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हाँ मैं रुक गयी…मैं ये सोच के रुक गई!

कभी कभी मन और मष्तिष्क खुद के लिए जीना मांगते हैं और कभी कभी भागती हुयी ज़िंदगीं में ठहराव ज़रूरी हो जाता है...इसीलिये में रुक गयी। 

कभी कभी मन और मष्तिष्क खुद के लिए जीना मांगते हैं और कभी कभी भागती हुयी ज़िंदगीं में ठहराव ज़रूरी हो जाता है…इसीलिये में रुक गयी। 

खुद से, लोगों से…
अपनों से, परायों से,
मैं थक गई
मैं रुक गई।

मैं रुक गयी ये सोच के,
मैं रुक गयी ये सोच के 
कहीं खुद से न दूर चली जाऊँ…

मैं रुक गयी ये सोच के,
कहीं भीड़ में बस भीड़ ना होके रह जाऊँ,
कहीं अपने आप में तुमको और तुम में खुद को ढूँढने बैठूं।

पर जब से रुकी हूं,
तुम मानो ना मानो,
समंदर सा सैलाब आता है, पर बहाता नहीं
सूरज की कड़क धूप अब चुभती नहीं।

हवाओं में अपने लिए प्यार ढूंढ लेती हूं
सुबह की पहली किरणों में दुआए ढूंढ लेती हूं
अब ना दरवाजे पे किसी के आने का इंतजार है
और ना ही घड़ी के सुइयों से हमें प्यार है…

अब वक्त की नजाकत नहीं, ठहराव अच्छा लगता है
किसी में डूबना नहीं, खुद को पाना अच्छा लगता है…

जब से रुका है, खुद को पहचानने लगी हूँ,
अब आईना नहीं कहता तू खूबसूरत है,
दिल से आवाज आती है तू बस तू है।

हाँ इसीलिये में रुक गयी…

मूल चित्र  :  Unsplash

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Anushree Dash

Gender Equality Advocate, TEDx Speaker, Social Reformer, Sociopreneur, Human Rights Activist, Pad woman of Odisha , Writer, Motivational Speaker, Art connoisseur... An impenitent, non-conformist, adventurous, boho soul and an admirer of life. Loves my Indian read more...

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