कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं?  जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!

लेखिका कृष्णा सोबती जी के साथ मेरी एक अनोखी मुलाकात

हाँ! वह चेहरा कोई और नहीं लेखिका कृष्णा सोबती जी थीं, जिनका उपन्यास मैं कुछ देर पहले पढ़ रहा था, और अब उनके सामने बैठा हुआ था।

हाँ! वह चेहरा कोई और नहीं लेखिका कृष्णा सोबती जी थीं, जिनका उपन्यास मैं कुछ देर पहले पढ़ रहा था, और अब उनके सामने बैठा हुआ था।

सर्दियों की सुबह थी, एकदम शांत वातावरण, मैं अपने कमरे में बैठ कर सोच रहा था मई में मेरी परीक्षा है मास्टर्स हिंदी की, उसमे उपन्यास भी आएंगे, मैंने सोचा चलो मैं अपने सिलेबस में से उपन्यास निकालता हूँ और तैयारी शुरू करता हूँ, ‘ज़िंदगीनामा’ जो कि कृष्णा सोबती द्वारा लिखा गया था। जिसमें आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद का दृश्य भी था। बहरहाल मैंने पढ़ना शुरू किया, मगर सर्दियों में वैसे ही वातावरण शांत होता है, ऊपर से अम्मी का शोर, “इमरान बाज़ार से गुड़ ले आ, मुझे तिल के लड्डू बनाने हैं!”

वैसे तो मुझे बिल्कुल मीठा पसंद नहीं मगर मैंने जब तिल के लड्डू की बात सुनी तो मुँह में पानी आना तो लाज़मी था। तो मैंने किताब वहीं छोड़ी और फटाक से उठ खड़ा हुआ और बाज़ार से जाकर गुड़ लेकर आया और अम्मी के हाथों में थमा दिया।

मैं फिर पढ़ने बैठ गया, इस लालसा में की जल्दी जल्दी गर्मा गर्म लड्डू मिलेंगे मज़ा आएगा। मन में तिल के लड्डू की महक और लज़्ज़त बिना खाये ही घूमने लगी, उपन्यास तो कम पढ़ रहा था मगर लड्डू की सोच में ज़्यादा डूबा हुआ था। फिर एका एक अम्मी की आवाज़ आती है, “इमरान, तिल कम पढ़ गया लड्डू नहीं बन पाएगा, जा बाज़ार से दौड़ कर ले आ!”

इस बार मैं खींझ गया और बड़बड़ाता हुआ तिल लेने चला गया और तिल घर पर अम्मी के हाथों में देते हुए मैंने कहा, “मैं शिवानी के घर जा रहा हूँ, वहीं पढ़ाई हो पाएगी मेरी।” शिवानी मेरी महिला मित्र के साथ साथ मेरी माँ की तरह हैं, समानता के रास्ते पर चलते हुए हम एक दूसरे का नाम लेकर ही पुकारते। 

अम्मी बुदबुदाती हुई शांति से लडडू की कढ़ाई को चलाती रहीं। मैं घर से निकल पड़ा और अपना पढ़ाई का बैग लेकर शिवानी के घर चला गया। वहाँ पहुँच कर सबसे पहले शिवानी ने मुझे गले लगाया और मुझे विश किया, “हैप्पी बर्थडे इमरान, तुम जिओ हज़ारों साल! अच्छा! बता क्या खाएगा? फल भी हैं और चिकन भी बना हुआ रखा है।”

मैंने उत्तर दिया, “थैंक यू, मगर मुझे कुछ खाना नहीं पढ़ना है, बाद में खाऊंगा।”

यह कहकर मैं ड्राइंग रूम के सोफे पर बैठ कर अपना उपन्यास पढ़ने लगा और साथ साथ मन में गुस्सा भी आ रहा था ,लड्डू तो मिले नहीं ऊपर से यह उपन्यास कितना कठिन है। कृष्णा जी को क्या पड़ी थी इतनी गहरी गहरी बात लिखने की, ऊपर से शब्द ऐसे जो मेरे सिर के ऊपर से ही गुज़र रहे थे। मगर उपन्यास में मुझे उस वक़्त भी एक एहसास हुआ के यह आंखों देखा हाल है जो कृष्णा जी की कलम ने पन्नों पर उतारा है। एक जीवंत साहित्य था। उसमें जीवन समाहित था, जो मुझे बार बार अंदर से प्रेरित करता जा रहा था। मैं सारी बातें शिवानी से कहता जा रहा था, और वह हँस कर मेरी बात गौर से सुन रहीं थीं।

