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मदर इंडिया से मॉम तक फिल्मों की माँ के हर किरदार से हमको और हमारे समाज को कोई न कोई संदेश ज़रूर मिला है और यहां हम उन फिल्मों की बात करेंगे!
भारत में बॉलीवुड ने हमेशा से माँओं के चरित्र को फिल्मों द्वारा बेहतरीन ढंग से पर्दे पर उतारा गया है, साथ के साथ बहुत खूबसूरत और बेहतरीन तरीक़े से लोगों के दिलों में जगह बनाई है। नरगिस दत्त की ‘मदर इंडिया’ हो या श्रीदेवी जी द्वारा ‘मॉम’। सब ने कड़ी मेहनत से किरदार में जान डाल दी। हर किरदार से हमको और हमारे समाज को कोई न कोई संदेश ज़रूर मिला है। चाहे वह एक तूफ़ान में खड़ी हुई माँ हो या दुश्मनों के सामने डटी हुई माँ।
फ़िल्मी दुनिया में कुछ माँओं के किरदार जो मेरी ज़िंदगी में अहम स्थान रखते हैं, किसी भी माँ की एक सच्ची तस्वीर पेश करते हैं, जिसमें सबसे पहले नाम आता है, नरगिस दत्त जी द्वारा निभाई गई माँ की भूमिका ‘मदर इंडिया’
https://www.youtube.com/watch?v=pe7ZIvhyKiU
वर्ष 1957 में प्रदर्शित मदर इंडिया अपने ज़माने के जानेमाने निर्देशक मेहबूब खाँन ने इसको लिखा था।इसमें एक माँ की कहानी थी, जिसका नाम ‘राधा’ था, राधा ने इसमें जीवन की मूल आवश्यकतओं के आभाव में भी अपने जीवन को डट कर जिया और पति के घर छोड़ देने के बाद बच्चों का पालन किया। इस फ़िल्म में आज़ादी के बाद कि स्तिथि को उजागर किया है, जिसमें महिलाओं की दुर्दशा और छुआछूत का चलन अपने चरम काल पर था। इस फ़िल्म में एक माँ के ऐसे किरदार की कहानी है जो एक देवी के रूप को दर्शाती है और मेहनत और लगन से अपने बच्चों को अकेले ही पालन पोषण कर के उनको बड़ा कर देती है।
1966 में रिलीज़ हुई ममता फ़िल्म। इन फ़िल्म का आधार सिर्फ और सिर्फ ममता ही है। ममता की करुणा इस फ़िल्म में देखने को मिलती है। फ़िल्म में मुख्य पात्र सुचित्रा सेन, अशोक कुमार और धर्मेंद्र ने निभाया है, और अपनी कलम से इसको पर्दे पर उकेरने का काम निहार रंजन गुप्ता ने किया है। उन्होंने इसमें एक एक दृश्य में ममता की वह छाप छोड़ी है जो कहीं और देखने को नहीं मिलती।
फ़िल्म में अशोक कुमार,मोनीष राय हैं। वहीं सुचित्रा देवयानी के चरित्र में हैं और डबल रोल में हैं। मोनीष और देवयानी आपस में प्रेम सम्बन्ध के रहते विवाह कर लेते हैं, मोनीष अमीर घराने से ताल्लुक रखते हैं और देवयानी गरीब परिवार से। शादी के बाद मोनीष अपनी पढ़ाई पूरी करने करने के लिए विदेश चले जाते हैं और देवयानी अकेली रह जाती है और वित्तीय समस्या से जूझती हुई, अपने पिता से मदद की गुहार लगाती है, मगर वहाँ से निराशा ही हाथ लगती है और देवयानी की शादी उसके पिता एक अधेड़ और शराबी आदमी से करवा देते हैं।
देवयानी गर्भवती हो जाती है और एक पुत्री को जन्म देती है, जिसका नाम ‘सुपर्णा’ होता है। देवयानी अपनी बेटी को एक नन के हाथों सौंप कर कहीं चली जाती है, उसके हालात ऐसे नहीं थे के वह अपनी बच्ची को संभाल सके। फ़िल्म के आख़िरी हिस्से में सुपर्णा वकील के रूप में अपनी माँ के लिए केस लड़ती है, क्योंकि वह पुरुष की क़त्ल करने की सज़ावार होती है। मगर अदालत के वह दृश्य आपकी आँखों में आँसू रखने की ताकत रखता है जिसमे ममता की एक सुंदर छवि आपके सामने पेश होती है, और एक बेटी अपनी माँ को न्याय दिलाने के लिए हर कोशिश करती है, क्योंकि उसको पता है के उसको जन्म देने के साथ साथ उसको मौत के मुंह से बचाने वाली भी उसी की माँ है।
https://www.youtube.com/watch?v=SG6z3hEf-vw
शबाना आज़मी द्वारा अभिनीत यह फ़िल्म एक अकेली माँ और बच्चे की कहानी है। वर्ष 1984 में मुश्ताक़ जलीली द्वारा लिखित यह कहानी, साक्षात भारत में महिलाओं की स्तिथि दर्शाती है। एक पत्नी और एक माँ के रूप को इस फ़िल्म द्वारा उभारने की एक बेहतरीन कोशिश की गई है।
