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इस मदर्स डे आइए बात करें बॉलीवुड फिल्मों में अकेली मां की जिसे सशक्त भूमिका में दिखाया है लेकिन हमारे समाज में आज भी अकेली मां के लिए सोच संकुचित ही है।
हम और हमारा समाज कितना भी आधुनिकता की बातें करते हों लेकिन सच्चाई यही है कि अविवाहित और सिंगल मदर होना मुश्किलों से भरा है। पहले भी था, आज भी है और शायद दशकों तक रहेगा। हां वक्त के साथ-साथ जैसे-जैसे औरतें अपने पैरों पर खड़ी हो रही हैं उससे पहले की अपेक्षा वो अपने फ़ैसले लेने के लिए अधिक स्वतंत्र हो गई हैं। मातृत्व जीवन कैसा होगा इसका फ़ैसला भी वो स्वयं ही कर रही हैं।
और कहते हैं ना सिनेमा समाज का दर्पण होता है, तो वक्त के साथ-साथ फिल्मों में कहानियां भी अकेली या अविवाहित मां की परिभाषा को अलग-अलग अंदाज़ से गढ़ती हैं। 10 मई को मातृ दिवस के मौके पर आइए बात करें कुछ ऐसी फिल्मों की जिन फिल्मों में मां के मज़बूत किरदारों के ज़रिए समाज को एक नया आइना दिखाने की कोशिश की है।
https://www.youtube.com/watch?v=bjQ9JmZBl6U
1969 में आई फिल्म आराधना अविवाहित मां की दमदार कहानी है और उस समय ऐसी फिल्म बनाना भी बेशक मुश्किल रहा होगा। इस फिल्म में पायलट अरुण वर्मा ( राजेश खन्ना) और वंदना (शर्मिला टेगौर) एक-दूसरे से प्यार करते हैं और किसी को बिना बताए चुपके से शादी कर लेते हैं।
एक प्लेन क्रैश में अरुण की मौत के बाद वंदना पर जैसे दुखों का पहाड़ टूट जाता है और जब उसे ये पता चलता है कि वो मां बनने वाली है तो उसके लिए परिस्थितियां मुश्किल हो जाती हैं। विधवा और अविवाहित मां होने से ज्यादा बुरे हालात और क्या हो सकते हैं भला। वंदना का परिवार उसके मां बनने की बात सुनकर उसे अलग कर देता है। पिता की मौत के बाद वंदना का कोई सहारा नहीं रहता।
कुटिल समाज के लांछनों से बचने लिए वंदना को उसका बच्चा जबरन गोद देने के लिए विवश किया जाता है। मजबूर मां अपनी औलाद की बेहतर ज़िंदगी के लिए उसे गोद तो दे देती है लेकिन अपना जीवन उसी परिवार में उसकी आया बनकर बिता देती है। धीरे-धीरे मां-बेटे का अनजाना रिश्ता गहरा हो जाता है। सच्चाई पता चलने पर मां के निस्वार्थ प्रेम से बेटे का जीवन बदल जाता है। एक समर्पित प्रेमिका और पत्नी का कर्तव्य निभाने वाली मां की कहानी है आराधना।
https://www.youtube.com/watch?v=V2Vvefm-XaQ
1978 में आई फिल्मों में फिल्म त्रिशूल, एक बेटे की अपने पिता से बदले की कहानी है। राजकुमार गुप्ता (संजीव कुमार) पैसे और शोहरत के लालच में अपने पहले प्यार शांति (वहीदा रहमान) को छोड़कर एक अमीर घराने की बेटी कामिनी (गीता सिद्धार्थ) से शादी कर लेता है।
शांति अपने प्रेमी राजकुमार को बच्चे की ख़बर बताकर और शादी की मुबारकबाद देकर हमेशा के लिए उनकी ज़िंदगी से दूर चली जाती है। समय बीतता है और शांति अकेले ही अपने बेटे विजय (अमिताभ बच्चन) का भरण-पोषण करके उसे दुनिया से लड़ने के लिए तैयार करती है और फिर हमेशा के लिए दुनिया से अलविदा कह देती है। विजय को जब अपनी मां के साथ हुए अन्याय का आभास होता है तो वह अपने पिता को उनकी गलती का एहसास दिलाता है।
फिल्म में कई उतार-चढ़ाव आने के बाद विजय अपने बलबूते पर वो सब हासिल कर लेता है जिसके कारण उसके पिता ने उसकी मां को छोड़ा था और अंत में उस कंपनी का नाम भी शांति रखता है। इस फिल्म में मां के उस रूप को दिखाया गया है जो अपने प्यार की खुशियों के लिए सब छोड़ देती है लेकिन अपने बेटे को हर मुसीबत का सामना करने के लिए तैयार करती है।