एक, डेढ़ घण्टे बाद मैंने उपन्यास का पहला दृश्य पढ़ लिया उसके बाद वहीं उसी सोफे पर लेट गया और अध मुंदी आंखों से सोचने लगा, के वह कैसा समय था जो दो देशों को तोड़ रहा था, सबके घर जल रहे थे, कितनी कराहना थी लोगों के अंदर, हर प्रज्वल्लित हुआ दीप दंगों की आंधी से बुझे जा रहा था। लोग आपस में ऐसे भी हो सकते हैं आदि।

मेरी ज़िन्दगी का सबसे बेशकीमती तोहफा कृष्णा सोबती जी से मिलना  

इतनी देर में शिवानी ऊपर से तैयार होकर आईं और मुझे कहा, “चल तैयार हो जा।”

मैंने पूछा, “किस लिए? कहीं जाना है क्या?”

उत्तर आया, “हाँ जाना है।”

मैं अपने चेहरे को पानी से धो आया और तैयार हो गया। शिवानी ने कहा, “हमें यहीं कॉलोनी में जाना है, दूर नहीं जाना।”

हम लोग चलने लगे, हमको सातवीं मंज़िल पर जाना था। हमने लिफ्ट का प्रयोग किया। मेरे मन में सवालों के घने घने बादल बरसे जा रहे थे, के कहाँ जा रहे हैं? क्यों जा रहे हैं आदि। हम सातवें माले पर पहुँचे, मेरे आगे आगे शिवानी चल रहीं थीं और मैं उनके पीछे पीछे दबे दबे पांव आगे आ रहा था। शिवानी एक दरवाज़े पर आकर रुकीं और दरवाज़े के पास लगी बेल बजाने लगीं। मैंने सोचा शिवानी अपनी किसी दोस्त के यहाँ लाई हैं मिलवाने के लिए, हम अंदर गए और वहाँ एक घरेलू आया बाहर आई और बोली, “शिवानी दीदी, नमस्ते आईये, मैडम आपका इंतेज़ार कर रहीं हैं।”

मैं और शिवानी ड्राइंग रूम में बैठ गए। लगभग पांच मिनट के बाद मैंने एक छवि देखी। जामुनी रंग का शरारा और उसपर गोल्डन रंग की बेल लगी हुई पोशाक पहन कर मेरे सामने एक अभिलाषी, सुंदर, अनुभवी सी काया आकर खड़ी हुईं। उनके चेहरे की झुर्रियों से उनके जीवन के हर पहलू की महक आ रही थी, उनकी निश्छल मुस्कान बता रही थी के इस छवि ने न जाने कितने दशक देख लिए। उनको देख कर मानो ऐसा लग रहा था, शायद यह कोई सहित्य की देवी हैं, उनके प्यारे पहले अल्फ़ाज़ थे, “आओ ! शिवानी, कैसी हो? और बच्चे आप कैसे हो?” उन्होंने मुझसे पूछा, मैंने उत्तर दिया, “जी मैं बिल्कुल ठीक हूँ।” मैं स्तब्ध था, और ज़मीन तो मेरे पैरों से पहले से ही खिसक गई थी।

कमलेश उनकी काम वाली आया, हमारे लिए मौसम्बी का जूस लेकर आईं और मैं उस चेहरे को ही तकता जा रहा था, जिसने ना जाने कितने ही साहित्यों के सहारे अपने मन के विचारों को पन्नों पर उड़ेला था।

वह चेहरा कोई और नहीं कृष्णा सोबती जी ही थीं

हाँ! वह चेहरा कोई और नहीं स्वर्गीय कृष्णा सोबती जी थीं। जिनका उपन्यास मैं कुछ देर पहले पढ़ रहा था, और अब उनके सामने बैठा हुआ था। मैंने जूस पीकर अपने मन को थोड़ा शांत किया और उनसे बात करने की कोशिश करने लगा। मेरा उनसे पहला सवाल यही था वो भी बचकाना सा,  “ज़िंदगीनामा इतना कठिन है, कैसे लिखा आपने?”

