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दिल का करें और दिल का क्या कसूर,यह बेचारा कहीं भी चला जाता है और कहीं भी घूम कर आ जाता है। बुद्धू दिल , सच्ची में बुद्धू।
रंग में रंगता जाता है ,
धारा में बहता जाता है।
सामने देखते ही उनको ,
दिल ये धक् सा रह जाता है।
अनमने से ही देखें इधर,
तो शोर और बढ़ जाता है।
नियमित ताल से इधर आना,
ज्ञान दीपक बुझा जाता है।
कुछ कदमों की ही दूरी बस
अंधेरा सा छा जाता है।
ज्ञानेद्रियाँ सुप्त कर के,
सब मादक हो जाता है ।
पर पत्ती तक ना हिलने पर ,
सैलाब उतरता जाता है।
नेत्रों को काम पर लगा कर ,
अब मस्तिष्क जाग जाता है।
उस मोड़ पर देख उनको ,
गाल पर चपत जड़ जाता है।
और ख्यालों का हसीं महल ,
वहीं कहीं ढेर हो जाता है।
मूल चित्र : Pexels
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