साल 2000 में आई प्रीति ज़िंटा और स़ैफ अली खान की फिल्म क्या कहना अपने वक्त की बहुत बोल्ड फिल्म मानी गई थी।
इस फिल्म में एक युवा लड़की प्रिया की जो स्वभाव से बेहद ख़ुशमिजाज़ है। कॉलेज के पहले साल में उसे एक ऐसे लड़के से प्यार हो जाता है जो लड़कियों को आया-गया समझता है और जिसे प्यार का असल मतलब नहीं पता। अपनी मासूम और नादान प्यार में जकड़ी प्रिया सबके समझाने पर भी नहीं समझ पाती । राहुल के छोड़ के चले जाने के कुछ ही महीने बाद प्रिया को पता चलता है कि वो उसके बच्चे की मां बनने वाली है।
प्रिया के माता-पिता बेटी के भविष्य को बचाने के लिए राहुल के पास शादी का प्रस्ताव लेकर जाते हैं लेकिन पैसे के मद में चूर राहुल को कुछ नहीं दिखता। आख़िर में प्रिया बहादुरी से और अपने परिवार के साथ से बच्चे को पैदा करने का निर्णय लेती है । उसे रोज़ लोगों के ताने सुनने को मिलते हैं और कॉलेज में जाने पर भी लोग उसका बहुत मज़ाक उड़ाते हैं लेकिन प्रिया का मनोबल उसे टूटने नहीं देता और आख़िर में सभी को अपनी ग़लती का एहसास होता है। अंत में प्रिया अपने और अपने बच्चे के लिए जो फैसला करती है वो काबिले तारीफ़ है। फिल्म देखेंगे तो आप भी वाहवाही देंगे। इस फिल्म के विषय वस्तु पर कुछ लोगों ने उंगली उठाई तो दूसरी तरफ़ कई ज्यादा लोगों ने इसे खुल कर सराहा भी।
https://www.youtube.com/watch?v=v4_AdHDHzoA&t=10s
कभी-कभी आप परिस्थितियों के कारण अकेले माता-पिता बन जाते हो लेकिन कभी-कभी ये आपकी ख़ुद की च्वाइस होती है। कुछ फिल्मों में ये बात बखूबी दर्शायी है।फिल्म पा में विद्या बालन ने भी अपनी मर्ज़ी से अकेली मां बनने का फ़ैसला किया था । विद्या का ये किरदार बखूबी लिखा गया है और उसे बहुत ही सावधानी से पिरोया गया है कि कैसे एक सिंगल मदर होना और समाज की दकियानुसी मर्यादाओं को तोड़कर अपनी बात पर डटे रहने के लिए क्या-क्या सामना करना पड़ सकता है और जब आपको ये भी पता हो कि आपके बच्चे की ज़िंदगी शायद आपसे भी कम है।
ओरो (अमिताभ बच्चन) जो कि बचपन से ही एक प्रोजेरिया नाम की बीमारी से ग्रसित है इसलिए अपनी उम्र से पहले ही बूढ़ा होने लगता है। ओरो के पिता अमोल (अभिषेक बच्चन) को अपने इस बेटे के बारे में नहीं पता क्योंकि विद्या ये बात गुप्त रखती है और अपनी मां के साथ ही ओरो की पूरी ज़िम्मेदारी उठा रही है। विद्या की मांग का रोल करने वाली अरुंधती नाग ने भी इस फिल्म में जानदार अभिनय किया था उन्होंने भी मां की एक अलग परिभाषा गढ़ी थी जो अपनी बेटी के फ़ैसले में उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी है और दोनों ही मां-बेटी कैसे एक-दूसरे की शक्ति बनी हुई हैं। ओरो के लिए ये दोनों ही औरतें उसकी जीवन का म़जबूत स्तंभ हैं।
साल 2018 में आई हेलिकॉप्टर इला फिल्म भी एक सिंगल मदर और बेटे के मुश्किल लेकिन ख़ूबसूरत रिश्ते की कहानी है। इस फिल्म में काजोल ने मां इला रायतुरकर और बेटे विवान का रोल ऋद्धि सेन ने निभाया है। पति के घर से चले जाने के बाद इला अकेले ही अपने बेटे की परवरिश कर रही है। अपने बेटे की हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी बात को लेकर इला सजग है लेकिन बड़े होते बेटे के लिए मां का हर बात में दख़लअंदाज़ी करना थोड़ा रस्साकशी पैदा कर देता है।
ईला जो कि एक वक्त में बेहतरीन गायक होती है बेटे विवान कि खातिर वो महज़ एक मां बनकर रह जाती है। उसका अपना पूरा जीवन बस अपने बेटे पर केंद्रित किए हुए हैं। बड़ा होता बेटा अपनी मां से थोड़ी स्वंतत्रता चाहता है इसलिए कहता है कि आप अपने लिए कुछ कर लो। मां भी बेटे के ही कॉलेज में एडमिशन लेकर अपनी अधूरी छूटी पढ़ाई फिर से पूरी करने में लग जाती है। क्या ईला खुद को ढूंढ पाती है या नहीं? यह जानने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी।