उन्होंने कहा, “हाँ मुझे इस बात का पता है कॉलेज में मेरा ज़िंदगीनामा लगा हुआ है और कठिन है, इसलिए उन लोगों ने उसको सिलेबस में संकलित किया।” आगे उन्होंने पूछा, “कौन सा चरित्र अच्छा लगा?” मैंने उनको बताया “शाहनी का चरित्र अधिक प्रभवशाली है।”

शिवानी और मेरे से उन्होंने बोला, “इमरान तुमको साहित्य में रूचि है, हिंदी को आगे बढ़ाओ।” फिर उनकी बातें होती रहीं और मैं उनके अनुभव से कुछ न कुछ सीखता रहा। और अपने ज़ेहन में उतारता रहा।

कृष्णा सोबती जी का जन्म पाकिस्तान के गुजरात में 1925 में हुआ। यह कहानी की लेखिका रहीं, और बादलों के घेरे में इनकी कहानियों का संकलन मिलता है। उनके द्वारा लिखे गए कई उपन्यास बहुत प्रसिद्ध हुए। उनसे मुलाक़ात के बाद मैंने सारे उपन्यास पढ़ डाले और मुझे मित्रो मरजानी उपन्यास बहुत प्रभवशाली लगा। मित्रो मरजानी कृष्णा सोबती जी के द्वारा हिंदी में लिखा एक ऐसा उपन्यास है, जिसका कथा-शिल्प आम जनता के दिलों में आसानी से उतर जाता है और पढ़ने वाला इस से अंत तक जुड़ा रहता है।

मित्रो मरजानी उपन्यास की नायिका और औरत की आकांक्षाएं

उपन्यास की नायिका ‘मित्रो’ का चरित्र बहुत ही मुँहफट है और सहज है। उस समय के उपन्यास जगत में कृष्णा सोबती जी की यह नायिका अपने आप में सबलता का प्रतीक है।जिसमें जान डालने के लिए कृष्णा सोबती जी ने मज़बूत नारीत्व की झालर, और ममता के गुणों से सजा कर मित्रो के चरित्र का निर्माण किया।

मित्रो मरजानी में कृष्णा सोबती जी ने मित्रो के बहाने मगिलाओं की दशा का वर्णन किया है 1966 में जो स्तिथि महिलाओं की थी वह आज भी है, 2020 में भी वही असमानता, हज़ारों महिलाएं हैं जो मित्रो की तरह अपनी ज़िंदगी खुल कर जीना चाहती हैं। महिलाओं की अनगिनत आकांक्षाओं के बीच एक सबसे बड़ा मुद्दा है सेक्स की इच्छा, हमारे समाज में अगर कोई पत्नी या कोई महिला के दे कि मुझे सेक्स करना है, तो लोग उसको वैश्या कह कर सम्बोधित करने लगेंगे, आज भी समाज इस बात को नकारता है। कृष्णा सोबती जी ने मित्रो मरजानी में इस समस्या को पुरज़ोर तरीके से लोगों के सामने लाकर खड़ा किया है।

कृष्णा सोबती जी मेरे करीब रहीं क्योकिं वह एक नारीवादी लेखिका थीं

मैंने ऊपर इस उपन्यास के कुछ अंशों को ही इंगित किया है। कृष्णा सोबती जी मेरे करीब रहीं क्योकिं वह एक नारीवादी लेखिका थीं। उनके साहित्य में हमको महिलाओं के सशक्तिकरण की झलक देखने को मिलती है। कृष्णा सोबती जी से मेरी मुलाकात 2017 में हुई थी, उनको उसी वर्ष ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मनित भी किया गया था, जो साहित्य के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण पुरुस्कार माना जाता है।

अंत में चलते चलते मैंने ऐसा महसूस किया जैसे मैं उनके परिवार का हिस्सा हूँ। मैंने उनसे कई सवाल किए और उनके अनुभव के बारे में भी बात की।

मेरे उनसे दो महत्वपूर्ण प्रश्न थे

आपको दुनिया में सबसे महत्वपूर्ण चीज़ क्या लगती है , आपको सबसे अधिक क्या पसंद है?

