने वाले ने ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव को या तो बहुत करीब से देखा है या फिर बहुत ही करीब से जिया है। यह प्रेम कहानियां सिर्फ प्रेम कहानियां ही नहीं है। इनमें इंसान की परख़, उसका दर्द, उसकी आह, उसका इल्म भी है। अपनी बात कहने के लिए उसने बस ताजमहल को बीच में रखकर कई सारी प्रेम कहानियों को बुना है।
कहानी शुरू होती है अख़्तर बैग(नीरज क़ाबी) फिलॉसफ़ी के प्रोफे़सर हैं, पत्नी सरिता(गीतांजलि कुलकर्णी) भी फिजिक्स की प्रोफेसर हैं। इन दोनों की कहानी बताती है कि एक उम्र में तो प्रेमी की कविताएं उसकी नॉलेज प्रभावित करती है लेकिन एक उम्र के बाद दूरियां बढ़ती जाती हैं। एक उम्र के बाद प्रोफेशनल ज्ञान पर्सनल लाइफ में भी आ ही जाता है। इल्म का दिखावा इश्क़ की चाय को फीकी कर देता है।
दूसरी कहानी है सुधीर मिश्रा (दानिश हुसैन) और मुमताज (शीबा चड्ढा) की, सुधीर फिलॉसफ़ी में गोल्ड मेडलिस्ट होने के बाद भी एक ट्रेलर की दुकान चलाते हैं। प्रोस्टीटयूट मुमताज के साथ बिना शादी किये रहते हैं। जिसने ज़िंदगी की कड़वाहट को किताबों में पढ़ा नहीं, जमीन पर जिया है। उसे बड़े शायरों की शायरी ज़बानी याद है। वह अपने हक़ के लिए लड़ती है और अपने आस-पास की औरतों के हक़ लिए लड़ना भी सिखाती है। वह जहां जाती है वहां के माहौल में बगावत भर देती है। जिसके चलते पितृसत्ता के घमंड में लिपटा एक आदमी उसकी हत्या कर देता है।
कहानी में स्टूडेंट का इश्क़ भी है। सुधीर का भान्जा धर्म जिस लड़की शिल्पी से प्यार करता है। धर्म किसी नेता के संपर्क में आ जाता है। वह उसके गुंडों से उस लड़के को पिटवा देता है जो शिल्पी के आस पास नज़र आता है। धर्म की गुंडा गर्दी बढ़ती जाती है और वो शिल्पी को ही थप्पड़ मार देता है। शिल्पी उस से रिश्ता तोड़ लेती है। एक और लड़का अंगद एक कम्युनिस्ट लड़की से प्यार करने लगता है। वह भी उस से प्यार करती है। वह दोनों ही समझदार हैं। वह दोनों ही दुनिया को अलग तरीके से समझते हैं लेकिन प्रेम में एक दूसरे से पहल नहीं कर पा रहे हैं। इनके अलावा एक और लड़का है जो एक लड़की को प्यार के जाल में फंसाकर किसी को बेच देना चाहता है। आखिर में इसी कहानी से सारी प्रेम कहानी जुड़ जाती हैं। सारे के सारे किरदार उसे फसाने और बचाने का काम करते हैं।
इतने सारे प्रेम कहानी को सुनाने की कोशिश में शुरुआत में सीरीज के पहले तीन एपीसोड देखने में बहुत ही सब्र की जरूरत है। उसके बाद एक अलग दुनिया का दरवाजा खुलता है जहां मोबाईल फोन फ़ोन नहीं हैं, व्हाटसप नहीं हैं, नेट भी नहीं है। कोई फिलॉसफ़ी को पढ़ा रहा है और समझ नहीं रहा है। कोई फिलॉसफ़ी को पढ़ा नहीं रहा है लेकिन समझकर जी रहा है। एक तरफ रूमानियत है और एक तरफ ज़िंदगी की कड़वी सच्चाई। एक तरफ बढ़ती गुंडा गर्दी है और एक तरफ कम्युनिष्ट विचार। एक तरफ संगीत है तो एक तरफ थिएटर है। निर्देशक इन सबको एक साथ लेकर चला है। उसने एक साथ तीन पीढ़ियों के इश्क़ को साधने की कोशिश की है। उसी में उसने पितृसत्ता से लेकर लोकतंत्र, समाजवाद, साम्यवाद सब को कहीं ना कहीं छुआ है और जहां मौका मिला है। उस पर कटाक्ष भी किया है।
निर्देशक के काम को नीरज क़ाबी और दानिश हुसैन के साथ शीबा चड्डा ने अपनी एक्टिंग से आसान कर दिया है। दानिश ने एक ऐसे फलॉसफर के किरदार को जिया है जो अपने पढ़े को जी रहा है। वह अपने किरदार को वहां तक ले जाते हैं जहां समझने की हद हो जाती है। बाकी युवा कलाकार अपनी-अपनी भूमिका में बेहतर है और पूरे सीरीज़ को रोचक बनाए रखते है।
सीरीज़ के बीच-बीच में ख़ुमार, ग़ालिब, फैज, फराज़ की शायरी भी सुनने को मिलती रहती है। जिस से माहौल ना बहुत गम्भीर होता है और ना बहुत हल्का रह जाता है। जिन लोगों ने नब्बे के दशक के मोहब्बत को जिया है महसूस किया है उनको यह कहानी और जीवन के उतार-चढ़ाव बहुत पसंद आएगे।
ताजमहल 1989 को देखने के बाद कुछ तो है जो महसूस होता है। वह है प्रेम, मतलब किसी को याद करना… और शायद इसलिए इस सीरीज का नाम ताज महल 1989 रखा गया है।
मूल चित्र : Netflix
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