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मैं भी अर्धांगिनी : लेकिन ये आधा मुद्दा ही तो है अब सबसे बड़ा मुद्दा!

कहने को तो औरत कहती है 'मैं भी अर्धांगिनी', परंतु ये आधा हिस्सा उसको दिया किसने? ये आधा हक दिया किसने? और ये आधा अधिकार, मान-सम्मान दिया किसने?

कहने को तो औरत कहती है ‘मैं भी अर्धांगिनी’, परंतु ये आधा हिस्सा उसको दिया किसने? ये आधा हक दिया किसने? और ये आधा अधिकार, मान-सम्मान दिया किसने?

आधा तो क्या? उसे हर मोड़ पर छला जाता है, तोड़ा जाता है, मोड़ा जाता है और लज्जित किया जाता है और मौका मिलते ही पुरुष उसे सताने लगते हैं, रुलाने लगते हैं, उसकी हर भावनाओं का कत्ल करते लगते हैं। वह यह जरा सा भी नहीं सोचते कि नारी पर क्या गुजरेगी?

मैं भी अर्धांगिनी – केवल बात की जाती है

झगड़े के बाद, घटना होने के बाद तब देखते हैं कि नारी अब उससे ज्यादा ही रूठ गई है और वह न बोलेगी तो फिर बहुत से लोग झगड़ा करते हैं, उसे मारते हैं अपना हक जताते हैं। बहुत कम लोग(जो बेमन से) माफी मांगते हैं, वह भी इस डर से कि कहीं रिश्ता टूट न जाए। और बहुत ही कम लोग मन से माफी मांगते हैं, दिल से माफी मांगते है। ऐसा है हमारा महान पुरुष, ऐसे महान पुरुषों की बदतमीजियों को, क्रोध को, ईगो, अहम को हर रोज वह सहती है, पर मान-सम्मान न पाती है। और मैं भी अर्धांगिनी की केवल बात की जाती है। उसे उसका हक नहीं मिलता, कभी नहीं मिलता। इस कलयुग में तो कतई नहीं मिलता।

स्त्रियों के हक़ का खुद से विश्लेषण करें

कोई मुझे बताये कब दिया है, उसने स्त्रियों को हक़? खुद से विश्लेषण करें, पूरी कहानी आपकी आंखों के सामने आ जाएगी, क्यूंकि कोई खुद से झूठ नहीं बोलता? सच्चाई सामने आ जाएगी कि आपने उसे कितना हक दिया है।

क्या आज भी उसे अपने मन से ख़रीददारी करने का हक़ है? क्या उसे सपने पूरे करने का हक़ मिलता है? क्या उसे मन से कपड़े पहनने का हक़ मिला हुआ है? क्या वो उतनी आजाद है, जितना कि उसका भाई, पति और पिता है? आदि -आदि और अब वक्त आ गया है की उसे पदों से नहीं, बल्कि वास्तविक मान-सम्मान, आजादी, हक़ और वो सब दिया जाये जो पुरुषो को मिलता है।

कहने को देवी पर मान-सम्मान और हक़ नहीं

देवी, अर्धांगिनी आदि जाने कितनी पदवियां मिली हुई है पर मान-सम्मान और हक़ न मिला हुआ है। महिलाओं के अधिकारों की रोजमर्रा की बातों की तरह बातें होती रहती हैं और फिर भी उसकी स्थित न सुधरी है, आखिर क्यों? आखिर क्यों? आखिर क्यों? क्यों? क्यों? क्यों?

हमें सोचना ही होगा, हमें विचारना ही होगा की वो चाहती क्या है? उसकी खुशियां क्या है? उसका दुख क्या है?उसका मन क्या है? उसकी राहें क्या है? उसकी मंजिल क्या है? उसका प्रेम क्या है? उसके मन में क्या है? उसका दर्द क्या है?

कितने पुरुष अपनी अर्धांगिनी का सम्मान करते हैं?

