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बरामदा, कितना अलग वातावरण होता है इस जगह का, इसने न जाने कितने दशक देख लिए होते हैं, और जीवन के खट्टे मीठे पल, न जाने कितने तूफ़ान और कितनी ही खुशिओं से होकर गुज़रता है ये......
बरामदा, कितना अलग वातावरण होता है इस जगह का, इसने न जाने कितने दशक देख लिए होते हैं, और जीवन के खट्टे मीठे पल, न जाने कितने तूफ़ान और कितनी ही खुशिओं से होकर गुज़रता है ये……
हर सुबह खिलती धूप मुझमें अलग ही ताजगी भर देती हैं, जो आज के घरों में नहीं। जितना पुराना हूँ मैं, उतनी ही अगण्य कहानियाँ छुपी है मुझमें। किसी के लिए जैसे मैं कोई बुजुर्ग हूँ, जिनकी उम्र का कुछ कहा नहीं जा सकता। पहले बढ़ते कदमों से लेकर, बुढ़ापे के लड़खड़ाते कदमों तक, मैंने सब देखा है। बदलती ऋतुओं जैसे रिश्तों को बदलते देखा है, सब किस्सों से वाकिफ हूँ मैं। अनजान तो उनकी परेशानियों से भी नहीं, मुझमें बिछी कुर्सियों पै बैठ ही तो उनका हल ढूूँढा करते थे सब। नाज भी करता हूँ अपने तजुर्बे पर चुपचाप, जब कोई मेरी तारीफ करता है। उन ठंडी रातों में अलाव जलाकर सब बैठते तब मैं भी नर्म हो लेता। और माँ की प्यार भरी लोरी सुने बिना मैं भी कभी नहीं सोया। खैर अब वो रात नहीं , वो बात नहीं। गुजरते हर सालों को एक टक देखता हुआ अब इतिहास हूँ मैं। इनकी यादों की पिटारो का गवाह हूँ मैं। बरामदा हूँ मैं…
मूल चित्र : Pixabay
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