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हर एक, सिखाए एक को – नारा दिया था कुलसुम सयानी ने प्रौढ़ शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए!

क्या आप जानते हैं, हर एक, सिखाए एक को के नारे के साथ कुलसुम सयानी ने व्यस्क शिक्षा की नींव रखी जो बाद में प्रौढ़ शिक्षा के नाम से जाना गया।

क्या आप जानते हैं, हर एक, सिखाए एक को के नारे के साथ कुलसुम सयानी ने व्यस्क शिक्षा की नींव रखी जो बाद में प्रौढ़ शिक्षा के नाम से जाना गया।

रेडियों के दुनिया में एक आवाज इस तरह की है जिसको लाखों आवाज़ के बीच पहचानी जा सकती है, वह आवाज है अमीन सयानी का। अमीन सयानी के तरह ही उनकी मां कुलसुम आपा का भी जाना-माना नाम रहा है जिनका नारा था “हर एक, सिखाए एक को” जो अब किसी को याद नहीं है। “हर एक, सिखाए एक को” के नारे के साथ सयानी ने व्यस्क शिक्षा की नींव रखी जो बाद में प्रौढ़ शिक्षा के नाम से जाना गया।

कुलसुम सयानी का नाम अधिक उल्लेखनीय नहीं है आज के दिनों में लेकिन उनका जीवन और काम दोनों ही उल्लेखनीय रहे हैं। 21 अक्टूबर 1900 में डां० राजाबाली के घर पैदा हुई जो महात्मा गांधी, पटेल और मौलाना अब्दुल कलाम के निजी चिकित्सक थे। बचपन में कुलसुम ने महात्मा गांधी को अपना आदर्श बना लिया था।

17 साल की उम्र में कुलसुम ने मुल्क़ की आज़ादी के ख्वाब को अपनी आँखों में संजोया और सब कुछ छोड़ गाँधी जी के पाँव के पीछे अपने पाँव बढ़ा दिए। 1921 में प्रिंस आंफ वेल्स कीं मुबंई यात्रा का विरोध में कई प्रदर्शन आयोजित किए गए थे और शहर अस्थिर हो रहा था। उस महौल का बयान करती हुई कुलसुम लिखती है कि “घायलों की देखभाल करने के लिए एक नया कांग्रेस अस्पताल स्थापित किया गया था। हमारे पास एक छोटी सी सेक्सन कार थी जिसपर रेड क्रांस का बिल्ला नजर आता था। मेरे पति जब जब अस्पताल के लिए निकलते जो डाक्टर थे। मैं फोन के पास बैठी रहती जब तक वह अस्पताल पहुंच कर फोन नहीं करते थे कि वो सुरक्षित है।”

महात्मा गांधी के साथ सयानी की बातचीत और उनके परिवार में शिक्षा का जो महत्व था उससे कुलसुम को निरक्षरता उन्मूलन की जरूरत का एहसास हुआ। 1938 में सौ रूपये की पूंजी के साथ उन्होंने दो शिक्षकों को रखा और छात्रा खोजने के लिए मुस्लिम इलाकों के चक्कर लगाना शुरू किया। मुस्लिम समाज में आज के शिक्षा स्थिति को देखते हुए उस दौर में मुस्लिम लड़कियों के शिक्षा के बारे में सोचिए। लोग महिलाओं को पढ़ाई-लिखाई की क्या जरूरत बोलकर कुलसुम के मुंह पर ही दरवाजे बंद कर देते थे। बाद में कांग्रेस और कई सामाजिक संस्थाओं के मदद से उन्होंने समाजिक शिक्षा समितियां बनाई। उन्होंने शिक्षित करने के लिए स्वयं को भाषा में कैद नहीं रखा उर्दू, हिंदी, गुजराती, मराठी और तेलगू भाषा के माध्यम से लोगों को साक्षर करने की कोशिश की।