“मुझे दुनिया की सबसे अच्छी चीज़ या पात्र कह लो वह है “माँ” माँ ही ऐसी सख्शियत है जिसको नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। ( उनकी उर्दू की ज़ुबान भी क़ाबिल-ए-तारीफ़ थी)
इसी दौरान उन्होंने एक नग़मा गुनगुनाया”

“माँ जैसी हस्ती दुनिया में है कहाँ?
नहीं मिलेगा वो दिल चाहे ढूंढ ले सारा जहाँ”

(और ज़ोर ज़ोर से ठहका लगाने लगीं)

आपको दुनिया में सबसे कम प्रभवशाली तथ्य क्या लगता है?

मुझको दुनिया में सबसे अधिक जो बुरा मुद्दा लगता है, वो है झूठ और बईमानी बस, दुनिया की सबसे मक़रूज़(खराब) चीज़े यही दो हैं।

ज़िंदगीनामा और लेखिका अमृता प्रीतम 

उसके बाद शिवानी ने ज़िक्र छेड़ा, “आपके कुछ मसले हो गए थे लेखिका अमृता प्रीतम के साथ, उसका क्या हुआ”?

उस पर उन्होंने बस यही कहा, “शिवानी सच जीतेगा, और जीतता आया है। उन्होंने मेरे ज़िंदगीनामा के शीर्षक को चुराकर उसका इस्तेमाल किया, जो बहुत ही गलत था।”

बहरहाल! हमारी बातें चलती रहीं और इसी बीच 2 घण्टे बीत गए। हमारा चलने का वक़्त आ गया। मैंने पूछा, “एक फोटो ले सकता हूँ आपके साथ?” उन्होंने कहा, “हाँ ज़रूर, मगर सोशल मीडिया पर मत डालियेगा।”
फिर ज़ोर ज़ोर से हँसने लगीं।

मैं उनसे वादा कर के आया कि आपके पास दोबारा आऊंगा, और लेखनी के विषय में बात करूंगा, मगर ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। 25 जनवरी,2019 को उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया।

मुझे 25 जनवरी याद है, जब मैंने एक जीती जागती छवि को एक प्रतिमा के रूप में देखा। मेरे हर आंसू में उनके ठहाकों की गूंज मेरे दिल को मलाल से भर रही थी। मुझे महसूस हो रहा था साहित्य का अंत हो गया। मेरे हवासों में आज भी वो दिन ज़िंदा है जो शिवानी ने मुझे 22 फरवरी 2017 को मुझे मेरे जन्मदिन का तोहफा इस प्रकार दिया।

आप हमारे पास ज़िंदा हैं और आपको महसूस करने के लिए मैं आपकी लाइब्रेरी में जाकर मौन धारण करता हूँ और छोटी सी आंसू की बूंद से आपके चरणों को स्पर्श करता हूँ।

“रूख वही रहती है, उसके रखवाले बदलते रहते हैं।” – ज़िंदगीनामा

(कृष्णा सोबती जी ने अपने घर को रज़ा फाउंडेशन को दान कर दिया था, जो करोड़ो की संपत्ति थी)

मूल चित्र : स्व कृष्णा सोबती जी की एल्बम से 

पोस्ट का चित्र : इमरान की एल्बम से 

विमेन्सवेब एक खुला मंच है, जो विविध विचारों को प्रकाशित करता है। इस लेख में प्रकट किये गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं जो ज़रुरी नहीं की इस मंच की सोच को प्रतिबिम्बित करते हो।यदि आपके संपूरक या भिन्न विचार हों  तो आप भी विमेन्स वेब के लिए लिख सकते हैं।

About the Author

96 Posts | 1,403,686 Views
All Categories