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वेब सीरीज़ पंचायत क्या आपको भी दे रही है एक हल्का-फुल्का सा मीठा सुकून?

अमेज़न प्राइम पर रिलीज हुई वेब सीरीज़पंचायत हमारे देश के पंचायतों में महिला सरपंचों की पंचायतों की मौजूदा स्थितियों का शानदार मूल्य़ाकंन है।

अमेज़न प्राइम पर रिलीज हुई वेब सीरीज़पंचायत हमारे देश के पंचायतों में महिला सरपंचों की पंचायतों की मौजूदा स्थितियों का शानदार मूल्य़ाकंन है।

TVF के बैनर तले दीपक कुमार मिश्रा के निर्देशन में बनी पंचायत वेब सीरीज़ एक शहरी लड़के अभिषेक त्रिपाठी (जितेंद्र कुमार) की कहानी है। वह एक ठीक ठाक जॉब की तलाश में होता है लेकिन कुछ बड़ा न मिलने के बीच वह गांव की पंचायत में सचिव के तौर पर काम करना शुरू कर देता है। यहां उसकी ज़िंदगी में एक के बाद एक अतरंगी किरदारों की एंट्री होती है, जिससे वह परेशान रहता है। जिसके बाद वह अपना सारा ध्यान इस झंझट से निकलने में लगा देता है। वह पढ़ाई कर बेहतर जॉब हासिल करने के सारे जतन करता है लेकिन एक के बाद उसकी जिंदगी में मुश्किलों बढ़ती ही जाती है।

पंचायत की कहानी कमोबेश चालीस मिनट में आठ एपिसोड में अभिषेक त्रिपाठी के झमेलों से शुरू और खत्म होती है। हर एपिसोड की कहानी अभिषेक त्रिपाठी को मिलने वाले झटकों से आगे बढ़ती है और गांवों के सामाजिक जीवन के ताने-बाने को बताने की कोशिश करती है। गांवो के लोग सीधे है पर दिमाग लगाने में थोड़ा संकोच करते है, यहां किसी भी बात का जवाब सीधा नहीं मिलता है। हर एपिसोड की कहानी अभिषेक त्रिपाठी, सरपंच मंजू देवी(नीना गुप्ता), सरपंच पति(रघुवीर यादव) और सचिव सहायक विकास (चंदन राय) के साथ आगे बढ़ती है।

रघुवीर यादव, नीना गुप्ता और जिंतेद्र कुमार के मंजे हुए कलाकारों के अभिनय के बीच चंदन राय अपनी मासूमियत और सहज अभिनय में भदेसी ठसक से कहानी को मजेदार तड़का देने की कोशिश करते है। चंदन राय इस वेब सीरीज़ ने नए सितारे के रूप में उभरते हुए कलाकार है, जो आने वाले समय में लोगों को प्रभावित कर सकते हैं।

पंचायत की कहानी जहां एक तरफ जेंडर असमानता को दूर करने के लिए पंचायत में महिला आरक्षण के बाद सरपंचपति व्यवस्था, दहेज और भूत-प्रेत की सुनी-सुनाई अफवाहों पर हल्की चोट करने की कोशिश हर एपिसोड में करती है। तो दूसरे तरफ इसके साथ-साथ यह भी बताती है कि गांवों के सरल जीवन में अफवाहों, छोटी-छोटी बातों से मान-सम्मान की राजनीति, गांव की सरल जिंदगी जिसमें भावनाओं का अधिक महत्व है, छोटी-मोटी बातों में खुशियां खोज लेना और अंधेरा होते ही चैन से सो जाना..इन सभी बातों को बहुत ही सहज और सरल तरीके से हलके संवाद के सहारे बताने की कोशिश दीपक कुमार मिश्रा ने की है।

हर एपिसोड में अलग-अलग समस्याएं आती है और उसको अपने अपने नज़रिये से सचिवजी और प्रधानपति के सुलझाने के तरीके भी सामने आते रहते है इसमें सहायक के भूमिका में अन्य कलाकार अपनी-अपनी भूमिका निभाते है। कहानी पंचायत सचिव अभिषेक त्रिपाठी के झमेलों से और झटकों से आगे बढ़ती है। बिजली की समस्या, चक्के के कुर्सी से जुड़ा मान-सम्मान, सरकारी स्लोगन “दो बच्चे है खीर, उससे ज्यादा बाबासीर” के विरोध और राजनीति, मानीटर को टीवी समझकर चोरी होने और छोटी-मोटी झड़पों के साथ आगे बढ़ती है।

अभिषेक त्रिपाठी एमबीए कैट के परीक्षा में अच्छे अंक लाने में सफल तो नहीं हो पाता है पर महिला सरपंच मंजू देवी को अपनी भूमिका का भान कराने में सफल हो जाता है। उसकी पंचायत सचिव की नौकरी भी खतरे में पड़ जाती है पर मंजू देवी अपने आत्मविश्वास और गांव के लोगों के सहयोग के इसको रूकवाने में सफल हो जाते है।

पंचायत बेवसीरीज अपनी कुछ कमियों के साथ एक दमदार वेब सीरीज़ कही जा सकती है। पूरी फैमली के साथ देखे जाने वाला यह शो चुटकुले अंदाज में माथे पर शिकन नहीं आने देता है। इस शो का अंतिम एपिशोड एक सूकून भी देता है कि अगर देश में महिला सरपंच थोड़ी सी हिम्मत दिखाएं तो अपनी भूमिका का निर्वाह शानदार तरीके से कर सकती हैं और सरकार का महिला सशक्तिकरण का सपना पूरा हो सकता है। वह रसोई में पूरी तलने और खाना बनाने के साथ-साथ महिला सरपंच का काम भी अपनी इच्छा शक्ति और आत्मविश्वास के दम पर कर सकती है। ज़रुरत है तो बस थोड़ी सी नौकरशाही के सख्त होने की, महिला सरंपचों का आत्मविश्वास के साथ आगे आने की और सरपंच पत्तियों के सहयोग की।

इस बात से इंकार नहीं है कि वेब सीरीज़ भारतीय गांवों के सामाजिक हकीकत को हूबहू उतारने में असफल साबित होती है। पर इस बात में पूरी सच्चाई है कि भारतीय गांवों के लोग भावना प्रमुख होते हैं और शहरी जीवन की भाग-दौड़ से यहां के लोग कोसों दूर रहते हैं। लॉकडाउन के दिनों में जब हम कोरोना संकट के महामारी के गांवों में फैल जाने के खौफ से घबराए हुए है पंचायत वेब सीरीज़ एक मीठा सूकून देती है और इशारा करती है कि गांव के लोगों के सूझ-बूझ से इस समस्या का समाधान भी खोजा जा सकता है। शहरों के अपेक्षा भारतीय गांवों का जीवन अधिक सामाजिक और सुख-दुःख में साथ रहने का है, अधिक सख्त होकर नहीं भावनाओं पर ही समुचित नियंत्रण इनकी समस्या का समाधान दे सकता है।

मूल चित्र : YouTube

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