कुलसुम वह पहली महिला थीं जिन्होंने घूम-घूम कर स्कूल खोले, शिक्षा का प्रचार किया। लड़कियों की पढ़ाई पर इतना ज़ोर दिया की कांग्रेस के कार्यालयों में क्लास चलने लगी। जब आज़ादी के वक़्त मुस्लिम लीग ने लोगों को भड़काने का काम किया तो इन्होंने शिक्षा का ऐसा आंदोलन खड़ा कर दिया की उसके सामने सब बौने हो गए। सयानी ख़ामोशी से तालीम के छोटे-छोटे चिराग जलाती हुई चली गईं। काँग्रेस के “जन जागरण” अभियान को इन्होंने ही सबसे सफल बनाया। जब सब तरफ मायूसी थी। तब “रहबर” नाम से एक प्रौढ़ शिक्षा का अभियान चलाया जो बेहद सफल हुआ। उस दौर में उनके इतना प्रौढ़ शिक्षा पर किसी ने काम नहीं किया।

 

सयानी बहुत ही व्यावहारिक थी और विशेष रूप से “हर एक, सिखाए एक को” सहित उन्होंने साक्षरता प्रसार के लिए अनेक योजनाएं शुरू की। वह कई स्कूलों में जाया करती थीं और युवा छात्रों को हर दिन एक पंद्रह मिनट पढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करती थी। इस योजना के तहत छात्रों को हर दिन अपने परिवार, पड़ोस या घरेलू सहायकों में किसी को भी अक्षर सिखाना और पढ़ाना होता था। एक दूसरी साक्षरता पहल जो उन्होंने शुरू की थी – “जोर से पढ़ना”। स्कूल के छात्रों को दोस्तों और व्यस्कों को इकट्ठा करने और हर एक को बाहर जोर से पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया गया। उनका विश्वास था, नव साक्षरों के आत्मविश्वास और रूचि में सुधार के लिए यह आवश्यक था।

स्वतंत्रता संघर्षो के दौरान के जेलों में सड़ रहे सैकड़ों राजनीतिक कैदियों ने उनके निकाले जाने वाले अखबार “रहबर” को जोर से पढ़कर अपनी हिंदुस्तानी में सुधार किया। 1940  में शुरू हुआ “रहबर” नए शिक्षार्थियों के उद्देश्य से शुरू हुआ। रहबर हिंदी और उर्दू का मिश्रण था यह वह समय था जब दोनों भाषाओं में अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के प्रयास जोड़ पकड़ चुकी थी।  महात्मा गांधी ने सयानी को पत्र लिखते हुए कहा “मुझे रहबर में हिदी और उर्दू को जोड़ने का मिशन अच्छा लगा। इसे सफलता मिले।”

सयानी ने दुनिया भर में शिक्षा के कई अंतराष्ट्रीय मंचो पर भी भारत का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने 1953 में पेरिस(फ्रांस) में यूनेस्को सम्मेलन में भाग लिया और विचारों की सहभागिता की और कई देशों के प्रतिनिधियों के साथ बात कर नए दृष्टिकोण प्राप्त किए। उनकी रूचि शांति के साथ भारत और पाकिस्तान के बीच समझ बढ़ावा देने में थी।

भारत में “रहबर” के संपादक के रूप में उनकी प्रतिष्ठा से उन्हें नेहरु,बी.जी खेर, मेनन, रफी अहमद किदवई और इंदिरा गांधी के साथ मिलने का समय लेने में मदद मिली। सयानी  का जीवन कई लोगों के लिए एक प्रेरणा है। शादी हुई जब वह केवल 18 साल की थी, उन्होने अपने परिवार और सामाजिक रूझान को बराबर जोश से निभाया। बीस साल तक रहबर का कुशल प्रकाशन करने के बाद बुढ़ापे के कारण 1960 में रहबर का प्रकाशन बंद करना पड़ा। उन्हें सरकार के तरफ से 1960 में पद्म श्री दिया गया और 1969 में नेहरू साक्षरता पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।

 27 मई 1987 को उनकी पुण्यतिथी है। भारत को शिक्षित और साक्षर बनाने के उनके अथक प्रयासों के लिए उनको जरूर याद किया जाना चाहिए। खासकर आजाद भारत में वयस्कों को शिक्षित करने के लिए जो प्रयास किए जो बाद में प्रौढ़ शिक्षा के रूप में स्वीकार कर लिया गया जिससे आजाद भारत में कई लोग शिक्षित होकर अपना-अपना जीवन बेहतर कर रहे है।

मूल चित्र : YouTube

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