शायद इस फिल्म का नाम आपमें से कुछ लोगों ने ना सुना हो लेकिन 2013 में मां-बेटी के रिश्ते पर आधारित ये फिल्म काफी संवेदनशील कहानी है। लीला कृष्णमूर्ती (दीप्ति नवल) की कहानी है जो अकेली मां है और अपनी स्वच्छंद विचारों वाली बेटी अमाया (स्वरा भास्कर) से साथ रहती हैं। दोनों मां-बेटी के रिश्ता सहेलियों जैसा है और वो मिलकर एक कॉफी शॉप चलाती हैं।
इस बीच अकेली लीला को एक सच्चे साथी जयंत सिन्हा (फ़ारूख़ शेख़) से मिलती है औऱ अपनी आगे की ज़िंदगी उनके साथ बिताना चाहती है। पहले तो अमाया को भी जयंत अच्छा लगता था लेकिन अपनी मां के उनके प्रति लगाव को देखकर अमाया को ये बात पसंद नहीं आती। अचानक उसके स्वच्छंद विचार फुर्ररर हो जाते हैं। फिर कैसे ये कहानी मोड़ लेती है और क्या अमाया अपनी मां को समझ पाती है या नहीं या फिर बेटी के लिए लीला अपनी पसंद छोड़ देती है इसी के ईर्द-गिर्द ये कहानी बुनी गई है।
इन सब फिल्मों में कहीं ना कहीं अकेली या अविवाहित मां की सशक्त भूमिका को दिखाया है लेकिन हमारे समाज में आज भी अकेली मां के लिए सोच संकुचित ही है। ख़ुद ही अपने आस पास देखिए कितने ही लोग आपकी इस बात से सहमत हैं कि अविवाहित मां होना सही है और इसमें कुछ ग़लत नहीं। आपको ज्यादातर जवाब ना में ही मिलेगा क्योंकि कुंठित विचारधारा वाले समाज के लिए बिना शादी के बच्चे तो पाप जैसा है। यहां तक की कोई अगर बच्चा गोद भी ले लेता है तो कहने को तो लोग वाहवाही करते हैं लेकिन पीठ पीछे यही कहते हैं कि बच्चा तो अपना ही होना चाहिए।
लेकिन विचारधारा को तोड़ने के लिए ज़रूरत होती है साहसी लोगों की और ऐसी ही कुछ जानी-मानी महिलाएं हैं जिन्होंने अकेली या अविवाहित मां होने का फ़ैसला स्वयं किया है। अभिनेत्री सुष्मिता सेन ने बिना विवाह के 24 साल की छोटी उम्र में बेटी गोद लेने का फ़ैसला किया और आज वो 2 बेटियों की मां हैं। पुराने ज़माने की अभिनेत्री नीना गुप्ता और पूर्व क्रिकेटर विवयन रिचर्ड एक-दूसरे से प्रेम करते थे और उनकी बिना शादी के एक बेटी हुई मसाबा गुप्ता जो आज जानी मानी फैशन डिज़ाइनर है। रवीना टंडन, एकता कपूर जैसे और भी कई जाने-माने नाम हैं जिन्होंने शादी से पहले या शादी के बाद या फिर शादी के बिना मां बनने का फ़ैसला लिया और उन्हें अपने इस फ़ैसले पर कोई खेद नहीं है।
हमारा समाज बिन ब्याही या अकेली मां को आज भी सहजता से नहीं लेता और ऐसी मांओं को भारी उपेक्षा और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। मातृत्व सुंदर और स्वतंत्र रिश्ता होना चाहिए। ज़रूरी नहीं उसे समाज की घिसी-पिटी ज़ंज़ीरों में बांधकर ही देखा जाए। वक्त के अनुरूप समाज को बदलना ही चाहिए ।
मदर्स डे 2020 : चलिए एक बार मां को भी इंसान की तरह देखें, उन्हें एक मां की छवि से बढ़कर देखें, जो दिन भर बस आपकी और घर की देखभाल करती है और उन वर्किंग मदर्स को भी जो अपनी वर्क लाइफ और घर के बीच संतुलन बनाकर चलती है। इस बार उन्हें एक औरत के रूप में देखें और इस मदर्स डे पर उन्हें सेलिब्रेट करें, चाहे आप उनके साथ रह रहें हैं या उनसे दूर। 2020 के इस मदर्स डे को अपनी मां के लिए यादगार बनाते है या अगर आप एक मां हैं तो अपने लिए यादगार बनायें।
मूल चित्र : यूट्यूब
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