आज विश्लेषण करना ही होगा, उसे उसका हक़ देना ही होगा, केवल अर्धांगिनी पदवी से काम नहीं चलेगा, उसको अर्धांगिनी बनाना ही होगा। क्या केवल नवरात्र में कन्याओं को देवी माना जाना सही है? पर वास्तव में कन्याओं को, स्त्रियों को, कितने पुरुष इस नजर से देखते हैं? कितने पुरुष उनका सम्मान करते हैं? यह देखना ही होगा, हमें खुद से विश्लेषण करना ही होगा।

हमें खुद से विश्लेषण करना ही होगा

सोचिए ज़रा –

१. क्या नारी  सच में अर्धांगिनी है?
२. या कितने लोगों के लिए नारी अर्धांगिनी है?
३. या पुरुष = महिला = सुखी परिवार
या पुरुष > महिला = परिवार
या पुरुष < महिला = परिवार

पुरुषों को खुद से खुद का विश्लेषण करना ही होगा तब खुद की मानसिकता का पता लगेगा और यही जानना महत्वपूर्ण है। जब तक खुद की मानसिकता का पता न चलेगा तब तक कुछ न बदलेगा, कुछ बदलाव नहीं आ सकता। नारियों को समझने की ताकत नहीं आ सकती।

जब तक खुद की मानसिकता का पता न चलेगा तब तक ‘मैं भी अर्धांगिनी’ का क्या मतलब?

इगो/अहम हावी रहेगा तो कुछ निष्कर्ष न निकलेगा, नारियों को दोष देने से पहले खुद का विश्लेषण कीजिए। खुद की मानसिकता का पता लगाइए, खुद की सोच का पता लगाइए, खुद के विचारों का पता लगाइए। खुद की नैतिकता का पता लगाइए तब आपको पता चलेगा कि आप कितने नैतिक हैं या कितने अनैतिक है।

आप कितने प्रेमी हैं या कितने प्रेम का दिखावा करने वाले है या धोखेबाज है, तब आपको पता चलेगा कि आप कितना सम्मान करते हैं। कितना आदर करते हैं नारी का और आप कितना हक देते हैं नारी को, आप कितनी स्वतंत्रता देते हैं नारी को।

हमारी इसी अनैतिक मानसिकता के कारण स्त्रियों का शोषण हो रहा है। उसे नहीं बल्कि पुरुषों को खुद से खुद को बदलना ही होगा, नहीं तो कितने भी कानून बदले जाएँ, कितने कानून बन जाएँ स्त्रियों की हालत जस की तस रहेगी। जब तक हमारी मानसिकता नहीं बदलेगी, हमारी सोच नहीं बदलेगी, हमारे विचार नहीं बदलेंगे तब तक स्त्रियों की ऐसी ही हालत रहेगी।

मैं चाहता हूं दिल से, मन से की स्त्रियों की हालत सुधरे, उसे अर्धांगिनी की तरह उसे हक़ मिले, सम्मान मिले और स्वतंत्रा मिले।

वह नारी पुकार रही है, आवाज दे रही है कि मैं भी अर्धांगिनी….

“हक भी दो मेरा,
सम्मान भी दो मेरा,
अधिकार भी दो मेरा।
प्यार भी दो मेरा,
यार भी दो मेरा।
अहसास भी दो मेरा,
स्वतंत्रता भी दो मेरी।
सपने भी दो मेरे,
शिक्षा भी दो मेरी,
संम्पति भी दो मेरी।

मेरा मान भी दो ,मेरा अभिमान भी दो,
मेरी शान भी दो, मेरी आन भी दो।
मेरा जो है, अब सब दो मुझको।
मेरा जो है, अब सब दो मुझको।

बहुत सता लिया, बहुत रुला लिया।
बहुत तड़पाया, बहुत नचाया।
अब तो मेरी जान दो।
अब तो मेरी पहचान दो।
अब तो मेरे को उड़ने दो।
अब तो मेरे को हँसने दो।

क्यूंकि,
मैं भी इक इन्सान हूँ,
मैं भी इक संसार हूँ।
मैं भी हूँ, मैं भी हूँ,
तू मान जरा, तू मान जरा।
तू समझ जरा, तू समझ जरा।

सब कुछ दे मेरा, तू मेरे पापा जरा।
सब कुछ दे मेरा, तू मेरे भाई जरा।
सब कुछ दे मेरा, तू मेरी जान जरा।
सब कुछ दे मेरा, तू ध्यान जरा।
सब कुछ दे मेरा, तू ध्यान धरा।
सब कुछ दे मेरा, सब कुछ दे मेरा।”

मूल चित्र : Pexels 

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