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आज हम फिर चल पड़े, अपने सफर पर…

कुछ अरमां जो हम उठते -बैठते, चलते-फिरते संजोते रहे, कुछ बातें जो ज़ुबाँ न कह सकी, कुछ कहे-अनकहे शब्दों को बेझिझक, हमने बयाँ कर दिया।

कुछ अरमां जो हम उठते -बैठते, चलते-फिरते संजोते रहे, कुछ बातें जो ज़ुबाँ न कह सकी, कुछ कहे-अनकहे शब्दों को बेझिझक, हमने बयाँ कर दिया।

कुछ ख्वाब मन में ही दबे रह गए थे,
कुछ अरमां जो हम, उठते, बैठते,
चलते-फिरते संजोते रहे,
कुछ बातें जो ज़ुबाँ न कह सकी,
कुछ कहे अनकहे शब्दों को बेझिझक,
बयाँ कर दिया।

कलम का ऐसा सहारा मिला,
की ज़ुबाँ की भी जरुरत नहीं,
कलम नें ऐसा संभाला हमें,
पूरे राज़ कह डाले हमने,
क्यों? होठों पर मुस्कराहट न थी,
क्यों, कदम भी स्तब्ध थे?

अपने नाम से ऐसा प्रेम था हमें,
कि जी करता है क्या कर दूँ,
तुझे पाने के लिए,
एक पल के लिए भी,
कदम न लड़खड़ाए।

हाँ ! कभी हीनता सी जरूर,
पनपी मन में,
मगर आज हम फिर चल पड़े,
अपने सफर पर…

आज मेरे क़दमों में रवानी है,
मेरे ख्वाबों में जान,
और फिर खिल उठा मेरा मन,
मेरे मन में, बहार है,
जो फिर पक्षियों की ही तरह,
उड़ान भरने के लिए तैयार है…

मूल चित्र : Unsplash

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Vibhooti Rajak

Blogger [simlicity innocence in a blog ], M.Sc. [zoology ] B.Ed. [Bangalore Karnataka ] read more...

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