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मन की भाषा कभी किसी को समझ नहीं आती क्युंकि मन कभी तो विचलित होता है और कभी शांत और सारे कायाकल्प मन की भावना पर ही निर्भर होते हैं।
डूब गई, मैं खुद ही, खुद में!
कैसे शांत करूँ? इस विचलित विहंग को! तड़पा उठी, अचला सी मेघों को!
मचल मचल, लहराती, शनैः शनैः जलती दीपक की लौ सी! जलती रही मैं भी, डूब गई, मैं खुद ही, खुद में!
खोज रही थी, मन की वीणा के तार, अपने अंतस मैं बार बार, खोज रही थी, मधुर स्वर संगीत, अनुराग राग, उन्माद भरा!
विहँस – विहँस विकलित अंतर्मन, छिन्न-भिन्न चितवन, मुरझा गई कलियाँ, सूख गए, सब वन-पराग, डूब गई, मैं खुद ही, खुद में!
अंतर्मन की इस झंझावट ने, घेर लिया दिग्भ्रान्त, नीर भरा, नीरस सा मन, सागर सी गहराई, कैसे पहुँचु तट तीर?
खोज रही थी, हिय मैं अपने, अपनी आभा को, विधु समान कान्ति हो जिसमें, पुनीत पावन सा मर्म, खंगाल रही थी, सागर में मोती, डूब गई, मैं खुद ही, खुद में!
मूल चित्र : Canva
Blogger [simlicity innocence in a blog ], M.Sc. [zoology ] B.Ed. [Bangalore Karnataka ] read more...
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