कहानी में भावना (शबाना आज़मी) और उसके पति अजय के प्रेम संबंध से शुरू होती है, और दोनों शादी के बन्धन में बंध जाते हैं। अजय कमाई में कुछ ज़्यादा नहीं कमाता और इसी कारण भावना घर घर जाकर उसकी पेंटिंग्स बेचती है। इसी बीच भावना गर्भवती हो जाती है और यह बात अजय को नागवार गुज़रती है, वह बोलता है कि उसके पास इस बच्चे को पालने के लिए पैसे नहीं हैं, इसका भरण पोषण कैसे होगा? मगर भावना इस बच्चे को जन्म देना चाहती थी। अजय इन सब समस्याओं से परेशान होकर, भावना से बहाना लगाकर, के वह अपनी पिताजी से मिलने जा रहा है, कहकर घर से निकल जाता है। दिन महीनों में तब्दील हो जाते हैं और अजय वापस लौट कर नहीं आता।
इस समय भावना का बच्चा बड़ा होने लगता है, और वह उसका आखिरी सहारा होता है। यहाँ पर इस फ़िल्म का नाम लेने का मेरा मकसद सिर्फ इतना है कि भावना चाहती तो बच्चे को अनाथ आश्रम में डाल देती और खुद दूसरा विवाह कर के अपना घर भी बसा सकती थी, मगर एक बच्चे को अकेली ही मेहनत कर के सम्भालती रही।
https://www.youtube.com/watch?v=BTmQBqtp0EM
श्रीदेवी द्वारा अभिनीत यह फ़िल्म महिलाओं के अंदर प्रेरणा का स्त्रोत पैदा करती है। यह गौरी शिंदे द्वारा लिखी गयी कहानी उनकी खुद की माँ से प्रेरित है। इसमें शशि ( श्रीदेवी) के किरदार जे आसपास ही सारी कहानी घूमती है।
फ़िल्म में वह एक उद्यमी महिला हैं, जो लड्डू और स्नैक्स का काम करती हैं, मगर इंग्लिश न आने की वजह से अपनी बच्चों और पति से शर्मिंदा होती हैं, यही शर्मिंदगी उनको इस चीज़ से बाहर निकालती है। शशि को अपने परिवार द्वारा होने वाले व्यवहार से शर्मिंदगी होती है। जब वह न्यूयॉर्क के लिए अपनी भांजी की शादी में जाने के लिए हवाई जहाज में सफर कर रही होती है, तो उसको उसके साथ बैठा हुआ यात्री सलाह देता है, और एक कैफ़े में शशि को बहुत परेशानी और शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है। इसके बाद वह डिसाइड करती है, वह इंग्लिश की क्लास जॉइन करेगी और इंग्लिश सीखेगी। वो ऐसा करती भी है, और अपने आत्मविश्वास और मेहनत से अपने लक्ष्य को प्राप्त करती है।
फिलहाल के दिनों में हमारे देश की लड़कियों की सुरक्षा को लेकर कई फ़िल्में बनीं जैसे पिंक और मॉम। ये फिल्में हमारे देश की छवि को दर्शाती हैं कि अपराधियों को बिल्कुल भी नहीं छोड़ना नहीं चाहिए। फ़िल्म पिंक में एक होनहार वकील अपराधियों को सलाखों में डाल देता है वहीं मॉम में एक माँ अपनी बेटी के लिए समाज से लड़ जाती है। समाज में महिलाओं को अपनी सुरक्षा को लेकर जो चिंता है वो इन फिल्मों से व्यक्त हो रही है।
मॉम की दिल्ली में देवकी (श्रीदेवी) एक टीचर है। फ़िल्म में उसकी दो बेटियां हैं जिसमें से बड़ी आर्या सबरवाल (सजल अली) की उम्र 18 वर्ष के करीब है। अपने दोस्तों के साथ एक पार्टी में वह जाती है जहां पर उसका क्लास मेट मोहित, उसका भाई और दो अन्य लोग बलात्कार करते हैं। सबूतों के अभाव में ये अपराधी छूट जाते है।
मगर देवकी हार नहीं मानती, उसकी ममता बेशक पराई हो मगर उसकी आत्मा ममता से लबरेज़ रहती है। आर्या उसको बिल्कुल भी पसंद नहीं करती थी, मगर वही माँ उसके लिए वरदान साबित हुई और जिन्होंने उसके साथ अन्याय किया था, उनको उसने हरा कर ही छोड़ा। ममता सौतेली नहीं होती, यह तो समाज ने पात्र बना दिए हैं।
उपरोक्त, मदर इंडिया से मॉम तक, सारी कहानियाँ कहने को फिल्म हैं मगर इन फिल्मों में समाज की एक सच्ची तस्वीर है, एक बोलती हुई तस्वीर, जिसमें ख़ास है, माँ और उसकी ममता। ममता की छवि में उसके प्यार में उसके एहसास में कोई बदलाव नहीं आया वह तब भी आपने बच्चों का सोचती थी और आज के ज़माने में भी उसको अपने बच्चे ही सबसे पहले नज़र आते हैं।
माँ की ममता को गहनता से समझने के लिए इन फिल्मों का सहारा लिया जा सकता है, जो ममता की एक एक तपस्या और उसके बलिदान की साक्षी रहीं हैं।
मदर्स डे 2020 : चलिए एक बार मां को भी इंसान की तरह देखें, उन्हें एक मां की छवि से बढ़कर देखें, जो दिन भर बस आपकी और घर की देखभाल करती है और उन वर्किंग मदर्स को भी जो अपनी वर्क लाइफ और घर के बीच संतुलन बनाकर चलती है। इस बार उन्हें एक औरत के रूप में देखें और इस मदर्स डे पर उन्हें सेलिब्रेट करें, चाहे आप उनके साथ रह रहें हैं या उनसे दूर। 2020 के इस मदर्स डे को अपनी मां के लिए यादगार बनाते है या अगर आप एक मां है तो अपने लिए यादगार बनायें।
मूल चित्र : YouTube
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